आजकल बहुत से लोगों के लिये दिन में दो बार के भोजन के बीच में कुछ न कुछ खाते रहना एक सामान्य बात हो गई है। यहाँ सदगुरु समझा रहे हैं कि क्यों बार-बार खाना अच्छी बात नहीं है।

#1.शरीर और मन ख़ाली पेट सबसे अच्छा काम करते हैं

सद्‌गुरु : हो सकता है आप सोचते हों, कि पूरे दिन कुछ न कुछ खाते रहने से आप को और सक्रिय रहने में मदद मिलेगी, लेकिन अगर आप यह देखें कि पेट में खाना भरा होने पर आप का शरीर कैसा महसूस करता है और पेट खाली होने पर कैसा महसूस करता है, तो आप पायेंगे कि पेट खाली रहने पर आप का शरीर और दिमाग दोनों बेहतर काम करते हैं। अगर आप के पाचन तंत्र में खाना पचाने की क्रिया लगातार जारी रहे तो शरीर की कुछ ऊर्जा लगातार उसी में लगी रहती है, जिससे शरीर और दिमाग सबसे अच्छी तरह से काम नहीं करते। पेट खाली होने का यह मतलब नहीं कि आपको भूख लगने लगेगी। आप को भूख तब लगती है जब ऊर्जा का स्तर बहुत नीचे हो जाता है। वरना, पेट खाली ही होना चाहिये।

अगर आप अपनी पूर्ण क्षमता से काम करना चाहते हैं तो जागरूक बनिये और ऐसा खाना खाईये जिससे आप का पेट डेढ़ से ढाई घंटों में खाली हो जाये और खाना पेट से निकल कर आंत में चला जाये। उसके बाद शरीर को उतनी ऊर्जा की ज़रूरत नहीं होती। और 12 से 18 घंटों के बीच खाना आप के शरीर में से पूरी तरह बाहर हो जाना चाहिये। इस बात पर योग बहुत जोर देता है।

पेट खाली होने का यह मतलब नहीं कि आपको भूख लगने लगेगी। आप को भूख तब लगती है जब ऊर्जा का स्तर बहुत नीचे हो जाता है। वरना, पेट खाली ही होना चाहिये। अगर आप इतनी जागरूकता रखते हैं तो आप पर्याप्त ऊर्जा, चुस्ती और सजगता का अनुभव करेंगे। आप चाहे किसी भी क्षेत्र में हों, कोई भी काम करते हों, यह आप के सफल जीवन के लिए आवश्यक तत्व हैं।

#2. शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये तंत्र की सफाई

जब पेट में पाचन प्रक्रिया चल रही होती है तब कोशिकाओं के स्तर पर शुद्धिकरण की प्रक्रिया लगभग रुक जाती है। अगर आप दिन भर खाते ही रहते हैं तो कोशिकाओं में अशुद्धियाँ लंबे समय तक बनी रहती हैं, जो फिर एक अवधि के बाद शरीर में कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करती हैं। आँतों से मल बाहर निकलने की प्रक्रिया भी तब सही ढंग से नहीं होती क्योंकि बड़ी आंत में, एक ही समय पर आने की बजाय, अलग-अलग समय पर कचरा आता ही रहता है। यौगिक व्यवस्था में हम ऐसा कहते हैं कि एक भोजन के बाद दूसरा भोजन करने में कम से कम 6 से 8 घंटों का अंतर होना चाहिये। अगर यह संभव न हो तो कम से कम 5 घंटों का अंतर तो होना ही चाहिये। अगर बड़ी आंत साफ़ नहीं रहती तो आप समस्याओं को न्योता दे रहे हैं। योग में यह कहा जाता है कि गन्दी आंत और मनोवैज्ञानिक अशांति एक दूसरे से सीधे जुड़े हुए हैं। अगर आप की बड़ी आंत साफ़ नहीं है तो आप अपने मन को स्थिर नहीं रख सकते। आयुर्वेद तथा सिद्ध जैसी भारत की पारंपरिक औषधि पद्धतियों में किसी भी रोगी की बीमारी चाहे जो हो, वे पहले आप की पाचन व्यवस्था को शुद्ध करना चाहेंगे क्योंकि एक खराब बड़ी आंत आप की अधिकतर समस्याओं की जड़ हो सकती है। आजकल लोग जिस तरह से खा रहे हैं, अपनी बड़ी आंत को स्वच्छ रखना उनके लिये एक बड़ी चुनौती है। लेकिन अगर आप दिन में सिर्फ दो बार अच्छी तरह भोजन करते हैं और बीच में कुछ नहीं खाते, जैसे हम सामान्य रूप से आश्रम में करते हैं या अगर हम बहुत ज्यादा कामों में लगे हैं तो हम एकाध फल खा सकते हैं, तो आप की बड़ी आंत हमेशा स्वच्छ रहेगी। यौगिक सिस्टम में हम ऐसा कहते हैं कि एक भोजन के बाद दूसरा भोजन करने में कम से कम 6 से 8 घंटों का अंतर होना चाहिये। अगर यह संभव न हो तो कम से कम 5 घंटों का अंतर तो होना ही चाहिये। इससे कम का अंतर है तो समझ लीजिये कि आप अपने लिये मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं।

