सद्‌गुरु : 16 साल की उम्र में कंस को मारने के बाद कृष्ण को एक नेता की तरह देखा जाने लगा था। फिर भी, उनके गुरु गर्गाचार्य ने उनसे कहा, "भविष्य में तुम्हें जो बनना है, उसके लिये तुम्हें शिक्षा की ज़रूरत है। तुम्हारे पास बाकी सब कुछ है पर तुम्हें एक खास अनुशासन में रहना होगा, विद्यायें सीखनी होंगी। जाओ, और जाकर संदीपनि गुरु के शिष्य बन जाओ"। कृष्ण ने ऐसा ही किया। जब उनको ब्रह्मचर्य में दीक्षित किये जाने का समय आया तो वहाँ बलराम और जो दूसरे राजकुमार थे, उन पर हँसते हुए कहने लगे, "तुमने अब तक इतना चंचल जीवन जिया है, तुम ब्रह्मचारी कैसे बन सकते हो"? कृष्ण बोले, "उन परिस्थितियों में, मुझे जो करना था वो मैंने किया। पर मैं हमेशा ब्रह्मचारी ही रहा हूँ। अब आप लोग देखेंगे कि मैं ये शपथ लूंगा और इसे पूरी तरह से निभाऊंगा"।

गुरु संदीपनि के मार्गदर्शन और उनकी कृपा में कृष्ण 6 साल तक रहे और गुरु ने उनको कई तरह की कलाओं और दूसरी विद्याओं में पारंगत किया। उन्होंने सब तरह के हथियार चलाना सीखा और डिस्कस फेंकने में खास महारत हासिल की। डिस्कस धातु की बनी हुई एक तश्तरी, गोल थाली होती है जो अगर सही तरह से इस्तेमाल की जाये तो एक खतरनाक शस्त्र हो सकती है। कृष्ण उसको एक बिल्कुल ही अलग आयाम में ले गये।

कृष्ण किसी भी समय एक सम्राट होना चुन सकते थे पर अपने जीवन के 6 साल वे गलियों में भीख माँगने गये।

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उस समय, किसी दूसरे ब्रह्मचारी की तरह कृष्ण भी गलियों में भिक्षा माँगने गये। जब आप भिक्षा माँगने जाते हैं तो आप अपना भोजन नहीं चुन सकते। लोग आप के कटोरे में जो भोजन डालते हैं, वो अच्छा हो या सड़ा हुआ हो, जैसा भी हो, आप बस उसे भक्ति के साथ खाते हैं। एक ब्रह्मचारी को जो भी भोजन दिया जा रहा है, वो किस तरह का है, उसे ये नहीं देखना चाहिये। उसे क्या खाना है, क्या नहीं खाना, इसके बारे में कोई चुनाव नहीं करना चाहिये। जब आप कहते हैं कि आप एक ब्रह्मचारी हैं तो आप दिव्यता के पथ पर हैं। भोजन ज़रूरी है पर आपको पोषण सिर्फ भोजन से ही नहीं मिलता।

तो कृष्ण एकदम पूरे ब्रह्मचारी बन गये। कृष्ण, जो पहले हमेशा बहुत अच्छे कपड़े पहनते थे, मोरपंख लगा हुआ मुकुट, रेशमी कपड़े पहनते थे, वो अचानक ही हिरन की खाल की एक पट्टी पहनने लगे और अपनी नयी साधना में 100 प्रतिशत लीन हो गये। दुनिया ने इससे पहले इतना शानदार भिखारी नहीं देखा था। उनकी सुंदरता, उनके ढंग, उनकी दिव्यता, निष्ठा और लगन जिसके साथ वे गलियों में चलते थे और भिक्षा का भोजन इकट्ठा करते थे, यह सब देख कर लोग आश्चर्यचकित हो जाते थे। कृष्ण किसी भी समय एक सम्राट होना चुन सकते थे पर अपने जीवन के 6 साल वे गलियों में भीख माँगने गये।

कृष्ण द्वैपायन

एक और ऐसे ही सुंदर ब्रह्मचारी थे जिनका नाम था कृष्ण द्वैपायन। उन्हें बाद में व्यास नाम से जाना गया। वे 6 साल की उम्र में ही ब्रह्मचारी बन गये थे।

