पसंद-नापसंद बंधन के आधार हैं
हम आध्यात्मिक प्रक्रिया को हर समय कैसे जारी रख सकते हैं, इस बारे में सद्गुरु एक प्रश्न का जवाब देते हैं और बताते हैं कि हमारी पसंद और नापसंद किस तरह हमें बांधती हैं।
प्रश्नः सद्गुरु, आध्यात्मिक प्रक्रिया को हर समय जारी रखने के लिए क्या आपके पास कोई सलाह है, ताकि हम अपने योगाभ्यास बस सुबह करके ही न छोड़ दें, और दिन गुजरने के साथ हम फिर से चीजों, लोगों और परिस्थितियों में फंस जाएं?
सद्गुरुः आध्यात्मिक प्रक्रिया के बारे में बहुत ज्यादा लिखा, कहा, और किया जा चुका है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो आपको अपने जीवन में बाहर से लानी है। यह ऐसी चीज है जो आप हैं। आप सिर्फ उसी की खोजबीन कर रहे हैं जो मौजूद है। यह कह चुकने के बाद, वह क्या है जो आपको अपने प्राणी की प्रकृति की खोजबीन करने और जानने नहीं देता है? यह पूरा इस पर निर्भर करता है कि आप अपने जीवन के शारीरिक और मनोवैज्ञानिक पहलू के साथ, और साथ ही अपने कर्म संग्रह के साथ कितना उलझे हुए हैं।
आपका शारीरिक ढांचा और आपका मनोवैज्ञानिक ढांचा इस पर निर्भर करता है कि आपका कर्म संग्रह किस किस्म का है। आप उसमें कितनी गहराई से घिरे हुए हैं यह इस पर निभर करता है कि आपने उसके साथ कितनी गहरी पहचान बनाई हुई है। किसी चीज के साथ खुद को जोड़ने की प्रक्रिया आपके जीवन और सामाजिक सिस्टम में बनी हुई है - दुनिया में हर जगह, कई अलग-अलग तरीकों से। उदाहरण के लिए, जब आप दो साल के थे, तो हो सकता है कि आप बहुत आकर्षक न हों, लेकिन अगर आपके माता-पिता ने यह न माना होता कि आप बहुत प्यारे हैं, तो उन्होंने आपके डायपर नहीं बदले होते, उन्होंने चीखती-चिल्लाती रातें बिना सोए नहीं गुजारी होतीं।
सामाजिक प्रणालियां आपको तमामों चीजों के बारे में सख्त पसंद और नापसंद बनाने में प्रशिक्षित करती हैं। जब आपको लगता है कि आप किसी के प्रेम में हैं, तो आप उनके अच्छे गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं। जब आप किसी से घृणा करते हैं, तो आप उनके सारे दुर्गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं या उनकी बुराइयां खोज लेते हैं। एक व्यक्ति के रूप में आप जो हैं - एक प्राणी के रूप में नहीं - वह आप अपनी पसंद और नापसंद के कारण हैं। यह आपकी पसंद और नापसंद हैं जो आपके व्यक्तित्व को तय करती हैं और एक व्यक्ति के रूप में आपको अलग बनाती हैं।
अपनी पसंद और नापसंद को छोड़ना
आज से शुरुआत करके, आप बस अपनी एक पसंद और एक नापसंद को चुन लीजिए और, एक महीने के समय में, सचेतन होकर उन्हें दूर कर दीजिए। हर महीने इस प्रकिया को दोहराइए। आपने अपने व्यक्तित्व के रूप में जो झूठ रच रखा है, उसका आधार आपकी पसंद और नापसंद हैं। अगर आप उनसे चिपकना बंद कर दें, तो आपका व्यक्तित्व गायब हो जाएगा - आप लचीले और शानदार बन जाएंगे।
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अगर आप अपने व्यक्तित्व को थामे रहना चाहते हैं तो आप आध्यात्मिक नहीं हो सकते। आध्यात्मिक होने का मतलब है कि कोई ‘आप’ और ‘मैं’ नहीं है - सिर्फ जीवन है। हर चीज में जीवन धड़क रहा है। वही जीवन-शक्ति एक पेड़ में, एक कीड़े, एक कीट, एक बाघ, एक आदमी, या एक औरत में है। वह किस किस्म का रूप लेती है और उसके बर्ताव के ढर्रे किस तरह के हैं, वह एक स्तर पर पसंद और नापसंद पर आधारित होता है।