#3. शरीर के द्वारा भोजन को शरीर में बदलना

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आप जिसे अपना शरीर और अपना मन कहते हैं वो यादों का एक ढेर भर है। इन यादों या सूचनाओं के कारण ही शरीर ने अपना आकार लिया है। हम जो कुछ भी खाते हैं वह इन्हीं यादों या सूचनाओं के आधार पर शरीर में बदल जाता है। मान लीजिए मैं एक आम खाता हूं, तो यह मुझमें आ कर एक पुरुष बन जायेगा। अगर कोई स्त्री इस आम को खाती है तो वह आम उसमें जा कर स्त्री बन जाता है। अगर कोई गाय उस आम को खा ले तो वह आम गाय के शरीर में जा कर गाय बन जायेगा। ऐसा क्यों है कि एक आम मेरे शरीर में जा कर पुरुष ही बनता है, स्त्री या गाय नहीं ? यह मूल रूप से उस ख़ास याद्दाश्त के कारण है जो मेरी शारीरिक व्यवस्था में है। अगर आप शारीरिक रूप से बहुत ज्यादा सक्रिय हैं या आप का कोई चिकित्सीय मामला है, तो बात अलग है, वरना 35 साल की उम्र के बाद दिन में सिर्फ दो बार भोजन करना निश्चित रूप से आप के लिये ज्यादा स्वास्थ्यप्रद होगा।

और ऐसा क्यों है कि जब मैं आम खाता हूं तो इसका एक भाग मेरी त्वचा बनता है जिसका रंग मेरी त्वचा के रंग का ही होता है? आप को अचानक मेरे हाथ पर आम के रंग का पैबंद नहीं दिखता। कारण यह है कि याददाश्त की संरचना इतनी ज्यादा मजबूत है कि मैं चाहे जो भी अंदर डालूं, मेरी याददाश्त सुनिश्चित करेगी कि वो मेरा रूप ही ले, किसी अन्य व्यक्ति का नहीं।

जैसे-जैसे आप की उम्र बढ़ती जाती है, आपकी खाने को शरीर में बदलने की योग्यता कम होती जाती है। इसका कारण यह है कि आप की आनुवंशिक (वंश से जुड़ी) याद्दाश्त तथा क्रमिक विकास की याद्दाश्त, दोनों की आप के खाये हुए खाने को आप में बदलने की शक्ति कमजोर पड़ती जाती है। आप स्वस्थ्य हो सकते हैं तथा खाने को ठीक तरह से पचा भी सकते हैं पर आप का शरीर एक आम को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया को पहले जैसी ताकत के साथ नहीं कर पाता। पाचन तो होगा पर याद्दाश्त कमज़ोर पड़ने के कारण एक जीवन का दूसरे में रूपांतरण अच्छी तरह से नहीं होगा।

