भगवान या कर्म - किस पर विश्वास करें
क्या व्यक्ति को ईश्वर पर विश्वास करना चाहिए या कर्म पर? सद्गुरु कहते हैं कि निष्कर्ष निकालने के बजाय, व्यक्ति में साधक बनने का साहस और प्रतिबद्धता होनी चाहिए।
ईशा योग केंद्र में 21 दिवसीय हठ योग कार्यक्रम के दौरान सद्गुरु के साथ एक सत्र से निम्नलिखित अंश लिया गया है। सद्गुरु कहते हैं कि निष्कर्ष और धारणाएँ बनाने के बजाय, व्यक्ति में साधक बनने का साहस और प्रतिबद्धता होनी चाहिए।
प्रश्न: बचपन से ही मुझे यह विश्वास दिलाया गया है कि भगवान है, और इसके फलस्वरूप, मैं एक भक्त बन गया हूँ। लेकिन फिर मैंने यहाँ हठ योग कार्यक्रम शुरू किया और मैंने देखा कि ईशा का पूरा दृष्टिकोण कर्म-केंद्रित है। इसका मतलब यह होगा कि कहीं भी कोई भगवान शामिल नहीं है। इक्कीस वर्षों से, मैं भगवान में विश्वास करता रहा हूँ - अब इसे तोड़ना वास्तव में आसान नहीं है। उसकी समझने में कृपया मेरी मदद करें।
सद्गुरु: शंकरन पिल्लई की शादी मुश्किलों में थी। वह एक विवाह सलाहकार के पास गए और पूछा, "मुझे क्या करना चाहिए? मैं जो भी कोशिश करता हूँ, सब गलत हो जाता है।" विवाह सलाहकार ने कहा, "आपको उससे पूछना चाहिए कि वह वाकई क्या चाहती है," और उसने उसे ऐसा करने के लिए कुछ सुझाव दिए। जब शंकरन पिल्लई घर वापस आए, तो उनकी पत्नी महिलाओं की एक पत्रिका पढ़ रही थी और उसने ऊपर देखने की परवाह नहीं की। उन्होंने एक पल के लिए सोचा कि कौन से शब्द इस्तेमाल करें; फिर उन्होंने कहा, "प्रिये, क्या तुम्हें बुद्धिमान आदमी चाहिए या सुंदर आदमी?" उसने कुछ नहीं कहा। फिर वह उसके करीब गया, उसके बगल में बैठ गया, और कहा, " हनी। डार्लिंग। क्या तुम्हें बुद्धिमान आदमी चाहिए या सुंदर आदमी?" पत्रिका से नज़र हटाए बिना, उसने कहा, "दोनों में से कोई भी नहीं - मैं सिर्फ तुमसे प्रेम करती हूँ।"
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प्रेम संबंध जारी रखने के बजाय विवाह को कायम रखने की समझ उसमें थी। आइए हम आपकी भक्ति को देखें। पहले, आपने यह निष्कर्ष निकाला था कि भगवान है। अब आप यहाँ कार्यक्रम में आए और यह निष्कर्ष निकाला कि ईशा कर्म-केंद्रित है! कार्यक्रम के बाद एक बार जब आप चले जाएँगे, तो कौन जानता है कि आप क्या निष्कर्ष निकालेंगे। निष्कर्ष निकालना बंद करें। योग का मतलब है खोजना। खोज का मतलब है कि आपको एहसास हो गया है कि आप नहीं जानते। और आप अपने भीतर ईमानदारी के उस स्तर पर भी पहुँच गए हैं कि आप किसी चीज़ को सिर्फ़ इसलिए मानने को तैयार नहीं हैं क्योंकि वह इस मौके पर सुविधाजनक है।
एक धारणा से दूसरी धारणा
आपके समुदाय में, आपके परिवार में, भगवान में विश्वास करना सुविधाजनक है, या यूँ कहें कि जिस भगवान में वे सब विश्वास करते हैं, उसमें आपने भी कर लिया। फिर आप यहाँ आए और आपने सोचा, अगर आप “राम, राम,” “शिव, शिव,” या कुछ और कहते रहेंगे, तो लोग आप पर हँसेंगे। तो अब आप “कर्म-केंद्रित” हो गए हैं! आपको बदलने में कितना समय लगा? खुद के साथ ऐसा मत कीजिए। आप इतनी आसानी से बदल सकते हैं, इसका एकमात्र कारण है कि आप एक धारणा से दूसरी धारणा की ओर बढ़ रहे हैं, बजाय इसके कि आपके पास साधक बनने का साहस और प्रतिबद्धता हो। साधक होने का मतलब है यह स्वीकार करना कि आप नहीं जानते। आप नहीं जानते कि भगवान इस दुनिया पर राज करते हैं या कर्म इस दुनिया पर राज करता है - यह एक सच्चाई है।
शुरुआत में यह आपको डरावना लगेगा। लेकिन आप जिस भी चीज से डरते हैं, कुछ समय बाद आप उसके अभ्यस्त हो जाएंगे। मान लीजिए कि आप आग उगलने वाले ड्रैगन के साथ एक कमरे में बंद हैं। अगर आप जलकर मर नहीं गए हैं, तो तीन दिन बाद, धीरे-धीरे आप ड्रैगन से बातचीत शुरू कर देंगे। तो धारणाएँ मत बनाएँ या एक धारणा से दूसरी पर मत जाएँ। असलियत यह है कि आप नहीं जानते। यह आपको सुबह उठाकर योग कराएगा। कौन जानता है कि ऊपर स्वर्ग है या नर्क, भगवान है या शैतान। कम से कम आप जो जानते हैं वह है - आपका शरीर, आपका मन, आपकी ऊर्जा, आपकी भावना - उसे अच्छे से रखें।
मान लीजिए आप स्वर्ग जाते हैं - तो उसका आनंद लेने के लिए, आपको अच्छी हालत में होना चाहिए। मान लीजिए आप नरक जाते हैं - तो उसे झेलने और बचे रहने के लिए आपको अच्छी हालत में होना चाहिए! दोनों तरह से, आपको अच्छी हालत में होना चाहिए। और इस धरती पर रहने और अच्छी तरह जीने के लिए, आपको अच्छी हालत में भी होना चाहिए। तो, आप चाहे भगवान में विश्वास करें या न करें, आपको शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और ऊर्जा के लिहाज से अच्छी हालत में होना चाहिए।