आपके अंदर जीवन की मूल प्रवृत्ति मौजूद है। अभी आप जो हैं, उससे हमेशा कुछ अधिक होने की चाहत आपके डीएनए में है। लेकिन आपके सामाजिक प्रशिक्षण ने आपको हमेशा सख्त पसंद और नापसंद बनाना सिखाया है। यहां और वहां - शायद सत्संग में, किसी कार्यक्रम में, या अपने अभ्यासों को करते समय - हो सकता है कि आप कुछ सीमाओं को तोड़ दें, लेकिन आप उन्हें फिर से स्थापित कर लेंगे।
भारत में, एक परंपरा है कि अगर आप तीर्थयात्रा पर जाते हैं, तो आपको अपनी पसंद की एक चीज को छोड़ना होता है। अब, मैं आपसे किसी चीज को छोड़ने को भी नहीं कह रहा हूँ। बस अपने अंदर, अपनी पसंद और नापसंद की दोनों सूचियों में से बस एक चीज को निकाल दीजिए, इस मायने में कि आप उन्हें अब न तो पसंद करते हैं और न ही नापसंद करते हैं। आपको उन्हें छोड़ने की या उनसे बचने की जरूरत नहीं है - उसका एक तरह से मतलब होगा उन्हें नापसंद करना।
जिसे आप पसंद करते थे, उसे अगर आप नापसंद करने लगते हैं, या जिसे आप नापसंद करते थे, उसे अगर आप पसंद करने लगते हैं, तो आप बस वस्तुओं को बदल देते हैं, लेकिन उससे आगे, वाकई कुछ नहीं बदलता है। इसी तरह, जिस व्यक्ति को आप एक समय में पसंद करते थे, उसे अगर आप नापसंद और किसी दूसरे को पसंद करने लगते हैं, तो कुछ नहीं बदला है। एक बंदर की तरह आप बस एक डाल से दूसरी डाल पर कूद रहे हैं।
जिसे आप पसंद करते थे उसे नापसंद करने लगना आसान होता है। प्रेम और घृणा का संबंध है। जिन लोगों से आप घृणा करते हैं, वे आम तौर पर वो हैं जिन्हें एक समय पर आप प्रेम करते थे, लेकिन किसी मुकाम पर, प्रेम घृणा में बदल गया। आप सड़क चलते किसी अनजान व्यक्ति से यूं ही घृणा नहीं कर सकते, जब तक कि आप धार्मिक विश्वास, जातिगत पूर्वाग्रह, या किसी ऐसी चीज के आधार पर कट्टरपंथी नहीं हों। लेकिन अगर आप किसी से प्रेम करते थे और उन्होंने कुछ ऐसा किया जो आपको अच्छा नहीं लगा, आप उनसे सक्रियता से घृणा कर सकते हैं।
मैं नहीं चाहता कि आप अपनी पसंद को नापसंद में बदल दें या उसका उल्टा करें - मैं चाहता हूँ कि आप उन्हें मिटा दें। इसे करने के लिए काफी जागरूकता की जरूरत होती है, लेकिन आपके पास एक महीने का समय है। आप बस एक पसंद और एक नापसंद को चुन लीजिए, उन पर काम कीजिए, और महीने के अंत तक, उन्हें दूर हो जाना चाहिए। तब एक दूसरी पसंद और एक दूसरी नापसंद को चुन लीजिए, और फिर उन्हें एक महीने के समय में गिरा दीजिए।
यह कोई भी या कुछ भी हो सकता है - कोई व्यक्ति, कोई खाने की चीज, या आपका कोई पहलू। आपको इस व्यक्ति को या इस वस्तु को पसंद या नापसंद करने की सोच को हटाने की जरूरत है। मान लीजिए वह एक खाने की चीज है - आप उसे खाते हैं या नहीं खाते हैं, मुद्दा वह नहीं है। अगर कोई आपको वो चीज परोसता है, आप उसे खा लेते हैं। जिसे आप नापसंद करते हैं उसे पसंद करने की कोशिश या जो आप पसंद करते हैं उसे नापसंद करने की कोशिश मत कीजिए - आप खुद के लिए भयंकर मुसीबत पैदा कर लेंगे।
