पेड़ों पर आधारित भोजन
यहाँ सद्गुरु वृक्ष आधारित आहार(फल, कच्ची सब्जी) के फायदों के बारे में बात कर रहे हैं और समझा रहे हैं कि किस तरह हम इसे अपने जीवन में अमल में ला सकते हैं।
विषय सूची |
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1. शाकाहारी कैसे बनें? |
2. वृक्ष आधारित आहार बनाम मांसाहार |
3. शाकाहारी क्यों बनें? |
4. आहार और मानसिक स्वास्थ्य |
5. सही चीजें चुनना |
सद्गुरु : आपको किस तरह का आहार लेना चाहिये, यह इस बात पर निर्भर नहीं होना चाहिये कि आप इसके बारे में क्या सोचते हैं या आपके मूल्य क्या हैं, आपकी नीतियाँ क्या हैं बल्कि इस बात पर होना चाहिये कि आपका शरीर क्या चाहता है? भोजन का संबंध शरीर से है। अपने शरीर से पूछिये कि ये किस तरह के भोजन के साथ खुश है? अलग अलग तरह का खाना खाईये और देखिये कि उसे खाने के बाद आपके शरीर को कैसा महसूस होता है? अगर आपका शरीर बहुत ऊर्जामय और सतर्क है तो इसका मतलब है कि शरीर खुश है। अगर शरीर सुस्त है और उसे जगे हुए रहने के लिये चाय, कॉफी या तम्बाखू की ज़रूरत है तो शरीर खुश नहीं है।
अगर आप अपने शरीर की बात सुनें तो ये आपको जरूर बतायेगा कि वो किस तरह के भोजन के साथ खुश है पर अभी तो हाल ये है कि हम अपने मन की ही बात सुनते हैं। आपका मन हर समय आपसे झूठ बोलता रहता है। क्या इससे पहले उसने आपसे झूठ नहीं बोला है अगर ये आपको कहता है कि ये ऐसा है, तो कल ये आपको ऐसा महसूस करायेगा कि आप बड़े बेवकूफ थे, जो कल आपने उस बात को मान लिया था। अपने मन के हिसाब से मत चलिये। आपको अपने शरीर की बातों को सुनना सीखना होगा।
#1. शाकाहारी कैसे बनें?
अगर हम भोजन की गुणवत्ता के बारे में बात करें तो आपके पेट में जो खाना जा रहा है, उसमें माँसाहारी खाने की बजाय शाकाहारी खाना निश्चित रूप से आपकी प्रणाली के लिये काफी ज्यादा बेहतर है। आप चाहें तो खुद ही प्रयोग कर के देख लीजिये। जब आप शाकाहारी खाना, उसके जीवित रूप में, बिना पकाये हुए, खाते हैं तो ये कितना बड़ा फर्क ला देता है! तो, सोच यह है कि जितना ज्यादा हो सके, जीवित खाना लेना चाहिये जो उसके कच्चे रूप में, बिना पकाये खाया जा सके। एक जीवित कोशिका में वो सब कुछ है जो जीवन को बनाये रखने के लिये जरूरी है। अगर आप एक जीवित कोशिका खायें तो जितनी सेहत और संवेदना आप अपनी प्रणाली में महसूस करेंगे, वो आपने उससे पहले कभी महसूस नहीं की होगी। हम जब भोजन पकाते हैं, तो उसके अंदर के जीवन को मार देते हैं। जीवन को नष्ट कर देने की इस प्रक्रिया के बाद, जब हम खाना खाते हैं तो ये हमारी प्रणाली को उतनी मात्रा में ऊर्जा नहीं दे सकता। पर, जब आप जीवित खाना खाते हैं तो ये आपके अंदर जीवंतता का एक अलग स्तर खड़ा कर देता है। अगर आप अपने भोजन में कम से कम 30 