एक आदमी जो हमेशा गरीबी और असहनीय भूख के कारण त्रस्त रहता था, छोटी मोटी चोरियाँ करता रहता था। एक बार उसे जेल की सजा हो गयी। उसने कई बार वहाँ से भागने की कोशिश की पर हर बार पकड़ा गया। और हर बार उसकी जेल की सजा बढ़ जाती थी। अंत में कई सालों बाद वो जेल से छूट कर बाहर की दुनिया में वापस आया।

भयंकर ठंड थी, और ऊपर से उसे भूख सता रही थी। उसके पास पैसा नहीं था और एक वक्त का खाना जुटाने के भी साधन नहीं थे। कोई भी एक जेल की सजा पाये व्यक्ति पर विश्वास करने और उसे काम देने के लिए तैयार नहीं था। वो बहुत सी जगहों पर गया लेकिन जहाँ भी जाता था, वहाँ से भगा दिया जाता था। एक गाँव में लोगों के हाथों पिटने के बाद उसे गाँव के पुजारी के घर में शरण मिली।

उसे पुजारी से ये अपेक्षा नहीं थी, कि वे इतनी दयालुता से उसका स्वागत करेंगे, पर पुजारी ने उसे दिलासा दिया, "ये भगवान का घर है, कोई चाहे अपराधी हो या पापी, जो भी यहाँ शरण माँगने आता है, वह भगवान का ही बच्चा होता है" और उसे खाने को भोजन, पहनने को कपड़े तथा रहने को जगह दी।

उसने बहुत अच्छी तरह खाया, आराम से सोया और बीच रात में जब उसकी नींद खुली तो उसने अपने आप में फिर से, अच्छी ऊर्जा महसूस की। उसकी नज़र कमरे में चांदी के कुछ बर्तनों पर पड़ी। चोरी करने की उसकी मजबूरी उस पर हावी हो गयी और वो उन चांदी के बर्तनों को उठा कर भागा। उसे एक बार भी ये विचार नहीं आया वो उसी को धोखा दे रहा है जिसने उसे भोजन दिया था।

जब वह चांदी के बर्तन लिये गाँव में से हो कर जा रहा था तो गाँव वालों को उस पर शक हुआ। पुलिस ने उसे पकड़ा और पूछताछ की। क्योंकि उन्हें ठीक ठीक जवाब नहीं मिले तो वे उसे पकड़ कर पुजारी के घर पर ले आये और बोले, "हमें शक है कि इसने आप के यहाँ से ये चांदी के बर्तन चुराये हैं। क्या आप जांच कर के बतायेंगे कि ये आप के ही हैं"? वो आदमी डर से काँप उठा कि अब उसकी चोरी की बात पता चल जायेगी और उसे फिर कई और साल जेल में काटने पड़ेंगे।

सज़ायें किसी व्यक्ति को पत्थर की तरह कठोर बना सकती हैं, पर करुणा उसे तोड़ देगी।

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लेकिन पुजारी का चेहरा करुणा से भरा हुआ था। वो चोर से बोला, "मेरे दोस्त, मैंने तुम्हें इन चांदी के बर्तनों के साथ ये चांदी की मोमबत्तियाँ भी दीं थीं, तुम उन्हें यहाँ क्यों छोड़ गये"? यह कहते हुए उसने वे चांदी की मोमबत्तियाँ भी उसे दे दीं।

"क्षमा कीजिये, हम इसे चोरी का मामला समझ रहे थे", पुलिस वालों ने कहा और उसे छोड़ दिया। वह आदमी पुजारी की करुणा से अभिभूत हो गया और चुपचाप अपने रास्ते पर चला गया। (विक्टर ह्यूगो के विख्यात फ्रेंच उपन्यास 'लेस मिज़रेबल' की कथा पर आधारित)

झेन परंपराओं में भी एक ऐसी ही कहानी है जिसने शायद पश्चिमी कहानीकारों को प्रेरणा दी होगी। ये कथा भी ऐसा ही संदेश देती है।

एक झेन गुरु को अपने शिष्यों के समूह में कुछ कोलाहल होते दिखा। उन्होनें जानना चाहा, वहाँ क्या हो रहा था?

वे बोले, "इसने फिर चोरी की है", ऐसा कहते हुए उन्होंने उस शिष्य को गुरु के सामने खड़ा कर दिया। गुरु बोले, "इसे माफ कर दो"।

"नहीं, किसी भी हालत में यह नहीं हो सकता। आप के कहने से हमनें इसे कई बार माफ किया है। अब अगर आप इसे बाहर नहीं निकालेंगे, तो हम सब यहाँ से चले जाएँगे", शिष्यों ने धमकी दी।

"इसे बाहर निकालने का मेरा कोई इरादा नहीं है, चाहे तुम सभी यहाँ से चले जाओ", गुरु बोले।

जिस शिष्य ने अपराध किया था, वह गुरु के चरणों में गिर गया और फूट-फूट कर रोने लगा।

सदगुरु की व्याख्या

सदगुरु : एक मनुष्य के पास किसी भी प्रकार की सजा को सहन कर लेने की शक्ति हो सकती है पर वह अतिशय करुणा के सामने हार जायेगा। सज़ायें किसी व्यक्ति को पत्थर की तरह कठोर बना सकती हैं, पर किसी भी वजह से परे की करुणा उसे तोड़ देगी

यदि किसी ने नारियल का पौधा आज लगाया है तो चार सप्ताह बाद वो उसे इसलिये नहीं काट डालेगा कि उसमें कोई फल नहीं आये हैं।

आप जैसे जैसे किसी व्यक्ति के साथ ज्यादा कठोर व्यवहार करते जाते हैं, वैसे वैसे ही सज़ा को सहन करने की उसकी क्षमता बढ़ती जाती है। सिर्फ करुणा ही उसे पिघला सकती है। एक आध्यात्मिक गुरु, किसी के भी बारे में, वो अभी क्या है, इस आधार पर निर्णय नहीं लेते। यदि किसी ने नारियल का पौधा आज लगाया है तो चार सप्ताह बाद वो उसे इसलिये नहीं काट डालेगा कि उसमें कोई फल नहीं आये हैं। इसी तरह गुरु यह देखेंगे कि किसी भी शिष्य की आंतरिक क्षमता क्या है और उसे किस प्रकार, उसकी संभावना के अनुसार, उन्नत किया जाये ? वे किसी को सिर्फ इसलिये अनदेखा नहीं करेंगे या नकार नहीं देंगे कि अभी उसमें आवश्यक क्षमता नहीं है।

जो भी अपने आप को ऐसे गुरु का शिष्य कहते हैं, वे इच्छुक होने चाहिएं, कि वे हर अवसर का सदुपयोग अपने विकास तथा रूपांतरण के लिये करें। विशेष रूप से, अगर कोई ऐसी परिस्थिति आती है जो उनके लिये अनुरूप नहीं है, तो ये उनके लिये अपने आप में परिवर्तन लाने हेतु, सर्वोत्तम परिस्थिति है। इसके बजाय वे अगर गुरु पर ही शर्तें लगाते हैं कि वे ऐसा करें, वैसा न करें तो इसका यही अर्थ होगा कि उनका इरादा सिर्फ अपनी बात मनवाने का है, वास्तव में उन्हें आत्म-रूपांतरण में कोई रुचि नहीं है। ऐसे लोगों को ये अधिकार नहीं है, कि वे अपने आप को शिष्य कहें। उन पर अपना समय व्यर्थ करने की बजाय, ये बेहतर होगा कि उन्हें जाने दिया जाये।