ब्रह्मचर्य के पहले ही दिन ये छोटा बच्चा, सिर मुंडाये और पेड़ों की छाल के बने कपड़े पहने, भोजन के लिये भीख माँगने गया और अपनी बच्चों जैसी पतली आवाज में बोला, "भिक्षाम देही"। जब लोगों ने इस छोटे से, प्यारे से लड़के को देखा तो उन्होंने उसे बहुत सा भोजन दिया। सबसे अच्छी चीजें जो वे दे सकते थे, उन्होंने दीं क्योंकि लोगों ने उनकी शक्ति को देखा, कि वो कैसे गलियों में चल रहा था, और कैसे अपने और अपने गुरु के लिये भिक्षा माँग रहा था। वो जितना ले जा सकता था, उसे उससे काफी ज्यादा मिला। जब वो ये भोजन ले कर चला तो गली में उसने बहुत से बच्चों को देखा जिन्होंने ठीक से खाया नहीं था और ये उनके चेहरों को देख कर ही पता चल रहा था। तो उसने सारा खाना उन बच्चों को दे दिया और खाली कटोरा ले कर वापस आ गया।

कृष्ण द्वैपायन, जो बाद में व्यास के नाम से जाने गये, वे 6 साल की उम्र में ही ब्रह्मचारी बन गये थे।

गुरु पराशर, जो उनके पिता और गुरु थे, ने उनकी ओर देखा और पूछा, "क्या हुआ? तुमने भिक्षा नहीं माँगी या किसी ने तुमको कुछ नहीं दिया?" कृष्ण द्वैपायन ने कहा, "उन्होंने मुझे खाना दिया था पर मैंने उन छोटे बच्चों को देखा जिन्होंने कुछ भी नहीं खाया था, तो मैंने सारा भोजन उन्हें दे दिया"। पराशर ने उनकी ओर देखा और कहा, "ठीक है"। इसका मतलब ये था कि उन दोनों के लिये खाने को कुछ भी नहीं था।

ऐसा रोज होता रहा, बच्चे ने खाना खाया ही नहीं। पराशर ने इस 6 साल के बच्चे को तीन-चार दिनों तक बिना खाये रहते देखा और फिर भी वो सारे काम और पढ़ाई कर रहा था। तो उन्होंने उस बच्चे की जबर्दस्त संभावना को समझा और अपना सब कुछ उस पर अर्पण कर दिया। वे किसी और को जितना 100 साल में सिखा पाते, वो सब उन्होंने उसे बहुत कम समय में सिखा दिया।

लीला

बहुत सी परंपराओं और व्यवस्थाओं ने ऐसे बहुत से तरीके बनाये हैं जिनसे मनुष्य को एक काफी बड़ी संभावना बनाया जा सके। ब्रह्मचर्य एक ऐसा ही तरीका है। लीला एक अलग तरीका है। लीला का मतलब है कि आप जिसे स्वयं, खुद मानते हैं - आपका शरीर, मन, सब कुछ - उसमें से अपने आप को पूरी तरह से बाहर निकाल देना। आप चाहे मंत्र जाप करें, नाचें, खायें, गायें या और कुछ भी करें, बस अपने आपको उसमें पूरी तरह से दे डालें, समर्पित कर दें। आपके अंदर का स्त्रीत्व जाग जाये। .

स्त्री का स्वभाव ही समर्पण करना, पाना, विलीन हो जाना है।

स्त्री का स्वभाव ही समर्पण करना, पाना, विलीन हो जाना है। चंद्रमा के पास उसका खुद का कोई गुण नहीं है। ये बस सूर्य से प्रकाशित होता है और देखिये ये कितना सुंदर बन गया है। अगर चंद्रमा अपने आप कुछ करे तो ये वैसा नहीं रहेगा। सूर्य जीवन देने वाला और जीवन को पोषित करने वाला है - वो अलग है। पर आपको ईश्वरीय पहलुओं की ओर ले जाने के लिये, आप में कविता या प्रेम को जगाने के लिये सूर्य से कहीं ज्यादा काम चंद्रमा करता है, ऐसा है कि नहीं? क्योंकि, उसके पास खुद का कोई गुण नहीं है, वो बस दूसरे से मिला हुआ आपको दिखा रहा है।

अगर आप दिव्यता को जानना चाहते हैं, तो बस एक ही बात है कि आप में अपना कोई गुण नहीं होना चाहिये। आप सिर्फ प्रतिबिंब बन जाईये। आप अगर बस प्रतिबिंब बन जाते हैं तो आप क्या दिखायेंगे? उसे जो सर्वश्रेष्ठ है!