से 40% हिस्सा कच्चे जीवित भोजन का रखें - अंकुरित अनाज, फल या जो भी सब्जियाँ कच्चे रूप में ली जा सकें - आप देखेंगे कि वे आपके अंदर जीवन को बहुत अच्छे ढंग से बनाये रखेंगी। आखिरकार, जो खाना आप खाते हैं, वो जीवन है। हमारे जीवन को बनाये रखने के लिये दूसरे जीव अपने जीवन का त्याग कर रहे हैं। अगर हम उनके प्रति बहुत ही कृतज्ञता के भाव के साथ उन्हें खायें तो हमारे अंदर यह भोजन अलग ढंग से व्यवहार करेगा।
#2. वृक्ष आधारित आहार बनाम माँसाहार
प्रश्न : सद्गुरु, मुझे भोजन बहुत पसंद है (मैं फूडी हूँ)। अगर मांसाहार मुझे ठीक लगता हो, तो क्या माँसाहारी भोजन खाना सही है? सद्गुरु : आप चाहें कोई पौधा खायें या जानवर, यह है तो हिंसा ही। आजकल बहुत सारे दस्तावेज उपलब्ध हैं जो यह बताते हैं कि पौधे भी उतने ही संवेदनशील होते हैं। इस बात के काफी सबूत हैं कि वे रोते हैं। ये बात अलग है कि आप उसे सुन नहीं पाते। पेड़ों की बात करें तो मान लीजिये कि यहाँ 1000 या 10000 पेड़ हैं और अगर कोई हाथी आ कर एक पेड़ की पत्तियाँ खाने लगे तो वह पेड़ तुरंत ही अपनी जाती के सभी पेड़ों को यह संदेश भेजेगा कि उसे इस तरह से खाया जा रहा है। कुछ ही मिनिटों में, जब तक वह हाथी दूसरे पेड़ों तक पहुँचेगा, तब तक सभी पेड़ों ने अपनी पत्तियों में एक खास तरह का ज़हरीला पदार्थ छोड़ दिया होगा। जब हाथी उन पेड़ों की पत्तियाँ खायेगा तो उसे वे कड़वी लगेंगी और वो उन्हें नहीं खायेगा। तो, पेड़ पौधे इतने संवेदनशील होते हैं।
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आप चाहे किसी पेड़ पर से कोई फल तोड़ें या सब्जी लें या फिर किसी जानवर को काटें, ये सब निर्दयता ही है। तो जब हम ये काम करते हैं तो हमें उसे एक गहरी संवेदना के साथ करना चाहिये और बस उतना ही जितना ज़रूरी हो। फूडी होने का विचार आप अपने मन में न लायें। खाना हम सभी के लिये जरूरी तो है ही। अगर हम नहीं खायेंगे, तो ये इस शरीर के साथ निर्दयता होगी पर भोजन के साथ अपनी पहचान बनाना सही नहीं है। इसका मतलब ये होगा कि हम अपने शरीर को पोषित करने की बजाय ज्यादा खाने लग जायेंगे, पेटू हो जायेंगे।
एक जीवन के रूप में, अपने आप को पोषण देना हमारा अधिकार है - संसार में भोजन चक्र ऐसे ही चलता है लेकिन, बस अपनी मौज के लिये किसी दूसरे जीवन को गैरजिम्मेदाराना ढंग से खत्म करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। ऐसा कतई नहीं करना चाहिये। अपने जीवन को पोषित करने का अधिकार हमें है पर किसी दूसरे जीवन को खत्म करने का मजा लेने का अधिकार नहीं है। अपने आपको फूडी मत कहिये क्योंकि भोजन हमारी पहचान नहीं बनना चाहिये। जीवित रहने और पोषित होने के लिये किसी भी समय पर जो ज़रूरी होगा, वो हम खायेंगे।
#3. शाकाहारी क्यों बनें?
