रचनात्मक प्रक्रिया और रचनात्मकता बढ़ाने के तरीके
यहाँ सद्गुरु रचनात्मकता के बारे में समझा रहे हैं और उसे परिभाषित करते हुए वे बता रहे हैं कि रचनात्मकता कहाँ से आती है। वे अपनी खुद की रचनात्मकता के बारे में भी अपने विचार स्पष्ट कर रहे हैं।
#1.रचनात्मकता शब्द की सही परिभाषा
सदगुरु : मैं यह नहीं मानता कि मनुष्य रचनात्मक हो सकता है। अगर हम अपने चारों ओर सृष्टि देखें, सृष्टिकर्ता की रचनात्मकता गहराई से देखें तो हम कई तरीकों से उसकी नकल कर सकते हैं। अलग अलग तरह से जोड़ कर, समूह बना कर, इकट्ठा हुई चीजों को अलग कर उन्हें दूसरों के साथ जोड़ कर, हम समाज में रचनात्मक दिख सकते हैं, पर वास्तविक तौर पर हम रचनात्मक नहीं हैं - हर वो चीज़ जो बनाई जा सकती है, वो सृष्टिरचना में पहले ही बन चुकी है। ज़्यादा से ज़्यादा, हम बस काफी चालाक कारीगर हैं। रचनात्मकता को अगर आप इस तरह परिभाषित करें, "कुछ बनाना -- चाहे आप कोई फ़िल्म बनायें, कोई तस्वीर बनायें, कोई इमारत बांधें, कुछ बोलें या और भी कुछ करें-- वास्तविक रूप से ये रचनात्मक नहीं है। ये बहुत चालाकी से की गयी नकल है। चूंकि हमनें जीवन के अलग अलग पहलुओं की तरफ ध्यान दिया है, तो हम शायद इस तरह से नकल कर सकते हैं, जो दूसरे लोगों को संभव नहीं लगती थी। या, अगर आपको नकल शब्द पसंद न हो तो आप इसे दोहराना, फिर से बनाना, कह सकते हैं।#2.रचनात्मक प्रक्रिया - एक दिव्यदर्शी की अंतर्दृष्टि
अगर आप इंसानों को देखें तो किसी को भी सींग नहीं हैं, न ही तीसरी बाँह है और न ही तीसरी आँख - सब कुछ एक जैसा ही है पर फिर भी हर इंसान अलग है। अगर आप इंसान की खासियत आसान शब्दों में बताना चाहें तो हरेक के दो पैर हैं, दो हाथ, एक नाक, दो आँखें... आदि, आदि! पर हरेक मनुष्य एकदम अलग तरह का है, हरेक की हर बात निराली है। ये सृष्टिरचना का स्वभाव है।
कभी भी, किसी भी मनुष्य को ये नहीं सोचना चाहिये कि हम कुछ बना रहे हैं। किसी भी तरह से, जाने अनजाने, हम उन्हीं चीजों में से कुछ बनाते हैं जिनका असर हम पर पड़ा है। आप जो चाहे बनायें - चाहे कोई आभूषण हो या कपड़ा या इमारत, या कुछ भी, किसी भी रूप, रंग या आकार में - तो वो प्रकृति में, सृष्टि में पहले से ही है। आपने इतने सारे प्रभाव अपने अंदर बना लिये हैं, और सभी किसी जागरूकता के साथ नहीं बनाये हैं। आपके मन में, जो आकार, प्रकार, रंग आदि हैं, उनमें कुछ की अभिव्यक्ति, बिना जागरूकता के, आपके द्वारा हो जाती है। इस संदर्भ में, जब कोई कहता है कि यह आश्रम बहुत सुंदर है, तो मैंने पहाड़ नहीं बनाये हैं और वे ही आश्रम के सबसे ज्यादा खूबसूरत हिस्से हैं।
वे एक खास तरह की पृष्ठभूमि बनाते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग इस तरफ ध्यान नहीं देते। एक बार ऐसा हुआ, शंकरन पिल्लै ईशा योग सेंटर में आये और उन्होंने माँग रखी कि उन्हें ऐसा कमरा चाहिये जिसमें से सबसे अच्छा दृश्य दिखता हो। तो हमनें उन्हें चित्रा ब्लॉक में एक अच्छा, सही कमरा दिया। फिर उन्होंने शिकायत की, "मैंने अच्छा दृश्य दिखने वाला कमरा माँगा था"। हमनें कहा, "इसी कमरे में से सबसे अच्छा दृश्य दिखता है"। वे बोले, "पर ये बेकार के पहाड़ बीच में आ रहे हैं"! ऐसा ही बहुत सारे मनुष्यों के साथ होता है। वे चीजों को वैसी नहीं देखते जैसी वे हैं बल्कि उनके पास उनके ही कुछ अलग विचार होते हैं। अगर आपको किसी चीज़ को सुंदर बनाना हो तो, सबसे पहली बात, आपके पास कोई उस बारे में पहले से कोई विचार नहीं होने चाहिये। कोई विचार वास्तविकता के साथ मेल रखे यह ज़रूरी नहीं है।
