भारत की मिट्टी को बचाते हुए भारत के किसानों को बचाना
5 दिसंबर विश्व मृदा दिवस है। आइए देखते हैं कि किस तरह कुछ किसानों ने कुछ प्रणालियां अपनाते हुए अपने जीवन को रूपांतरित किया है, जिन्होंने उनकी आमदनी बढ़ाने, सेहतमंद भोजन उगाने और मिट्टी को बचाने में मदद की है।
बच्चे की बीमारी किसी माता-पिता के लिए हमेशा एक बुरे सपने की तरह होता है। किसान पोनमुथु कोई अपवाद नहीं था। बार-बार बीमार होने के कारण उसके बच्चों की सेहत पर भारी असर पड़ रहा था और इसे लेकर वह और उसकी पत्नी बहुत चिंतित रहते थे। उसके बच्चे जिस पीड़ा और कष्ट को झेल रहे थे, वह इसका सिर्फ एक पहलू था। महंगे इलाज से पोनपुथु की परेशानियां और बढ़ गई थीं। सब्जी उगाने वाला एक छोटा किसान होने के कारण वह मुश्किल से किसी दिन दो जून की रोटी जुटा पाता था। जब बीमारी ने उसके बच्चों को जकड़ा, तो वह और उसकी पत्नी जो कुछ भी कर सकते थे, साथ मिलकर कोशिश करने लगे।
इस बीमारी की वजह कहीं दूर नहीं थी। वास्तव में वह पोनमुथु के अपने हाथ में थी। ‘मैं खुद अपने खेत में कीटनाशक छिड़कता था,’ पोनमुथु बताते हैं। ‘और जब मैं घर लौटता था, तो हालांकि मैं ठीक से अपने हाथ धोता था, अपने बच्चों के साथ खेलते समय या उन्हें खाना खिलाते समय मेरे दिमाग में हमेशा चिंता रहती थी।’ पोनमुथु के हाथ ही दोषी थे, मगर उनके हाथ बंधे हुए थे। ‘मैं हमेशा इसका समाधान खोजता रहता था,’ वह बताते हैं। ‘मगर कोई रास्ता नहीं दिखाई देता था।’
जानलेवा स्प्रे
भारत में कृषि मुख्य रूप से रसायन पर आधारित है। उवर्रकों को प्रचुर मात्रा में मिट्टी में डाला जाता है और बिना किसी जांच के कीटनाशकों का छिड़काव किया जाता है। किसान अक्सर इतने गरीब होते हैं कि वे पैसे बचाने के लिए खुद कीटनाशक छिड़कते हैं। सुरक्षा देने वाले कपड़ों और दस्तानों की बात उनके दिमाग में भी नहीं आती।
आप यह सोच सकते हैं कि खेत में इतना ‘उपचार’ खेती को एक लाभदायक उद्यम बना देगा। दुर्भाग्यवश, सच्चाई बहुत अलग है। इन रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की कीमत बहुत अधिक होती है। हालांकि पहले कुछ साल फसलों की उपज अधिक होगी, जल्दी ही वह घट जाएगी, जब मिट्टी अपनी सारी शक्ति खो देगी। फिर किसान को उपज बढ़ाने के लिए और अधिक रसायन डालने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिससे उसकी लागत और भी बढ़ जाती है।
कीट भी रसायनों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं, जिससे और अधिक या अलग कीटनाशकों की जरूरत पड़ती है। हर मौसम में किसान के लिए आमदनी नीचे की ओर जाने लगती है मगर लागत बढ़ने लगती है। जल्द ही किसान एक बंजर खेत, कर्ज और निराशाजनक भविष्य के भंवर में फंस जाता है। यह कोई हैरत की बात नहीं है कि भारत में 1995 के बाद से 300,000 किसानों ने आत्महत्या कर ली।
ढेर सारा गोबर!
