रावण की भक्ति और गणपति की बुद्धि
गणपति अपनी चतुराई के लिए प्रसिद्ध हैं। गोकर्ण महाबलेश्वर मंदिर में, गणपति की एक मूर्ति है जिसके सिर पर चोट का गड्ढ़ा है। वह चोट उन्हें रावण की वजह से लगी, जो एक बार गणपति की बुद्धि से नाराज हो गया था। सद्गुरु हमें वह कहानी सुना रहे हैं।
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सद्गुरु:रावण एक महान शिव भक्त था। वह भारत के दक्षिण में स्थित अपने राज्य में शिव की पूजा करता था। कुछ समय बाद उसके मन में ख्याल आया, “क्यों न मैं कैलाश को अपने घर के पास ले आऊं।” इसलिए वह श्रीलंका से चलकर कैलाश तक गया और कैलाश पर्वत को उठाने लगा। इससे पार्वती क्रोधित हो गईं और उन्होंने शिव से कहा, “चाहे वह आपको कितना भी प्रिय क्यों न हो, आप उसे कैलाश को दक्षिण में नहीं ले जाने दे सकते हैं।” शिव भी रावण के अहंकारी स्वभाव से नाराज थे, इसलिए उन्होंने पर्वत को नीचे की ओर दबा दिया, जिससे रावण के हाथ कैलाश के नीचे फंस गए। रावण पीड़ा में कराहता रहा, लेकिन शिव ने उसे छोड़ने से मना कर दिया।
रावण ने कैलाश के नीचे दबे हुए हाथ की हालत में ही सुंदर ऋचाओं (कविताओं) के द्वारा शिव के प्रति अपना प्रेम दिखाना शुरू किया। जब उसने ज़बरदस्त प्रेम और समर्पण के 1001 स्त्रोतों की रचना कर डाली, तब शिव उसे मुक्त करते हुए बोले, “तुम एक वरदान मांग सकते हो। बोलो तुम्हें क्या चाहिए?” रावण का स्वभाव एक बार फिर सामने आ गया और वह बोला, “मैं पार्वती से विवाह करना चाहता हूं।” शिव ने कहा, “ठीक है। वह मानसरोवर झील पर हैं। तुम जाकर उनसे विवाह कर सकते हो।” शिव के पास मौजूद सभी गण उत्तेजित हो गए और सोचने लगे, “ऐसा कैसे हो सकता है? रावण पार्वती को छू भी कैसे सकता है? यह संभव नहीं है।” वे सब मानसरोवर झील पर पार्वती के पास पहुंचे और उनसे कहा, “रावण आ रहा है। शिव ने उसे आपसे विवाह करने की अनुमति दी है।”
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पार्वती ने मेंढकों की रानी मंडूका को बुलाया और उसे एक खूबसूरत स्त्री में बदल दिया। रावण ने पार्वती को कभी नहीं देखा था। जब उसने मंडूका को देखा, तो वह उसकी ओर इतना आकर्षित हुआ कि उससे विवाह कर लिया। वह स्त्री मंदोदरी थी।
इसके बाद, रावण ने एक बहुत शक्तिशाली साधना की और स्वयं शिव से एक शक्तिशाली ज्योतिर्लिंग प्राप्त किया। शिव को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई चीज सामाजिक रूप से मान्य है या नहीं। वे हर उस चीज से प्रेम कर बैठते हैं जो सच्चाई और ईमानदारी से की जाती है। शिव ने रावण से कहा कि वह उस ज्योतिर्लिंग को अपने देश ले कर जाए और वह उसे जहां पर भी रख देगा, वह लिंग वहीं हमेशा के लिए स्थापित हो जाएगा। यही एक शर्त थी कि रावण ज्योतिर्लिंग को किसी भी दूसरी जगह नीचे नहीं रख सकता था क्योंकि वह उसे जहां भी रखता, वह वहीं स्थापित हो जाता।
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रावण बहुत सावधानी से, पूरी ताकत के साथ ज्योतिर्लिंग को उठा कर चला। वह इतना बड़ा योगी था कि उसने हर पहलू पर ध्यान दिया – उसने खाना नहीं खाया, मूत्र त्याग नहीं किया, कोई ऐसा काम नहीं किया जो आम तौर पर हर मनुष्य को विवश कर देता है और कैलाश से लेकर कर्णाटक के गोकर्ण नामक स्थान तक करीब 3000 किलोमीटर तक पैदल चलता रहा। एक मनुष्य की जो सामान्य आवश्यकताएं होती हैं, उसने उन सब के बिना इतनी लंबी यात्रा तय की थी, इसलिए वह कमजोरी महसूस करने लगा था और मूत्र त्याग करना चाहता था। हो सकता है वह पानी इसलिए पी रहा होगा क्योंकि वह किसी प्रकार का भोजन ग्रहण नहीं कर रहा था। उसका मूत्राशय उस समय तक हजार गैलन का हो गया होगा, वह उसे और नहीं रोक सकता था! लेकिन वह लिंग को नीचे नहीं रख सकता था, और अपने ऊपर लिंग को रखे हुए खुद को हलका नहीं कर सकता था, क्योंकि उसके अनुसार यह बहुत ही असभ्य होता।
तभी उसे एक बहुत प्यारा और मासूस सा लड़का दिखा जो एक चरवाहा था। वह लड़का बेहद सीधा दिख रहा था। अगर आप कोई कीमती सामान किसी चालाक व्यक्ति को दे दें, तो वह सामान ले कर भाग सकता है। वह लड़का मूर्ख दिख रहा था, इसलिए रावण बोला, “जब तक मैं मूत्रत्याग करता हूँ, तब तक यदि तुम इसे कुछ मिनटों के लिए अपने हाथ में रखे रहो, तो मैं तुम्हें एक रत्न दूंगा। पर इसे नीचे मत रखना।” लड़का बोला, “ठीक है”। रावण ने लिंग चरवाहे को दे दिया और पीठ घुमाकर मूत्रत्याग करने लगा। वह लड़का असल में गणपति थे जो नहीं चाहते थे कि रावण उस लिंग को लंका ले कर जाए क्योंकि ऐसा करने पर वह एक महा-मानव बन जाता। इसलिए गणपति ने लिंग को नीचे रख दिया और वह उसी क्षण धरती में धंस गया। आज भी यदि आप गोकर्ण जाएं, तो वहां चट्टान में सिर्फ एक छोटा सा छिद्र है, जिसमें उंगली डालकर आपको लिंग को महसूस करना होगा क्योंकि लिंग अंदर चला गया है।
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रावण इतना क्रोधित हो गया कि उसने लड़के को सिर पर दे मारा। इसलिए आपको गोकर्ण में मौजूद गणपति की मूर्ति के सिर पर एक गड्ढ़ा मिलेगा। रावण के पास कैलाश वापस जाने और फिर से सारा काम करने की ताकत नहीं थी। इसलिए वह घोर निराशा और क्रोध के साथ श्रीलंका लौट गया।
चाहे आप अच्छे हों या बुरे, अगर आप इच्छुक हैं, तो ईश्वरीय कृपा हर किसी के लिए हमेशा उपलब्ध है। लेकिन उसे आप अपने लिए अभिशाप बनाते हैं या वरदान, यह आपके अंदरूनी स्वभाव पर निर्भर करता है। आप अपने भीतर किस तरह का नजरिया और मानसिकता विकसित करते हैं, इससे तय होता है कि आप इस ब्रह्माण्ड का इस्तेमाल किस तरह करेंगे।