मार्क हाइमैन: हमारे श्रोताओं की ओर से एक सवाल आया है कि हमारे मन, मूड, भावात्मक दशा, मानसिक सेहत का हमारे भोजन से क्या संबंध होता है? बायपोलर रोगों से ले कर, डिप्रेशन आदि को उससे जोड़ा जा सका है। तो हमारे मन और शरीर के बीच क्या संबंध है?
 

सद्‌गुरु: यौगिक तंत्र में शरीर और मन को अलग-अलग करके नहीं देखा जाता। आपका मस्तिष्क देह का ही हिस्सा है। आम तौर पर हम जिसे मन कहते हैं, वो थोड़ी याद्दाश्त और बुद्धि है। बाकी शरीर और मस्तिष्क के बीच, किसके पास ज्यादा समझ और किसके पास ज्यादा स्मृति है? अगर आप ध्यान से देखें तो आपके शरीर के पास लाखों साल पुरानी याद्दाश्त है। इसे अच्छी तरह याद है कि आपके पूर्वज क्या थे। मन ऐसी याददाश्त का दावा नहीं कर सकता। जब समझ की बात आती है, तो डीएनए के एक छोटे अणु में घटने वाली घटना भी इतनी मुश्किल है कि आपका सारा दिमाग उसका पता नहीं लगा सकता।

यौगिक तंत्र में, एक भौतिक शरीर होता है और एक मानसिक शरीर होता है। प्रज्ञा या कहें बुद्धि और याद्दाश्त हमारे पूरे शरीर में फैली है। लोगों को लगता है कि मस्तिष्क ही सब कुछ है, क्योंकि यह विचार प्रक्रिया को संभालता है। मन और देह के इस अलगाव के कारण ही, पश्चिम में बहुत से लोग जीवन में कभी न कभी एंटीडिप्रेसेंट दवाएं लेते हैं।

मन पर मांस का प्रभाव

हम जैसा भोजन करते हैं, उसका हमारे मन पर गहरा असर होता है। एक औसत अमेरिकी प्रतिवर्ष दो सौ पाउंड मीट खा लेता है। अगर आप इस मात्रा को पचास पाउंड तक ला सकें तो देखेंगे कि 75 प्रतिशत लोगों को एंटीडिप्रेसेंट दवाओं की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। अगर आप रेगिस्तान या जंगल में हैं, तो मीट एक अच्छा भोजन का हो सकता है, क्योंकि यह आपको ज्यादा देर तक जिंदा रख सकता है। अगर आप कहीं खो जाएं, तो मीट के सहारे समय बिता सकते हैं, क्योंकि इसकी थोड़ी मात्रा में ज्यादा पोषण होता है। जबकि आपके पास दूसरे विकल्प मौजूद हैं तो इसे रोजमर्रा के खाने में शामिल नहीं करना चाहिए।

इसे आप कई तरह से देख सकते हैं। जानवरों को अपने मरने से कुछ पल पहले अपनी मौत का एहसास हो जाता है। आप इसे कितनी भी चतुराई या वैज्ञानिक तरीके से क्यों न करें। जो भी जानवर किसी तरह का भाव रखता है, उसे पता लग जाएगा कि वह मरने जा रहा है।

मान लें कि अगर आपको कहीं से पता चले कि आज आप सबको मार दिया जाएगा। कल्पना कीजिए कि आपके भीतर कैसा संघर्ष और रसायनिक प्रतिक्रिया पैदा होगी। जानवर भी, कुछ समय तक ही सही, इसी मनोदशा में रहता है। जब आप उसे मारते हैं तो उसके मांस में वे नकारात्मक एसिड भी मिल जाते हैं। जब आप उसे खाते हैं तो उससे आपके भीतर अनावश्यक मानसिक उतार चढ़ाव पैदा होते हैं।

अगर आप एंटीडिप्रेसेंट दवा खाने वाले रोगियों को लगातार शाकाहारी भोजन पर रखें तो तीन माह में ही उन्हें दवाओं की जरूरत नहीं रहेगी। हमने ईशा योग केंद्र में आने वाले बहुत से लोगों के अंदर यह बदलाव देखा है।

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आज इंसान व्यापार और वाणिज्यिक की सेवा करने में लगे हैं