गौतम बुद्ध के जीवन से एक सुंदर कहानी है। जब लोगों को भिक्षुक बनाया जाता है - ईशा में भी, ये ऐसा है - कई दिशा-निर्देश दिए जाते हैं। एक साधारण चीज यह है कि आपको थाली में जो कुछ भी मिलता है, किसी भी चीज को आप पसंद या नापसंद किए बिना खा लेते हैं। वह जो भी हो उसे आप प्रसन्नता से खाते हैं, क्योंकि आप सिर्फ अपने पोषण के लिए खाते हैं, किसी दूसरे कारण से नहीं। आप किसी विशेष चीज को नहीं मांगते, और न ही आप किसी चीज से बचते हैं।
इसी तरह, गौतम ने अपने भिक्षुकों से अपना भोजन न चुनने को और लोग उन्हें जो भी दें, उसे खा लेने को, और मांसाहारी भोजन न खाने को कहा। भारत में, अगर कोई आध्यात्मिक मार्ग पर होता है और अपने अंदर परम तत्व को खोजता है तो पूरा समाज उसे सहारा देता था। उन्हें किसी भी तरह से भटकाना या परेशान करना सबसे बुरा काम माना जाता था। हर कोई जानता था कि जो लोग इस तरह के मार्ग पर हैं, वे सिर्फ शाकाहारी भोजन खाते हैं, कोई भी उन्हें मांसाहारी भोजन या वैसी कोई चीज नहीं देता था।
एक दिन, गौतम के दो भिक्षुक भिक्षा मांगने बाहर गए। ऐसा हुआ कि एक कौवे ने उड़ते समय मांस का एक टुकड़ा गिरा दिया और वह उनमें से एक भिक्षुक के भिक्षा पात्र में गिरा। चूंकि लोग हमेशा यह देखते हैं कि खुद को रूपांतरित कैसे नहीं करें, वे तुरंत उसे गौतम के पास लेकर गए और कहा, ‘आपने कहा है कि हमें मांसाहारी भोजन नहीं खाना चाहिए। साथ ही, आपने कहा है कि हमारे पात्र में जो कुछ भी आता है, हमें उसे जरूर खाना चाहिए। आज, हमारे पात्र में एक मांस का टुकड़ा आया है, क्योंकि एक कौवे ने इसे गिराया है। अब क्या करना चाहिए?’
गौतम ने मांस के टुकड़े और दोनों भिक्षुकों को देखा। उन्होंने देखा कि यह बहुत सरल चीज हो सकती थी। आम तौर पर, अगर कौवा संयोग से कोई चीज गिरा देता है तो आपको कुछ देर इंतजार करना होता है, और कौवा आकर उसे वापस ले जाएगा - आखिरकार वो उसका भोजन है। लेकिन उसके बजाए, उन्होंने इसे लेकर एक आध्यात्मिक चर्चा शुरू कर दी।
अगर गौतम ने कहा होता कि अगर कोई तुम्हारे पात्र में मांस डालता है, तो उन्हें वह नहीं खाना चाहिए और उन्हें उसके बजाय शाकाहारी भोजन की भिक्षा मांगनी चाहिए, तो वे अपना मनचाहा भोजन मांगते। तो, गौतम ने कहा, ‘इसे अभी मेरे सामने खायो।’ सारे भिक्षुक भौचक्के रह गए। उन्होंने उनसे उनके पात्र में जो भी आता है, खा लेने को कहा, क्योंकि उन्होंने दूर की सोची। अगले हजार साल में कितनी बार और ऐसा होने वाला है कि कोई कौवा किसी भिक्षुक के पात्र में मांस का टुकड़ा गिरा देगा?
अगर आप आध्यात्मिक मार्ग पर असली कदम लेने चाहते हैं, तो आपको यही करने की जरूरत है, क्योंकि आपकी पसंद और नापसंद आपके व्यक्तित्व को स्थापित करने की बुनियाद हैं। अगर आप अपने व्यक्तित्व से लटके रहते हैं, तो सार्वभौमिकता का काई सवाल नहीं उठता। आज शाम से ही, अपनी पसंद और नापसंद को गिराने की इस प्रक्रिया को शुरू कर दीजिए, एक-एक करके। अगर आप हर महीने वैसा करते हैं, तो छह महीने के अंदर, आप अपने अंदर जबरदस्त रूपांतरण देखेंगे।