मगर भारत में हज़ारों सालों से खेती हो रही है और इतने बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्याएं सिर्फ हाल में देखने को मिल रही हैं। तो पहले किसान किस तरह काम चलाते थे, जब तक खेती एक उद्योग नहीं बना था? इसका उत्तर गोबर में है।
आज ज्यादा सही शब्द होगा, जैविक कृषि या कुदरती खेती। मगर वह वास्तव में गोबर ही है – उपयोगी प्रकार का। पशुओं का अपशिष्ट – जिसमें गाय-बैलों का गोबर, बकरी का गोबर, आदि शामिल है – सही तरह से इस्तेमाल किए जाने पर मिट्टी को बहुत उपजाऊ बना देता है। यही काम पेड़ों का अपशिष्ट जैसे पत्ते और टहनियां करते हैं। पशुओं और पौधों का अपशिष्ट बाकी तत्वों के साथ-साथ मिट्टी के लिए बहुत जरूरी कार्बन तत्व की भरपाई करता है, जो न सिर्फ मिट्टी की उवर्रता बढ़ाता है, बल्कि जल को सोखने की क्षमता भी बढ़ाता है।
ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में मृदा विज्ञान के प्रोफेसर और संयुक्त राष्ट्र एकीकृत प्रबंधन संस्थान (यूनू-फ्लोरस) की सलाहकार समिति के प्रमुख रत्तन लाल बताते हैं कि अभी भारतीय खेती की समस्या क्या है। ‘जमीन को कुछ भी वापस नहीं मिलता, मिट्टी नष्ट हो जाती है,’ वह फसल को काटने और उसके बाद जड़ तथा ठंडल को जमीन में वापस डालने की बजाय जला देने की किसानों की आदत के संदर्भ में कहते हैं। ‘ऊपरी मिट्टी में कार्बन तत्व प्रति 100 ग्राम मिट्टी में 2 प्रतिशत होना चाहिए। मगर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जो देश के अन्न भंडार हैं, में ऊपरी मिट्टी में कार्बन तत्व मात्र 0.05% है,’ लाल कहते हैं।
बदलाव में कोई लागत नहीं
मृदा विज्ञान की ऐसी बारीकियां निश्चित रूप से पोनमुथु को उपलब्ध नहीं थीं, हालांकि उन्हें इनकी बहुत जरूरत थी। हालांकि भारत में कई कृषि शोध संस्थान हैं, यह विज्ञान अक्सर अनुवाद में खो जाता है और खेत तक पहुंचते-पहुंचते गायब हो जाता है।
फिर भी, प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स (पीजीएच) जैसे कई संगठन भारत के खेतों में कुदरती खेती की विधियां वापस लाने के लिए काम कर रहे हैं। 2015 में पोनमुथु पीजीएच द्वारा आयोजित कुदरती खेती पर सुभाष पालेकर की एक कार्यशाला में शामिल हुए। श्री पालेकर की विधि में रसायन मुक्त, कुदरती खेती है जिसमें किसान को कोई लागत नहीं लगती। यह एक समग्र, एकीकृत कृषि पद्धति है, जिसमें किसान अपने खेत से बाहर किसी चीज़ पर निर्भर नहीं होता।
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मिट्टी को उपजाऊ बनाने, कीटों पर काबू करने और उपज बढ़ाने के लिए कुदरती तरीके इस्तेमाल में लाए जाते हैं। किसान अपने लिए बीज भी खुद पैदा कर पाएगा और गाय के गोबर, गोमूत्र तथा अन्य पदार्थों का इस्तेमाल करते हुए कुदरती खाद बनाई जाती है। श्री पालेकर के अनुसार, तीस एकड़ जमीन पर खेती के इस तरीके को अपनाने के लिए एक किसान को बस एक देशी गाय की जरूरत होगी।
जबर्दस्त रूपांतरण
नतीजे सबके सामने हैं। श्री पालेकर की विधियां देश भर में सफल रही हैं और उनके प्रयासों के लिए 2016 में उन्हें पद्मश्री सम्मान दिया गया। अपनी खेती की तकनीक बदलने के बाद निजी जीवन में पॉनमुथु अब अधिक खुश हैं।
