सदगुरु : अगर आप कोयम्बटूर से दिल्ली तक की विमान यात्रा करें और हर पांच मिनट में खिड़की से झांक कर नीचे देखें, तो पश्चिमी घाट के बाद आप को भूरे रंग के रेगिस्तानों के सिवाय कुछ और देखने को नहीं मिलेगा। यह हुआ है हमारी नासमझ तरीके से की गई खेती के कारण। आज भारत की 84% भूमि पर खेती होती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय, हमारे देश में लगभग 94% लोग खेती पर निर्भर थे। ऐसा इसलिये नहीं था कि वे सब पारंपरिक रूप से किसान थे। अगर आप इस देश का इतिहास देखें तो पायेंगे कि 250 साल पहले हम विश्व के सबसे बड़े कपड़ा निर्यातक देश थे। सारी दुनिया के कपड़ा निर्यात का एक तिहाई भाग भारत से होता था। हमारे देश के चालीस से पैंतालीस प्रतिशत लोग कपड़ा बनाने का काम करते थे। हमने कभी कपास बाहर नहीं भेजा क्योंकि हमारे कपास की गुणवत्ता बहुत बढ़िया नहीं है। पर उसी छोटे रेशे की कपास और रेशम, सन, जूट तथा अन्य प्रकार के रेशों से हमने जादुई कपड़ा बनाया। हमने बुनाइयों की 140 से ज़्यादा अलग अलग किस्में विकसित कीं और उनके साथ कुछ ऐसी जादूभरी कारीगरी की, कि उनसे बने कपड़ों पर सारी दुनिया मंत्रमुग्ध हो गई।

ब्रिटिश गवर्नर जनरल विलियम बैंटिंक ने कहा, "भारत के मैदान सूती कपड़ा बुनकरों की हड्डियों के सफ़ेद रंग में रंगें हुए हैं।”

लेकिन वर्ष 1800 से 1860 के बीच हमारे कपड़ा निर्यात में 94% की कमी हो गयी। यह अनजाने में नहीं हुआ था, बल्कि जान-बूझ कर किया गया था। अंग्रेजों ने हमारे हथकरघे तोड़ डाले, बाज़ारों को नष्ट कर दिया, हर चीज़ पर तीन गुना से ज्यादा टैक्स लगाया और इंग्लैंड में बना मशीनी कपड़ा ले आये। ब्रिटिश गवर्नर जनरल विलियम बैंटिंक ने एक जगह कहा है, "भारत के मैदान सूती कपड़ा बुनकरों की हड्डियों के सफ़ेद रंग में रंगें हुए हैं।” जब उनके रोज़गार के साधन नष्ट कर दिये गये तो लाखों लोग भूख से मर गये। बाकी लोगों ने किसी तरह ज़मीन जोतना शुरू कर दिया जिससे खाने के लिये कुछ जुटाया जा सके। हर जगह बस गुज़ारे लायक खेती का काम शुरू हो गया।

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ये कोई पारंपरिक किसान नहीं थे, बल्कि कपड़ा उद्योग के विभिन्न कार्यों में लगे हुए लोग थे जो बस ज़िंदा रहने के लिये खेती करने लगे थे। जब हमें 1947 में स्वतंत्रता मिली तब भारत में 90% से भी ज्यादा लोग खेती कर रहे थे। आज ये संख्या घट कर 70% रह गयी है। इसका मतलब ये है कि 10 लोगों का खाना 7 लोग दे रहे हैं, ये कोई बहुत कुशलता की बात नहीं है, है कि नहीं ? हम ज़मीन का लगभग हर टुकड़ा जोत रहे हैं पर बहुत थोड़ा ही उगा पा रहे हैं। अगर हम अपने खेती करने के ढंग में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं करते तो इस परिस्थिति से बाहर आने का कोई रास्ता नहीं है।

इस देश में यदि आप ऐसी जगह जायें जहाँ मिट्टी अच्छी है तो आप को एक घन मीटर मिट्टी में 10,000 से भी ज्यादा प्रकार के जीव मिलेंगे। सारी धरती पर किसी भी अन्य देश की मिट्टी की अपेक्षा इस मिट्टी में सबसे सघन जीवन मौजूद है