अगर आपके जीवित रहने पर खतरा मंडरा रहा हो, तो आपका पूरा जीवन बस जीवित रहने के इर्द गिर्द ही घूमता है। पर, जब जीवित रहने का इन्तज़ाम हो गया हो, उस पर कोई खतरा न हो तो आप सोचेंगे, "यह सब क्या है"? क्योंकि, सवाल जब जीवित रहने पर ही हो तो आप सोचेंगे कि बस जीवन चलता रहे, फिर सब कुछ बढ़िया होगा। पर, जब एक बार जीवन चलाने का सवाल हल हो जाये, तो आपको समझ आयेगा कि बस जीवित रहना कोई बड़ी बात नहीं, बड़ा सच नहीं, आपके जीवन को कुछ और भी चाहिये।
भारत में जीवित रहना बहुत आसान और सरल था क्योंकि ये एक समृद्ध देश था और लोग अच्छी तरह से रहते थे। इस वजह से वे अंदर की ओर मुड़ने लगे और देश की लगभग 70% आबादी हमेशा ही आध्यात्मिक रूप से सक्रिय थी। अंदर मुड़ना जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। इसीलिये जब वे अंदर मुड़ते थे तब उन्हें पता चलता था कि जो कुछ भी वे खाते हैं, वह महत्वपूर्ण है। अगर आपको बस तगड़ा, माँसल पहलवान बनना है तो आप खूब माँस खायें, अपनी माँसपेशियाँ मजबूत करें और एक दूसरे के साथ बस लड़ते रहें। पर, अगर आप जीवन के प्रति संवेदनशील रहना चाहते हैं और साधारण, सामान्य मानी जाने वाली बातों के परे की चीज़ें समझना चाहें तो वो भोजन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है जो आप अपनी प्रणाली में डालते हैं।
माँसाहारी जानवरों के शरीरों में भोजन नली की लंबाई सामान्य रूप से उनकी खुद की लंबाई से बस तीन गुनी ज्यादा बड़ी होती है जब कि शाकाहारी प्राणियों में भोजन नली की लंबाई उनके शरीर की लंबाई से 5 से 6 गुनी ज्यादा बड़ी होती है। मनुष्यों में यह 24 से 28 फ़ीट लंबी होती है जो मनुष्य की सामान्य ऊँचाई से लगभग 5 से 6 गुना है। अगर इस तरह की भोजन नली में आप माँस भेजते हैं तो वो इसमें से बहुत धीरे धीरे निकलेगा। कच्चा माँस 70 - 72 घंटों में बाहर आयेगा। पका हुआ माँस 50 - 52 घंटे लेगा। पकी हुई सब्जियों के खाने को बाहर आने में 24 - 30 घंटे लगते हैं जब कि कच्ची सब्जियाँ 12 -15 घंटे लेती हैं। फलों के आहार को सिर्फ डेढ़ से तीन घंटे ही लगते हैं। तो हम ये जानने लगे कि किस तरह का भोजन शरीर में से जल्दी निकल जाता है और कम से कम कचरा छोड़ता है।
योग में महत्वपूर्ण बात यह है कि आपका पेट ढाई घंटे में ही खाली हो जाना चाहिये। पेट खाली होगा पर हम ऊर्जावान रहेंगे तो ज्यादा खायेंगे भी नहीं और शरीर चुस्त, सक्रिय रहेगा। सामान्य रूप से ईशा योग सेंटर में, हर कोई दिन में बस दो बार खाता है - सुबह 10 बजे और शाम को 7 बजे। ज्यादातर दिनों में, मैं तो बस एक बार ही खाता हूं! जब यात्रा में होता हूँ तो कभी कभी, थोड़ा बहुत, कुछ और ले लेता हूँ। पर, सामान्य रूप से, जब मैं घर पर होता हूँ, तब बस एक बार ही खाता हूं, वो भी शाम को 4.30 से 5 बजे! यह मुझे पूरे 24 घंटे काम देता है। ये कोई नियम नहीं है।