पॉनमुथु अपनी कार्यप्रणाली के बारे में बताते हैं जो कुदरती खेती तकनीक पर आधारित है, ‘मैं प्याज उगाता हूं, और उसकी फसल के बीच में मैं मूली, चुकंदर और मिर्च उगाता हूं। मैं रिले क्रॉपिंग भी करता हूं, इसलिए जब मूली कटने के लिए तैयार होती है, तो टमाटर में फल आने शुरू होते हैं। इससे मुझे साल भर आदमनी होती रहती है। रिले क्रॉपिंग विधि में कीड़ों के लगने और फसलों के बीमार होने की संभावना कम होती है।’ इन लाभों के अलावा, उन्हें जैविक उत्पाद दुकानों पर अपने उत्पादों के लिए बेहतर मूल्य भी मिल रहा है।
मगर शायद उनके दिल के सबसे करीब यह है कि उनके बच्चों की सेहत कैसे बदली। ‘जब मेरे बच्चे अपने ही खेत की रसायन से उगाई सब्जियां खा रहे थे तो वे बहुत बीमार पड़ते थे। अब जैविक रूप से उगाई सब्जियां खाने के बाद वे बहुत स्वस्थ हैं और बिल्कुल बीमार नहीं पड़ रहे। ईमानदारी से कहूं तो पिछले नौ महीने में बीमारियों पर होने वाला खर्च शून्य हो गया है।’
उम्मीद की किरण
दूसरे खेतों में भी ऐसे चमत्कार हो रहे हैं। प्याज के एक छोटे से खेत वाली देवी कहती हैं, ‘पालेकर जी के रूप में मेरे जीवन में उम्मीद की एक किरण आई। जब मैं रसायन वाली खेती करती थी तो 70 दिन की प्याज की फसल में मैं तेरह बार रासायनिक खाद डालती थी। मेरी कमाई नहीं हो रही थी क्योंकि खर्च लगभग आमदनी के बराबर हो जाता था। वास्तव में कई बार मुझे दूसरे स्रोतों से पैसा लगाना पड़तिा था।’ कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि देवी अक्सर सोचती थी कि क्या खेती इस लायक है या उसे छोड़ देना चाहिए।
मगर कुदरती खेती ने यह सब बदल दिया है। पॉनमुथु की तरह अधिक आमदनी के अलावा, देवी दूसरे फायदे भी बताती हैं। ‘जब रसायनों के इस्तेमाल से प्याज उगाया जाता है, तो वह 15 दिन में सड़ने लगता है। लेकिन कुदरती तरीकों से यह 4 महीने तक ठीक रहता है। पानी की जरूरत और खर्च कम हो गया है। चाहे फसलों की सिंचाई में देरी हो जाए, फिर भी पौधे उस तरह नहीं मुरझाते जैसे पहले मुरझा जाते थे।’ देवी का खेत उसके इलाके में आकर्षण का केंद्र बन गया है – जिसकी शुरुआत उसके पति से हुई। ‘मेरे पति जो एक ड्राइवर हैं, अब अपना खाली समय खेत में देना चाहते हैं। बहुत से लोग मेरे खेत में यह देखने आते हैं कि हम कौन से तरीके अपना रहे हैं।’
कीटों का नाश
मिट्टी की उवर्रता बढ़ाने के अलावा, खेती की कुदरती तकनीकें कीटों का मुकाबला करने में भी बहुत कारगर हैं। हाल में कुदरती खेती को अपनाने वाले एक और शख्स जगदीश कहते हैं, ‘एक मिलीमीटर आकार के कीट, थ्रिप्स, जो पौधे के नर्म पत्तों और कोंपलों को खा जाते हैं, रासायनिक खेती में एक आम समस्या हैं। आम तौर यह माना जाता है कि कीटनाशक इस्तेमाल न करने पर आप फसलों को इन कीटों से नहीं बचा सकते।’ मगर जगदीश ने कुदरती खेती की तकनीकों से नीम के बीजों के सॉल्यूशन का इस्तेमाल करते हुए अपनी प्याज की फसल को इन कीटों से मुक्त रखा है।
देवी एक और वजह बताती हैं कि कुदरती खेती कीटों को कैसे दूर रखती है। चूंकि कुदरती खेती में एक ही फसल की खेती की बजाय कई फसलों को लगाने का सुझाव दिया जाता है, वह कहती हैं, ‘मेरे प्याज के खेत में रागी और दूसरे मोटे अनाज उगते हैं, इसलिए उन्हें खाने के लिए ढेर सारी चिड़िया आती हैं। ये चिड़ियां बहुत से कीटों को भी खा जाती हैं।’ रिले क्रॉपिंग जैसी तकनीकें भी मददगार होती हैं।
मगर सबसे बढ़कर, जैविक खेती ने किसानों को यह महसूस कराया है कि खेती करना लाभदायक है। ‘मैं खुश हूं कि मेरे बच्चों को जैविक सब्जियां मिलती हैं और मैं लोगों के लिए भी यह उगा पाता हूं,’ पॉनमुथु कहते हैं, जबकि देवी बताती हैं कि कैसे कुदरती खेती ने खेती के प्रति उनके नजरिये को बदल दिया है। ‘कुदरती खेती ने हमें यह आत्मविश्वास दिया है कि हम खेती करते हुए सफलतापूर्वक अपनी जीविका अर्जित कर सकते हैं।’