मानसिक रोगियों में से, अधिकतर ने खुद इस रोग को बुलावा दिया है। उन्हें शारीरिक तौर पर कोई परेशानी नहीं है। अगर हमने अपने सामाजिक ढांचे को इस तरह न बुना होता तो इतने लोग मानसिक तौर पर बीमार नहीं होते। हमें बाजारी ताकतों को अपने जीवन की गुणवत्ता को तय नहीं करने देना चाहिए। व्यापार और वाणिज्य मानवता की सेवा के लिए है। इस समय, हम पूरी दुनिया में आर्थिक इंजन को ऐसे तैयार कर रखा है मानो इंसान व्यापार और वाणिज्यिक की सेवा करने के लिए बना हो। आपने वल्र्ड इकनोमिक फोरम का नाम लिया। जब मैं कुछ साल पहले वहां गया था, हर कोई उभरते बाजार के तौर पर भारत, चीन और ऐसे ही देशों का नाम ले रहा था।

मैंने कहा, “कृपया लोगों को बाजार मत कहिए। अगर आप उन्हें इंसानों की तरह देखेंगे तो हो सकता है कि आपके मन में उनके लिए बेहतर उपाय आ सकें। अगर आप उन्हें बाजार समझते हैं तो सब कुछ ही अलग होगा। ये कोई बाजार नहीं हैं, ये तो इंसान हैं।” अगर आप लोगों को लोग, जीवन को जीवन के तौर पर नहीं देखते तो आप कभी परवाह नहीं करेंगे कि आप उन्हें क्या सौंप रहे हैं। आप उन्हें वही बेचना चाहेंगे जिससे आपको अधिकतम फायदा हो सके।

मार्क हाइमैन: जी, यह सच है। कई साल पहले मैंने एक किताब लिखी थी, “द अल्ट्रा माइंड सोल्यूशन”, जो बताती है कि शरीर मन को कैसे प्रभावित करता है। मैंने देखा कि जब मैंने लोगों के संपूर्ण स्वास्थ्य पर काम करना आंरभ किया तो उनके मानसिक रोग भी कम होने लगे। मैंने जो किया, उसे “फंक्शनल मेडिसिन” कहते हैं। यह सेहत रचने का एक विज्ञान है, जो काफी हद तक वैसा ही है, जैसा हमें सद्‌गुरु बताते हैं।

जब मैं ऐसा करने लगा तो मैंने पाया कि लोगों को डिप्रेशन से मुक्ति मिली और उनके बायपोलर रोग में सुधार हुआ। मैंने देखा कि उनके रोग के मूल में भोजन ही मुख्य कारण था। दरअसल, अधिकतर लोग असली भोजन नहीं करते - वे भोजन जैसे पदार्थ खाते हैं जिन्हें भोजन का नाम दिया जाता है। अगर हम सही तरह का भोजन करें, मांस की खपत घटा दें और पौधों पर आधारित भोजन करें तो हमारी अधिकतर लंबी बिमारियां, जिनमें मूड और न्यूरोलॉजी डिसऑर्डर जुड़े रोग भी शामिल हैं, यूं ही दूर हो जाएंगे। मैंने ऐसा बार-बार देखा है।

हालांकि मैं मानसिक रोग का इलाज नहीं कर रहा होता था, पर असर के तौर पर, उनमें भी सुधार आने लगता। मुझे लगता है कि यह बड़ी शर्म की बात है कि हम इस देश में इस संबंध को नहीं समझते और यहाँ के डॉक्टर अब भी इस बात को चुनौती दे रहे हैं कि भोजन हमारा वजन बढ़ाने के अलावा भी हमारे मन और शरीर पर अपना असर करता है और इसे इलाज के तौर पर काम में लाया जा सकता है। लेकिन यह वास्तव में ताकतवर साधन है। हम जो भोजन करते हैं, उसकी गुणवत्ता और भोजन करने का तरीका भी अपने-आप में बहुत अहम है।

एक अभियान चलाना होगा

मुझे लगता है कि जैसे यूएस में सत्तर के दशक में एंटीस्मोकिंग अभियान चलाया गया था, वैसे ही हमें भोजन के लिए भी प्रभावशाली अभियान चलाना होगा। सत्तर के दशक में आपको किसी भी सार्वजनिक जगह पर धुएं के बीच से अपना रास्ता बनाना होता था। पर फिर उन्होंने एक सक्रिय अभियान चलाया जो धुएं को वातावरण से हटाने में सफल हुआ। आज आप किसी रेस्त्रां में जा सकते हैं, और वहाँ आपको सिगरेट का धुआं नहीं मिलेगा। फिर भी हमारे ड्रींक में कार्बन डाई ऑक्साइड है! एक समय में लोगों को सिगरेट पीने की सिर्फ जरुरत ही नहीं होती थी, यह फैशन भी माना जाता था। सामने वाले के चेहरे पर धुएं के बादल छोड़ना भी बुरा नहीं था।