अगर किसी दिन बहुत ज्यादा शारीरिक गतिविधि हो जाये तो मैं सुबह में थोड़ा नाश्ता लेता हूँ, कोई फल या कुछ ऐसा ही। हमें भोजन को किसी तरह की फिलॉसफी या कोई धर्मिक प्रक्रिया नहीं बना देना चाहिये। खाना सिर्फ शरीर की जरूरत है। अगर आप शरीर को देखें तो स्वाभाविक रूप से पता चलेगा कि वृक्ष आधारित आहार लेने से शरीर सबसे ज्यादा सुविधा और आराम में होता है। रोजाना इस तरह का खाना लेने से शरीर लचीला और आराम में रहता है और इसे पचाना बहुत आसान होता है, ऊर्जा कम खर्च होती है। जिन्होंने अपने शरीर के स्वभाव को बारीकी से देखा, समझा, वे शाकाहारी हो गये।
जब टिके रहने का सवाल था तब मनुष्य के लिये शिकार करना, जो भी मिलें उन जानवरों को मारना और खाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। पर, जैसे जैसे समाज स्थिर होते गये तो लोगों ने जो चाहा, वो - अन्न, सब्जी, फल - उगाना शुरू कर दिया। जैसे जैसे वे अपने आप पर ज्यादा ध्यान देने लगे, तो जीवन अब टिके रहने भर का सवाल नहीं रह गया बल्कि अपने जीवन को समझ और अनुभवों के ज्यादा ऊंचे स्तर तक उन्नत करने की प्रक्रिया बन गया और तब शाकाहारी होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया बन गया। यह हर जगह हर हाल में होगा।
#4.आहार और मानसिक स्वास्थ्य
प्रश्न : क्या हमारे मन, मिजाज़, मानसिक स्वास्थ्य और हमारी भावनात्मक अवस्था का उस खाने से कोई संबंध है जो हम खाते हैं? सामान्य रूप से हमारे शरीर और मन का क्या संबंध है?
सद्गुरु : यौगिक प्रणाली के अनुसार शरीर और मन ये दो अलग अलग चीज़ें नहीं हैं। हम सामान्य रूप से जिसे मन कहते हैं वह बस यादों और बुद्धि की एक खास मात्रा है। आपका मस्तिष्क ज़रूर आपके शरीर का हिस्सा है। लोग सामान्य ढंग से ऐसा सोचते हैं कि मस्तिष्क ही सब कुछ है क्योंकि यह विचार प्रक्रिया को संभालता है। पर, सोचिये, मस्तिष्क और शरीर में, किसके पास ज्यादा यादें और बुद्धि हैं? अगर आप इसे ध्यान से देखें तो आपके शरीर के पास लाखों सालों तक की यादें हैं। शरीर को याद है कि आपके पूर्वज कैसे थे? मन के पास उस तरह की याददाश्त नहीं होती। अगर हम बुद्धि की बात करें तो हमारे डीएनए के एक ही अणु में जो कुछ हो रहा है वो इतना जटिल है कि हमारा सारा मस्तिष्क भी इसका पता नहीं लगा सकता। यौगिक प्रणाली में एक भौतिक शरीर होता है और एक मानसिक शरीर होता है। ये मानसिक शरीर और कुछ नहीं, बल्कि पूरे शरीर के हर हिस्से में रहने वाली बुद्धि और यादें ही हैं।
जिस तरह का खाना हम खाते हैं, उसका हमारे मन पर बहुत ज्यादा असर होता है। एक औसत अमेरिकन साल भर में लगभग 200 पाउंड माँस खाता है। मेरा कहना है कि इसे अगर आप 50 पाउंड पर ले आयें तो 75% लोगों को एन्टी डिप्रेशन दवायें नहीं लेनी पड़ेंगीं। रेगिस्तान या जंगल में हों तो टिके रहने के लिये माँस एक अच्छा भोजन है, और अगर आप कहीं खो जायें तो माँस का टुकड़ा भी आपको सघन पोषण देगा और टिकाये रखेगा। पर, अगर आपके पास दूसरे बेहतर विकल्प हैं, तो माँस आपका रोजाना का भोजन नहीं होना चाहिये। इस बारे में सोचने के कई तरीके हैं।