आइए अपनी मिट्टी को बचाएं
हम मिट्टी पर ध्यान नहीं देते मगर पृथ्वी पर ऊपरी मिट्टी की पतली परत ही हमारे लगभग सारे भोजन का स्रोत है। उसे हटा दीजिए और फिर इसके परिणाम की कल्पना कीजिए। और वह भारी मात्रा में हट रही है। खराब कृषि तकनीकें मिट्टी को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचा रही है – भारत अकेले साल भर में 530 करोड़ टन मिट्टी खो देता है और सिर्फ रसायन आधारित खेती का जहर बचता है।
हमारी मिट्टी को बचाना भी ईशा फाउंडेशन की नदी अभियान पहल का एक हिस्सा है। नदी अभियान नीति दस्तावेज सिफारिश करता है कि किसानों को कुदरती, पेड़ आधारित खेती की ओर जाने के लिए सहायता दी जानी चाहिए, जो किसानों के लिए अधिक फायदेमंद और मिट्टी तथा नदियों के लिए लाभदायकहै। नदी अभियान ने महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में बड़े पैमाने की परियोजना शुरू की है और ऐसे ही कार्यक्रम लागू करने के लिए पांच और राज्यों के साथ भी समझौता ज्ञापन किया है।
कुदरती खेती प्रशिक्षण कार्यक्रम
पीजीएच का ईशा कृषि आंदोलन कुदरती खेती प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित करता है। अगला अंग्रेजी/तमिल कार्यक्रम 2-10 फरवरी 2019 में त्रिची, तमिलनाडु में होगा। यह नौ दिवसीय सुभाष पालेकर नेचुरल फार्मिंग (एसपीएनएफ) कार्यक्रम होगा। इसे तमिल में लाइव अनुवाद के साथ अंग्रेजी में आयोजित किया जाएगा। इसमें भाग लेने वाले किसानों को पूरा प्रशिक्षण दिया जाएगा और कार्यशाला पूरा होने पर वे खुद इसका अभ्यास कर पाएंगे। अधिक जानकारी के लिए प्रोग्राम फॉर्म डाउनलोड करें।
अगर आप किसान नहीं हैं और सिर्फ हमारी मिट्टी/नदियों/पेड़ों/पृथ्वी को बचाने में हमारे साथ जुड़ना चाहते हैं, तो RallyforRivers.org और ProjectGreenHands.org पर आएं ताकि आप जान सकें कि आप अलग-अलग प्रयासों में कैसे स्वयंसेवा कर सकते हैं।
मिट्टी को जानें, जीवन को जानें
अपने कीटनाशकों को जानें
वियतनाम युद्ध में झाड़ियों को साफ करने और शत्रु के छिपने के ठिकानों का पता लगाने के लिए इस्तेमाल किया गया जहरीला रसायन ‘एजेंट ऑरेंज’ अब कई विकासशील देशों में एक हर्बीसाइड (तृणनाशक) के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसके बावजूद कि यह रसायन प्रोस्टेट कैंसर, श्वसन संबंधी कैंसर, मल्टीपल माइलोमा, टाइप II डायबिटीज, हॉजकिंस डिजीज और कई और रोगों का कारण हो सकता है।
कई कीटनाशक अमेरिका और यूरोप में बनाए जाते थे जहां गोला-बारूद बनाने वाली इकाइयों को खाद और कीटनाशक बनाने वाले प्लांटों में बदल दिया गया।
नाज़ियों द्वारा अपने कुख्यात गैस चैंबरों में इस्तेमाल किया जाने वाला रसायन ज़ायक्लॉन बी मूल रूप से एक कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल के लिए तैयार किया गया था। आज दुनिया में कहीं भी उसका प्रयोग नहीं होता है।
भारत में कीटनाशक का उपयोग 1950 में 2330 टन से बढ़कर 2010-11 में 81,000 टन हो गया, जो फूड चेन में इन रसायनों का प्रचलन भारी रूप से बढ़ाता है।
स्वीडन में हुए एक अध्ययन में, जब एक परिवार ने जैविक भोजन खाया तो शरीर में कीटनाशकों के अवशेष का जमाव पारंपरिक रूप से उगाए भोजन की तुलना में औसतन 6.7 के गुणन में घट गया।CimmyT/Flickr