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विचार की जगह, अगर आपके पास समझ हो और अगर, हर समय, आप जीवन को ही समझते, सोखते हों और अगर आप कुछ बनाना चाहें, अगर आप चाहते हैं कि कुछ हो तो आपके पास वो सब होगा - आकार, प्रकार, रंग आदि, या जो कुछ भी ज़रूरी हो! आप चाहे संगीत बनाना चाहें, या कपड़े या इमारतें, अगर आप पर्याप्त ध्यान दें तो ये सब मौजूद होगा।
#3.क्या रचनात्मकता विकसित की जा सकती है या यह कोई अनुवंशिक गुण है?
प्रश्न : सद्गुरु, क्या रचनात्मकता जन्मजात होती है या यह विकसित, पोषित की जा सकती है?
सद्गुरु : हम जिस रचनात्मकता की बात कर रहे हैं, वो मूल रूप से ध्यान देने की तीव्रता से आती है। कुछ लोग शब्दों और उनके अर्थों की तरफ बहुत ध्यान देते हैं, तो वे कुछ खास चीजें(साहित्य, कविता) रचते हैं। कुछ लोगों का ध्यान आकारों और रंगों पर बहुत होता है तो उनकी अभिव्यक्ति अलग ढंग की(चित्रकारी से) होती है। कुछ और लोग ध्वनियों की ओर ज्यादा ध्यान देने वाले होते हैं, तो वे, बिना खास कोशिश के, अच्छा संगीत पेश कर सकते हैं। आपका ध्यान देना कितना तीव्र और गहरा है, वो आपके कामकाज में कुछ तरह से दिखता है।
मैं जो कुछ कहने की कोशिश करता रहा हूँ, उसका सार यह है कि लोगों को, बिना इरादे के, वास्तविक रूप से ध्यान देना चाहिये। अगर लोग यह एक काम कर सकें तो बहु आयामी रचनात्मकता पूरी तरह से संभव है। ऐसा नहीं है कि उनको इसका अभ्यास करना पड़ेगा। इंसानों में एक ही कमी है - वे पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं देते।
लोग ध्यान क्यों नहीं देते, इसकी वजह बस यह है कि उनका मस्तिष्क हमेशा बहुत ज्यादा काम करता रहता है। लोगों को पता ही नहीं है कि अपनी यादों को और अपने ध्यान देने को किस तरह अलग अलग रखा जाये, कैसे उन्हें संभाला जाये? उनकी यादें, हमेशा ही, बड़ी मात्रा में, तेजी से, उनके ध्यान देने में घुसतीं रहतीं हैं और ये, हर समय, उनके ध्यान देने पर, बड़ा असर डालती हैं। लोग यादों के इस असर को विचार या भावना कह सकते हैं पर मूल रूप से, ये इकट्ठा हुई यादें ही हैं जो उनके ध्यान देने के बीच में बाधा डालतीं हैं नहीं, तो आपके लिये ध्यान देना, ध्यानमग्न होना स्वाभाविक है। जब आप जगे हुए हैं तब ध्यानमग्न होने के सिवा आप और कैसे हो सकते हैं? यह सारी गड़बड़ी बस इसीलिये है क्योंकि आपकी यादें सभी पहलुओं में घुस आती हैं।
जो मूल काम मैं हमेशा करने की कोशिश करता रहा हूँ, वो यही है कि लोगों में अपनी यादों और कल्पनाओं को अपने ध्यान देने की प्रक्रिया से अलग रखने की काबिलियत होनी चाहिये। कल्पनायें ज्यादा समस्या नहीं हैं क्योंकि, कई तरह से, कल्पनायें यादों की खोज ही हैं। सभी जानवरों की ध्यान देने की प्रक्रिया तीव्र होती है, पर, उनके पास, हमारी तरह बहुत ज्यादा और स्पष्ट यादें नहीं होतीं। पर यादों को एक अद्भुत काबिलियत की तरह इस्तेमाल करने की बजाय, इसे लोग अपने लिये बस दुख पैदा करने में ही करते हैं। लोग इस बात से ज्यादातर समय दुखी रहते हैं कि दस साल पहले क्या हुआ था और वे इससे भी दुखी हो सकते हैं कि परसों क्या होने वाला है? जानवरों को भी उनकी परेशानियाँ हैं, उनके संघर्ष हैं पर वे अपनी यादों की वजह से दुखी नहीं रहते। वे बस अपने जीवन की प्रक्रिया में ही तकलीफ पाते हैं। इंसान ज्यादातर समय अपनी यादों की वजह से दुखी रहते हैं।
#4.क्या चिंता से रचनात्मकता को सहायता मिलती है?