शरीर इस धीमे होने की प्रक्रिया के साथ तालमेल बना लेता है, पर अगर आप इस बारे में जागरूक हैं कि आप क्या खा रहे हैं और कैसे खा रहे हैं तो आप इसे और ज्यादा सूझ-बूझ के साथ तालमेल में ला सकते हैं। अगर आप शारीरिक रूप से बहुत ज्यादा सक्रिय हैं या आप का कोई चिकित्सीय मामला है, तो बात अलग है, वरना 35 साल की उम्र के बाद दिन में सिर्फ दो बार भोजन करना निश्चित रूप से आप के लिये ज्यादा स्वास्थ्यप्रद होगा। अगर आप ज्यादा खा रहे हैं तो आप बेकार में ही अपने शरीर का बोझ बढ़ा रहे हैं। आप को अब इतना ज्यादा खाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि आप का शारीरिक विकास अब पूर्ण हो चुका है। अगर आप को बीच में कुछ भूख या थकावट लगती है तो एक फल काफी है। अगर आप इस तरह से रहें तो बहुत अच्छी तरह रहेंगे। यह कम खर्चीला है, पर्यावरण के अनुकूल भी है और आप स्वस्थ्य रहेंगे।

#4. समग्रता बनाये रखना

आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक स्तर पर अर्थ यह भी है कि आप अपने शरीर और मन को समग्रता के एक ख़ास स्तर पर लाएं। समग्रता से मेरा मतलब है कि अगर आप का शारीरिक तंत्र एक ख़ास तरह से संगठित नहीं है, अगर ये ढीला है तो कुछ भी अनुभव करने की इसकी योग्यता ठीक नहीं होती। चाहे कितनी ही महान घटना हो जाये, आप उसे चूक ही जायेंगे, कुछ भी अनुभव नहीं कर पायेंगे। इनर इंजीनियरिंग कार्यक्रम में इसीलिये सब कुछ इस तरह से बनाया गया है कि आप के अंदर एक विशेष स्तर की शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक समग्रता बन सके, और आप की अनुभव करने की योग्यता बढ़ सके। क्यों योगी या साधक दिन में सिर्फ एक या दो बार ही खाते हैं और बीच में कुछ भी नहीं खाते? कारण यही है कि वे अपने शरीर को किसी चीज़ के लिये खोलना नहीं चाहते।

कुछ भी अनुभव लेने के लिये जो एकमात्र साधन आप के पास है वह आप का शरीर है। आप कहेंगे, मन भी है। लेकिन वह भी शरीर ही है। बाहर का कुछ भी प्राप्त करने के लिये आप को अपनी शारीरिक समग्रता ढीली करनी पड़ती है। लोगों ने इस बात को ठीक से नहीं समझा है। आप कितना लंबा जियेंगे यह इस बात पर भी निर्भर करता है आप दिन भर में कुछ पाने के लिये अपना शरीर कितनी बार खोलते हैं ? अगर आप बार-बार बाहरी चीज़ों के लिये अपने शरीर को खोलते हैं तो आप अपनी व्यवस्था को बहुत ही ढीला कर लेंगे। इस तरह का शरीर कुछ भी नहीं कर सकता, क्योंकि शरीर में कोई समग्रता ही नहीं है। जब समग्रता नहीं होती तो किसी के साथ जुड़ना भी नहीं होता। आप किसी तरह ज़िंदा तो रहेंगे लेकिन उससे ज्यादा कुछ भी नहीं होगा।

क्यों योगी या साधक दिन में सिर्फ एक या दो बार ही खाते हैं और बीच में कुछ भी नहीं खाते? कारण यही है कि वे अपने शरीर को किसी चीज़ के लिये खोलना नहीं चाहते। हवा और पानी के सिवा कोई भी बाहरी तत्व शरीर में ज्यादा जाने नहीं चाहिये क्योंकि इससे, संवेदनशीलता की दृष्टि से, तंत्र की समग्रता ढीली हो जाती है। आप जो कुछ भी हैं उसकी सबसे बाहरी सतह संवेदना ही है। अगर आप अपने आप को बहुत संवेदनशील रखना चाहते हैं तो यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप के सामने आने वाली हर किसी चीज़ के लिये अपने शरीर को मत खोलिये। आप को ज़रूरत के अनुसार, अच्छी तरह से खाना चाहिये। लेकिन दिन में बहुत बार नहीं खाना चाहिए।