भारत में उसी ज़मीन पर हजारों वर्षों से खेती हो रही है। लेकिन अब, पिछली पीढ़ी से, मिट्टी की गुणवत्ता इतनी खराब हो गयी है कि अब ये ज़मीन रेगिस्तान बनने की तैयारी में है। इसका कारण ये है कि हमने अधिकांश पेड़ काट डाले हैं और करोड़ों पशुओं को देश से बाहर भेजा जा रहा है। हमें समझना चाहिये - वे सिर्फ जानवर नहीं हैं, वे हमारी उपजाऊ मिट्टी की ऊपरी सतहे हैं जिन्हें हम अन्य देशों में भेज रहे हैं। जब जानवर नहीं होंगे तो आप अपनी मिट्टी को कैसे पोषित करेंगे? अगर आप अपनी मिट्टी को बचाना चाहते हैं, उसकी गुणवत्ता को बढ़ाना चाहते हैं तो उसमें जैविक पदार्थ जाने चाहियें। अगर पेड़ों की पत्तियाँ ज़मीन पर नहीं गिरेंगीं और जानवरों का गोबर उसमें नहीं मिलेगा तो ज़मीन में और कुछ भी डालने का कोई लाभ नहीं होगा। ये बिल्कुल सरल बुद्धिमानी की बात है जो हर किसान परिवार जानता है - कि कितनी ज़मीन पर कितने पेड़ और कितने जानवर होने चाहियें?

ये एक राष्ट्रीय स्वप्न है जो हमारे पुराने योजना आयोग ने भी अपने दस्तावेज में लिखा है कि हमारे देश की 33% ज़मीन पेड़ों से ढंकी हुई होनी चाहिये। क्योंकि अगर आप को अपनी मिट्टी की रक्षा करनी है तो यही एक मार्ग है। और मैं प्रयत्न कर रहा हूँ कि देश में ऐसा कानून बने कि अगर आप के पास एक हेक्टेयर ज़मीन है तो आप के पास गौ जाति के कम से कम 5 पशु होने चाहियें। अन्यथा आप को उस जमीन से बेदखल कर दिया जाये क्योंकि आप उस जमीन को नष्ट कर रहे हैं।

हमारी ज़मीन के बारे में एक अदभुत बात है जिसके बारे में हमारे पास वैज्ञानिक आंकड़ें तो हैं पर अभी तक वैज्ञानिक स्पष्टीकरण नहीं है। वह ये है कि इस देश में यदि आप ऐसी जगह जायें जहाँ मिट्टी अच्छी है तो आप को एक घन मीटर मिट्टी में 10,000 से भी ज्यादा प्रकार के जीव मिलेंगे। सारी धरती पर किसी भी अन्य देश की मिट्टी की अपेक्षा इस मिट्टी में सबसे सघन जीवन मौजूद है। हमें इसके कारणों की जानकारी नहीं है। पर इसे फिर से अच्छा बनाने के लिए थोड़े से ही सहयोग की ज़रूरत है। अगर आप उसे ये सहायक तत्व - पेड़ों की पत्तियां और पशुओं का मल - दें तो हमारी ये ज़मीन बहुत जल्द अच्छे परिणाम देगी। लेकिन क्या हमारी इस पीढ़ी के पास ये सहायता देने के लिये आवश्यक समझ है, या फिर हम सिर्फ बैठे बैठे अपनी ज़मीन को मरता हुआ देखते रहेंगे?

कृषि वानिकी मॉडल को अपनाने से पहले 5 वर्षों में, 5 वर्षों की औसत कमाई तीन से आठ गुणा बढ़ जाएगी

उदाहरण के लिये, कावेरी नदी के बेसिन में, 83000 वर्ग किमी ज़मीन है। पिछले 50 वर्षों में 87% वृक्ष काट डाले गये हैं। इसलिये मैं एक नया अभियान शुरू कर रहा हूँ - कावेरी पुकारे - जिससे इस नदी को पुनर्जीवित किया जा सके। कावेरी बेसिन के एक तिहाई भाग को हरा-भरा करने के लिये हमें 242 करोड़ पेड़ लगाने होंगे। ये काम ईशा फाउंडेशन नहीं करेगी। हम कृषि वानिकी अभियान चलाना चाहते हैं जिससे किसानों को यह समझाया जा सके कि उनके लिये यही आर्थिक मॉडल सर्वश्रेष्ठ है।

कर्नाटक में एक किसान की औसत कमाई 1 वर्ष में 1 हेक्टेयर ज़मीन पर 42,000 रुपये होती है। तमिलनाडु में ये औसत 46,000 रुपये है। कृषि वानिकी मॉडल को अपनाने के बाद पहले 5 वर्षों में, 5 वर्षों की औसत कमाई तीन से आठ गुणा बढ़ जाएगी। एक बार लोग अगर इसका आर्थिक लाभ देख लेंगे तो फिर आप को उन्हें कुछ समझाना नहीं पड़ेगा। वे इसे स्वयं अपनाएँगे। अगर हर कोई अपनी एक तिहाई ज़मीन कृषि वानिकी में बदल लेता है तो उसकी कमाई भी अच्छी खासी बढ़ जायेगी और मिट्टी भी समृद्ध हो जायेगी।