पिछले ब्लॉग में आपने पढ़ा कि भीष्म पितामह राजकुमारियों का अपहरण कर लेते हैं और उन्हें विचित्रवीर्य के पास ले आते हैं। पर विचित्रवीर्य अम्बा से शादी करने से मना कर देता है, अब आगे...

अम्बा की निराशा, हताशा में बदल गई, हताशा गुस्से में, गुस्सा तीव्र क्रोध में और फिर उसका तीव्र क्रोध, प्रतिशोध की प्यास में बदल गया। वह जगह-जगह जाकर कहने लगी, ‘इस इंसान ने मेरा जीवन बर्बाद कर दिया। क्या कोई योद्धा है, जो इसकी जान ले सके?’ भीष्म के एक महान योद्धा होने के कारण कोई भी उनसे युद्ध नहीं करना चाहता था।

एक और पहलू यह है कि जब भीष्म ने कभी विवाह न करने का प्रण लिया और खुद को संतानोत्पत्ति के अयोग्य बना लिया, तो शांतनु ने कहा, ‘तुमने आज मेरे लिए जो किया है, उसके बदले मैं तुम्हें एक वरदान देता हूं। मैंने एक तपस्या की है। इस साधना से मुझे जो भी पुण्य और ऊर्जा मिली है, उसे मैं तुम्हारे लिए एक वरदान में बदल दूंगा। इस जीवन में अपनी मृत्यु का समय तुम खुद चुन सकोगे।  तुम कब मरोगे – यह तुम स्वयं तय करोगे, कोई दूसरा नहीं।’ यह वरदान मिले होने के कारण और महान योद्धा होने के कारण, कोई भीष्म से टक्कर नहीं लेना चाहता था।

कार्तिकेय का अम्बा को वरदान

अम्बा हिमालय पर जाकर घोर तपस्या में लग गई। उसने सोचा कि शिव के पुत्र कार्तिकेय, जो एक महान योद्धा थे, वही भीष्म का वध कर सकते हैं। बर्फीली चोटियों पर बैठकर उसने गहन साधना की और कार्तिकेय का ध्यान किया। उसकी तपस्या से खुश होकर कार्तिकेय प्रकट हुए। जब अम्बा ने उनसे भीष्म का वध करने का अनुरोध किया, तो उन्होंने जवाब दिया, ‘मैंने हिंसा छोड़ दी है।’ इससे पहले, न्याय की खोज में, कार्तिकेय दक्षिण की ओर चले गए थे और उन्हें जो भी अन्यायपूर्ण लगा, उसका वध कर दिया था।

परशुराम ने भीष्म को बुलाया। भीष्म ने आकर उनके सामने दण्डवत किया। परशुराम बोले, ‘तुम्हारा शपथ और ये फिजूल की बातें बहुत हुईं। इस स्त्री से विवाह करो।’
फिर वह उस जगह पहुंचे जो आज कर्नाटक में सुब्रह्मण्या के नाम से जानी जाती है। वहां उन्होंने अपनी तलवार को धोकर यह प्रतिज्ञा की, ‘यह तलवार फिर कभी रक्त से नहीं सनेगी।’ उन्होंने हिंसा त्याग दी और पहाड़ पर चले गए, जिसे आज कुमार पर्वत के रूप में जाना जाता है। वहां उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।

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जब अम्बा ने कार्तिकेय को पुकारा तो वह इसी अशरीरी अवस्था में प्रकट हुए और कहा, ‘मैंने हिंसा त्याग दी है। मैं भीष्म को नहीं मार सकता। मगर तुम्हारी प्रतिज्ञा और तुम्हारी भक्ति को देखते हुए, मैं तुम्हें एक वरदान देता हूं।’ उन्होंने अम्बा को कमल के फूलों की एक माला दी और कहा, ‘इस माला को लो। इस माला को पहनने वाला भीष्म का वध कर सकता है।’ उन्होंने उसे कभी न मुरझाने वाले कमल के फूलों की माला दी।