#5. मज़बूरी से जागरूकता की ओर

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साधना का एक भाग यह भी है कि जब आप को कुछ खाने की इच्छा हो तो उस समय आप न खायें जिससे भोजन के लिये आप की बाध्यता या मजबूर करने वाली आदत दूर हो सके। न सिर्फ भोजन के लिये, किसी भी चीज़ के लिये। खाना एक बहुत बुनियादी बात है, इसके ही आधार पर हमारे जीवन के बहुत सारे भाग हमारी बाध्यता या मज़बूरी बन जाते हैं। आप जिस भी बात को अपनी मज़बूरी समझते हैं, उस के साथ यही करने की कोशीश कीजिए। आप जिस बारे में भी कुछ तुरंत करने को मजबूर होते हैं, बस दो मिनट इंतज़ार कीजिए।

आप में से बहुत से लोगो ने आश्रम में इस छोटी सी यातना को झेला होगा। भोजन का समय है, आप वाकई बहुत भूखे हैं और भोजन कक्ष में आते हैं। आप के सामने भोजन है और आप उसे जल्दी से हड़पना चाहते हैं। लेकिन लोग आंखें बंद कर रहे हैं और आह्नान के लिये हाथ जोड़ रहे हैं। इसके पीछे विचार यही है कि जब आप बहुत भूखे हों तब दो मिनट और रुकिए। आप जिस भी बात को अपनी मज़बूरी समझते हैं, उस के साथ यही करने की कोशीश कीजिए। आप जिस बारे में भी कुछ तुरंत करने को मजबूर होते हैं, बस दो मिनट इंतज़ार कीजिए। यह आप को मारेगा नहीं, बल्कि ज्यादा मजबूत बनायेगा।

अपने शरीर में से उस मज़बूरी को निकाल देना बहुत महत्वपूर्ण है। आप का शरीर और मन एक संयोजित रचना है। सभी तरह के पुराने संस्कारों ने आप के लिये कुछ आदतें बना दी हैं और वे आप को मजबूर कर देती हैं। अगर आप उन्हीं के अनुसार चलते रहते हैं तो इसका अर्थ यह है कि आप विकास करना नहीं चाहते। आप ने निर्णय कर लिया है कि आप को उसी ढाँचे में रहने में कोई परेशानी नहीं है। आप उस ढाँचे को तोड़ना नहीं चाहते और नयी संभावनाओं को खोजना नहीं चाहते।

भोजन बहुत ही मूल एवं सरल बात है लेकिन आप इसे कैसे सँभालते हैं, इससे बहुत फर्क पड़ता है। ये एक यात्रा है, जिसमें आप ज्यादा जागरूक होकर काम करने के तरीकों की ओर जाते हैं। इस यात्रा पर आगे बढ़ने का तरीका है – उस जानकारी से खुद को धीरे-धीरे अलग करना जो पहले से ही आपके अन्दर है, जो आप पर आपके भीतर से हुक्म चलाती है। बंधन बहुत अलग-अलग स्तरों पर होते हैं, लेकिन सभी बंधनों का मूल आप के शरीर में है, इसीलिये आपको अपने शरीर पर काम करना पड़ता है।

गौतम बुद्ध ने इस हद तक कहा था, “जब आप बहुत भूखे हों और आप को भोजन की बहुत ज़रूरत हो, तब यदि आप अपना भोजन किसी और को दे देते हैं, तो आप ज्यादा मजबूत बन जायेंगे”। मैं उस हद तक नहीं जा रहा, पर मैं कह रहा हूँ, “बस दो मिनट रुकिये” - यह आप को ज़रूर ज्यादा मजबूत बना देगा।