एक पहलू यह है कि जानवरों के पास इतनी बुद्धि होती है कि चाहे कितनी ही चालाकी से या वैज्ञानिक ढंग से आप उन्हें मारें,आखिरी कुछ मिनिटों में उनको पता चल ही जाता है कि वे अब मारे जाने वाले हैं। जिस जानवर के पास अपनी भावनायें व्यक्त करने की थोड़ी सी भी काबिलियत है, वे मारे जाने के समय उस भावना को व्यक्त जरूर करेंगे। मान लीजिये, आपको अभी पता चले कि आज, दिन के आखिरी समय में आपको मार डाला जायेगा तो कल्पना कीजिये, कैसे मानसिक संघर्ष में से हो कर आप गुजरेंगे, किस तरह की रासायनिक क्रियायें आपके शरीर में जबर्दस्त रूप से होंगीं? ऐसा ही कुछ न कुछ हर जानवर के साथ होता है।
तो इसका मतलब यह है कि जब आप किसी जानवर को मारते हैं तो उसके माँस में नकारात्मक एसिड और दूसरे रसायन मिल जाते हैं। फिर, जब आप उस माँस को खाते हैं तो आपके अंदर गैरजरूरी मानसिक उथल पुथल पैदा होती है। जो लोग मानसिक रूप से बीमार हैं, उनमें से अधिकांश की बिमारी शारीरिक रोगों की वजह से नहीं है। ये अपने आप पैदा नहीं होती बल्कि पैदा की जाती है। इतनी बड़ी संख्या में लोग तब तक मानसिक रूप से बीमार नहीं हो सकते, जब तक हम अपने सामाजिक ढाँचे में ही इस बिमारी को पैदा न करें। जो लोग एन्टी डिप्रेशन दवाइयाँ लेते हैं, अगर उन्हें जागरूकता के साथ शाकाहारी भोजन दिया जाये तो लगभग तीन महीनों में, उनमें से बहुत से लोगों को दवाईयों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। हमनें ईशा योग केंद्र में आने वाले बहुत से ऐसे लोगों के साथ यह होते हुए देखा है।
#5. सही चीज़ें चुनना
मुझे लगता है कि भोजन के बारे में एक असरदार अभियान चलाया जाना चाहिये, जैसे अमेरिका में धूम्रपान के खिलाफ चलाया गया था। 1970 के दशक में, अमेरिका में जब आप किसी भी सार्वजनिक जगह पर जाते थे तो आपको धुएँ के गुबार में से हो कर जाना पड़ता था। फिर, उन्होंने सक्रिय रूप से एक सफल अभियान चलाया जिसने हवा को शुद्ध कर दिया। आज आप किसी भी रेस्तरां में जायें, कोई धुआँ नहीं मिलेगा। पर, अभी भी शराब में कार्बन डाई ऑक्साइड बहुत है! ऐसा भी समय था जब बहुत सारे लोगों के लिये, धूम्रपान सिर्फ एक ज़रूरत ही नहीं थी बल्कि यह फैशन का मामला था, दूसरों के चेहरों पर धुआँ उड़ाना बहुत आम बात थी। सही ढंग के अभियान की वजह से, एक ही पीढ़ी में, पूरी तरह से परिस्थिति बदल गयी है। इसी तरह से एक सही अभियान की ज़रूरत हमारे खाने पीने को ठीक करने के लिये भी है। संपादकीय टिप्पणी : "फ़ूड बॉडी" नाम की किताब में सद्गुरु उस तरह के भोजन के बारे में बात कर रहे हैं, जो हमारे लिये सबसे ज्यादा आरामदायक है। ऐसा भोजन लेने के सही तरीकों के बारे में भी सद्गुरु ने समझाया है। 33 पृष्ठ की ये छोटी सी किताब बताती है कि शरीर के लिये सबसे ज्यादा अनुकूल क्या है! तो, आपके शरीर को सही करने के लिये यह किताब पहला कदम है।