परशुराम और भीष्म का द्वंद्व

दिल में बहुत आशा और अपने हाथों में फिर से एक माला लिए, अम्बा शहर-शहर, गांव-गांव भटकती रही और किसी ऐसे इंसान को खोजती रही, जो इस माला को पहनकर भीष्म को मारने के लिए तैयार हो। कोई व्यक्ति उसे छूने को भी तैयार नहीं था। फिर वह परशुराम की खोज में चली, जिन्होंने भीष्म को हथियारों और खास तौर पर तीरंदाजी की शिक्षा दी थी। जब उसने परशुराम के आगे दण्डवत करके अपनी प्रतिज्ञा के बारे में बताया, तो परशुराम ने कहा, ‘तुम चिंता मत करो। मैं सब ठीक कर दूंगा।’

शिव ने कहा, ‘क्या यह सबसे अच्छा नहीं होगा कि तुम खुद भीष्म को मारो? फिर तुम और अच्छी तरह प्रतिशोध ले सकोगी।’ अचानक उसकी आंखें चमक उठीं।
परशुराम ने भीष्म को बुलाया। भीष्म ने आकर उनके सामने दण्डवत किया। परशुराम बोले, ‘तुम्हारा शपथ और ये फिजूल की बातें बहुत हुईं। इस स्त्री से विवाह करो।’ पहली बार, भीष्म ने कहा, ‘आप मेरे गुरु हैं। अगर आप मुझे अपना ही सिर काटने का आदेश दें तो मैं अपना सिर काट कर पेश कर सकता हूं। मगर मुझसे अपना प्रण तोड़ने के लिए मत कहिए।’

इस पूरी कहानी में आपको ऐसे बहुत से लोग मिलेंगे, जिन्होंने कोई प्रतिज्ञा की और वे किसी भी हालत में अपने वचन से पीछे नहीं हटना चाहते थे। उन दिनों सभ्यता का विकास हो रहा था। कोई लिखित संविधान, लिखित कानून नहीं था। ऐसी स्थिति में, किसी व्यक्ति का वचन सबसे महत्वपूर्ण चीज होती थी। जब कोई औपचारिक कानून नहीं होता, तो व्यक्ति का वचन ही कानून होता है। जब कोई वचन देता था, तो वह उसकी रक्षा के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता था। वचन तोड़ने वाले व्यक्ति की कोई इज्जत नहीं होती थी और उसे किसी लायक नहीं समझा जाता था। इसलिए, भीष्म बोले, ‘मेरे गुरु, अगर आप चाहें तो आपके लिए मैं अपना सिर काट सकता हूं, मगर अपना वचन नहीं तोड़ सकता।’

परशुराम को अवज्ञा किए जाने की आदत नहीं थी। वह घोर आज्ञाकारी थे। जब उनके पिता ने उनसे अपने तीन भाइयों और माता का सिर काटकर लाने के लिए कहा था, तो उन्होंने बिना सोचे-समझे, चारों का सिर काट दिया था। उनके आज्ञापालन से खुश होकर उनके पिता ने कहा, ‘मैं तुम्हें एक वरदान देता हूं। बोलो, तुम क्या चाहते हो?’ परशुराम ने कहा, ‘मैं चाहता हूं कि आप मेरी माता और मेरे भाइयों को जीवित कर दें।’ और वे सब फिर जीवित हो गए। इस माहौल में बड़े होने के कारण, परशुराम किसी भी हालत में अवज्ञा को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। जब उन्होंने देखा कि भीष्म उनकी आज्ञा का पालन नहीं कर रहे हैं, तो वे गुस्से में आ गए। वैसे भी परशुराम महाक्रोधी माने जाते हैं। पहले जब क्षत्रियों ने उनके वंश का अपमान किया था, तो उन्होंने सभी क्षत्रियों की हत्या करने की शपथ ली थी। कहते हैं कि उन्होंने मारे गए क्षत्रियों के खून से पांच तालाब बनाए। बाद में क्षत्रियों का मानना था कि इन तालाबों में डुबकी लगाने से वे अजेय योद्धा बन सकते हैं।