प्रश्न : रचनात्मक विचार कहाँ पैदा होता है? क्या ये अंदर में पैदा होने वाली किसी अशांति या चिंता की वजह से पैदा होता है? नहीं तो, मुझे अपने आपको अभिव्यक्त करने की ज़रूरत क्या है? क्या रचनात्मक काम, विचारों, कविता, संगीत आदि के लिये गहरी गड़बड़ी या चिंता से गुज़रना महत्वपूर्ण है?
सद्गुरु : ज्यादातर लोगों के साथ समस्या यह है कि जब तक आप उन्हें कुछ चुभा कर सक्रिय नहीं करते, तब तक वे बस आधे ही जीवित होते हैं। लोगों ने जड़ता को अपने जीवन का ढंग बना रखा है। बस जड़ता की वजह से, बाहर शायद कुछ भी न हो रहा हो। जो लोग उस दशा में होते हैं, वे सिर्फ तभी जीवन के बारे में कुछ सोच पाते हैं, कुछ ध्यान देते हैं, जब कोई खतरा, जैसे युद्ध, महामारी या कोई और विपत्ति/ आफत उनके जीवन में आ जाये! धरती पर रहने का ये एक बहुत दुर्भाग्यशाली तरीका है। आपके जीवन के हर पल में आपको जीवन पर ध्यान देना चाहिये, परवाह करनी चाहिये। ये ध्यान किसी परिस्थिति की वजह से नहीं पर इसलिये होना चाहिये क्योंकि आप जीवन में पूरी तरह से शामिल हैं।
हम जीवन को उतना ही जानते हैं, जितना हम उस पर ध्यान देते हैं। आपके ध्यान देने की जितनी गहराई है, उसी हद तक आप जीवन का अनुभव करते हैं। अगर आप का ध्यान देना बहुत गहन हो तो जीवन का अनुभव भी आपके लिये गहन ही होगा। जब आपके जीवन का अनुभव बहुत गहन होगा, तो इसकी अभिव्यक्ति आपके छोटे से छोटे काम में भी होगी और आपके संगीत, आपकी कविता, चित्रकारी या किसी और भी बड़े तरीके से भी होगी। आपकी अभिव्यक्ति किस तरह की होगी ये इस पर निर्भर करता है कि आपका ध्यान देना किस तरह का है?
क्या आप हर किसी चीज़ की ओर ध्यान देते हैं? ये एक प्रकाश बल्ब की तरह है - जब आप इसे जलाते हैं तब हर किसी चीज़ पर उसका प्रकाश पड़ता है - या फिर, आपका ध्यान बस किसी खास चीज़ पर ही जाता है? ज्यादातर लोग बस कुछ ऐसी चीज़ पर ही ध्यान दे पाते हैं, जो उनकी रुचि की हो। कोई चीज़ आपके ध्यान देने के योग्य है, और कोई चीज़ इसके योग्य नहीं है - ऐसी सोच के साथ जीना जीवन को देखने का एक गलत तरीका है। सृष्टिकर्ता ने जितना ध्यान मनुष्य को बनाने में लगाया है, उससे कम ध्यान चींटी बनाने में नहीं दिया है। जब प्रकृति का यह स्वभाव है तो यह तय करने वाले आप कौन होते हैं कि किस चीज़ पर ध्यान दिया जाये और किस चीज़ पर नहीं?