उस तरह के प्रभावशाली अभियान का ही नतीजा था कि एक ही पीढ़ी में हालात को पूरी तरह बदला जा सका। आज आप देख सकते हैं कि दूसरे देशों की तुलना में अमेरिका में तंबाकू का धुंआ कम पाया जाता है। हमारे खाने और पीने के लिए ऐसे ही एक अभियान की जरूरत है।

मार्क हाइमैनः जी। हम सभी ऐसे चुनाव करते हुए अपने स्थानीय नेताओं से बात करें तो ऐसे बदलाव ला सकते हैं। पर फूड उद्योग ही हमारी समस्या है। यह एक ट्रिलियन डॉलर का उद्योग है जो बहुत सारी नीतियों को तय करता है। काफी हद तक भोजन से जुड़े गाइडलाइन और सिफारिश फ़ूड उद्योग अपने पक्ष में तय करवा लेता है। हमें सही सूचना नहीं मिलती। हमें सच नहीं बताया जाता। दरअसल, हमारी नीतियों में बदलाव नहीं आ रहा।

अमेरिकी नीतियों में बदलाव लाने की कोशिश

सद्‌गुरु: दरअसल यह चार ट्रिलियन का उद्योग है। जिसमें एक ट्रिलियन डॉलर का भोजन उद्योग और तीन ट्रिलियन डॉलर की दवाओं के उद्योग की हिस्सेदारी है।

मार्क हाइमैन: ठीक कहा आपने। यह बहुत विशाल है। जब माइकल बूमबर्ग न्यू यॉर्क के मेयर थे, तब उन्होंने कुछ नीतियों को बदलने की कोशिश की। जैसे सोडा पर टैक्स लगाना, लेकिन वे इसे पास नहीं करा सके (सोडा टैक्स कोल्ड ड्रिंक्स पर लग सकने वाला टैक्स है, जिससे मोटापे के असर को कम किया जा सकता है)। वे एक अध्ययन में देखना चाहते थे कि जब आप सोडे के लिए फूड स्टैंप बांटने को सीमित करते हैं तो क्या होता है। अमेरिका में निर्धन हर साल चार बिलियन डॉलर के फ़ूड स्टाम्प का प्रयोग करके सोडा खरीदते हैं। और फिर सरकार दवाओं और सोडे पीने से होने वाली मेडिकल दशाओं के इलाज का खर्च देती है। यूएसडीए के कृषि विभाग ने उन्हें पायलट स्टडी तक नहीं करने दी।

तो वे मेक्सिको चले गए, और उन्हें कुछ प्रमुख नीतियों में मदद कर रहे हैं। जैसे सोडा और शुगर टैक्स, जंक फूड टैक्स और फूड लेबलिंग आदि। ताकि आप सही मायनों में जान सकें कि आपका भोजन आपके लिए सही है या नहीं। हरा - अच्छा बताने के लिए, पीला - सावधान करने के लिए, लाल- नुकसान का इशारा करने के लिए हो सकता है। वे चाहते थे कि स्कूल से ऐसा भोजन हटा दिया जाए जो बच्चों के लिए ठीक न हो और उस खाने की मार्केटिंग न हो जो सही मायनों में फूड ही नहीं है।

ये नीतियाँ ऐसी हैं जो सारी दुनिया में कारगर हो सकती हैं। अलग-अलग जगह पर अलग तरह से काम हो सकता है पर हम इस देश में फूड लॉबिंग (फ़ूड उद्योग द्वारा निर्णय अपने पक्ष में करवाए जाना) की वजह से ऐसे बदलाव नहीं कर पाते। अगर हम सभी अपने परिवार में ऐसे बदलाव कर सके, अपने समुदाय और दोस्तों के बीच बदलाव ला सके तो हम ग्लोबल चेंज (वैश्विक स्तर पर बदलाव) देख सकते हैं।

सद्‌गुरु: यह केवल नीति निर्माता या नेताओं के बस की बात नहीं है। अगर हर किसी को यह पता हो कि उनकी भौतिक और मानसिक सेहत उचित खाने और खाने के तरीके से बदल सकती है, तो हम नेताओं को भी बदल देंगे।

मार्क हाइमैन: ठीक कहा आपने। हमें अपने फूड-सिस्टम में बदलाव लाना होगा सेहत का ख़याल सिर्फ स्वास्थ्य सेवा के माध्यम से नहीं रखा जा सकता है। मूल रूप से इसका ख़याल हमें अपने भोजन तंत्र से रखना होगा। हमें दो पक्षों को एक साथ लेकर चलना होगा - एक सजग राष्ट्र का निर्माण और भोजन तंत्र में बदलाव।