जब अम्बा ने कार्तिकेय को पुकारा तो वह इसी अशरीरी अवस्था में प्रकट हुए और कहा, ‘मैंने हिंसा त्याग दी है। मैं भीष्म को नहीं मार सकता। मगर तुम्हारी प्रतिज्ञा और तुम्हारी भक्ति को देखते हुए, मैं तुम्हें एक वरदान देता हूं।’
परशुराम और भीष्म के बीच द्वंद युद्ध हुआ जो असाधारण था। परशुराम ने भीष्म को उन सब चीजों की शिक्षा दी थी, जो वह जानते थे। दोनों लगातार कई दिनों तक आपस में लड़ते रहे। आखिरकार उन्हें लगा कि दोनों में से कोई भी दूसरे को नहीं हरा सकता। आखिरकार परशुराम ने अपने हाथ खड़े कर दिए और अम्बा से कहा, ‘भीष्म को मारने के लिए तुम्हें किसी और को ढूंढना होगा।’

माला के साथ अम्बा का सफर जारी रहा। चलते-चलते वह द्रुपद के दरबार में आई। द्रुपद पांचाल देश के राजा थे, जो उस समय भारतवर्ष का दूसरा सबसे बड़ा साम्राज्य था। उसने द्रुपद से कहा कि वह उस माला को ग्रहण करें और भीष्म को मार डालें। द्रुपद उस माला को छूना भी नहीं चाहते थे और अम्बा के आस-पास भी नहीं फटकना चाहते थे क्योंकि तब तक भीष्म के खून की प्यास लिए गांव-गांव, शहर-शहर में उसके घूमने की चर्चा चारो ओर हो रही थी। जब द्रुपद ने उससे मिलने से मना कर दिया, तो घोर निराशा में उसने कार्तिकेय की दी हुई उस माला को द्रुपद के महल के एक स्तंभ पर टांग दिया और वहां से चली गई। द्रुपद इस माला से इतने भयभीत थे कि उन्होंने किसी को उस माला को नहीं छूने दिया। हर दिन उसके आगे दीप जलाकर माला की पूजा की जाती मगर कोई उससे कोई मतलब नहीं रखना चाहता था।

शिव से मिला वरदान

एक बार फिर से हताश-निराश अम्बा सीधे हिमालय पर चली गई। वह वहां बैठकर घोर तप करने लगी। धीरे-धीरे उसका सुंदर शरीर हाड़-मांस में बदल गया। वह शिव को पुकारने लगी। शिव स्वयं उसके सामने प्रकट हुए। वह बोली, ‘आपको भीष्म को मारना ही होगा।’ शिव ने कहा, ‘क्या यह सबसे अच्छा नहीं होगा कि तुम खुद भीष्म को मारो? फिर तुम और अच्छी तरह प्रतिशोध ले सकोगी।’ अचानक उसकी आंखें चमक उठीं। वह बोली, ‘मगर कैसे? मैं एक स्त्री हूं और वह एक महान योद्धा हैं। मैं उन्हें कैसे मार सकती हूं?’ शिव बोले, ‘मैं तुम्हें वरदान दूंगा कि अपने अगले जन्म में तुम उन्हें मार पाओगी।’ फिर अम्बा ने पूछा, ‘मगर अगले जन्म में मुझे यह सब याद नहीं रहेगा। फिर मैं बदले का आनंद कैसे ले पाऊंगी?’ शिव बोले, ‘चिंता मत करो। मैं यह सुनिश्चित कर दूंगा कि समय आने पर तुम्हें सब कुछ याद आ जाएगा। तुमने जो कुछ सहा है, उसके लिए प्रतिशोध लेने का आनंद तुम्हें मिलेगा।’ फिर अम्बा ने अपना शरीर त्याग दिया। और वह वापस भी आई। आगे जारी...