#5.सद्गुरु की रचनात्मकता के पीछे कौन सी प्रेरणा है?
प्रश्न : आप जब कविता लिखते हैं या चित्रकारी करते हैं तो आपके मन की स्थिति किस तरह की होती है?
सद्गुरु : ये सुनने में बहुत अजीब लग सकता है पर जब मैं कविता लिखता हूँ तो उसे दूसरी बार नहीं पड़ता। मैं किसी खास धारणा को लेकर काम नहीं करता। एक तरह से कहें तो मैं कविता को बूँद बूँद कर के बहाता हूँ। यही वो चीज़ किसी आकार या किसी चित्र का रूप भी ले सकती है। मैं चाहे बोलूँ या गाड़ी चलाऊँ या लिखूँ या चित्र बनाऊँ, मेरे लिये ये सब एक ही है। अभिव्यक्ति का मतलब सिर्फ शब्द लिखना या उच्चारना नहीं है क्योंकि उसके लिए आपमें कोई विचार होना चाहिये या फिलॉसफी या विचारधारा होनी चाहिये। मेरे पास ये अभिव्यक्ति के रूप में नहीं है, ये बूँद करके होने वाला प्रवाह है। मैं हमेशा तैयार हूँ पर अगर परिस्थिति भी तैयार हो तो मैं एक प्रबल, प्रचंड प्रवाह बन जाऊँगा, नहीं तो मैं बूँद बूँद प्रवाह बनकर रहूँगा।
#6. कला के बारे में सद्गुरु की समझ
प्रश्न : सद्गुरु, क्या आप कला की लोकप्रिय पद्धति और रचनात्मक, सूक्ष्म कला (पॉपुलर आर्ट और फाइन आर्ट) में फर्क करते हैं? क्या आपको लगता है कि कला में किसी तरह का पदानुक्रम (हायरारकी या ऊपर से नीचे तक पदों का वर्गीकरण) होता है?
सद्गुरु : नहीं, बिल्कुल नहीं! अगर मुझे कला का किसी तरह का वर्गीकरण करना ही हो तो मैं इस तरह से करूँगा, (i) 'हताशा के गहरे स्तर में से आने वाली कला', और, (ii) 'आनंद में से आने वाली कला'। एक खास समय पर, पीड़ा और हताशा के गहरे स्तरों से आने वाली कला युरोपीय संस्कृति की कला बन गयी, और सारा संसार अब बस उसी की नकल करने में लगा है। ये बहुत नकारात्मक चीज़ है और जब ऐसी चीज़ें आपके घर की दीवारों पर होंगीं तो धीरे, धीरे इसका असर आप पर होगा ही। अगर आप पर इसका कोई असर नहीं होता तो फिर इसे कला नहीं कहा जा सकता। पर, कला आप पर असर करती है, सिर्फ देखने से ही नहीं, बहुत सारी तरहों से! दुर्भाग्यवश, दुनिया के धर्मों ने पीड़ा, दुख की बहुत प्रशंसा की है पर यौगिक संस्कृति में हमनें हमेशा आनंद, उल्लास को सबसे ऊपर माना है, सबसे ज्यादा महत्व दिया है।
हमनें पीड़ा को महत्वपूर्ण नहीं माना क्योंकि वे हमारी खुद की बनायी हुई होती हैं जब कि हमनें आनंद को नहीं बनाया है। जब आप जीवन से जुड़े होते हैं, तब स्वाभाविक रूप से आप आनंदमय होते हैं। जब आप जीवन से जुड़े नहीं होते और मानसिक रूप से अस्तव्यस्त होते हैं, तब आप पीड़ा और हताशा में होते हैं। तो मैं कला का वर्गीकरण इन दो तरह से करूँगा - (i) वो कला जो हताशा और पीड़ा के गहरे स्तरों में से उभरती है, और (ii) वो कला जो जीवन की आनंदमय अभिव्यक्ति में से प्रकट होती है।
संपादकीय टिप्पणी : सद्गुरु के साथ भारत के प्रसिद्ध कवि, लेखक, गीतकार और सिने लेखक प्रसून जोशी की रचनात्मकता पर पूरी बातचीत का वीडियो देखिये।