सद्‌गुरुमहाभारत में अब तक : इस श्रृंखला के पिछली कड़ी में आपने पढ़ा, देवों और असुरों में लगातार लड़ाई चल रही थी, जिसमें देवों की हार हो रही थी, क्योंकि मरने वाले असुरों को शुक्राचार्य फिर से जीवित कर रहे । देवों के गुरु वृहस्पति का पुत्र कच शुक्राचार्य के पास गया ताकि उनसे पुनर्जीवन के लिए संजीवनी की शक्ति हासिल कर सके। शुक्राचार्य कच को संजीवनी की शक्ति तो दे देते हैं, लेकिन शर्त के अनुसार शक्ति मिलने के बाद कच को वहां से चले जाना था। इस बीच शुक्राचार्य की बेटी देवयानी कच से प्रेम करने लगी थी। कच चलने ही वाला था कि देवयानी ने उससे न जाने की प्रार्थना की। मगर कच ने रुकने से इंकार कर दिया और चला गया।

अब आगे :

देवयानी की एक पक्की सहेली थी – शर्मिष्ठा, जो असुरों के राजा वृषपर्वा की बेटी थी। एक बार एक ऐसी घटना घटित हुई जिसने एक तरह से कुरु वंश को जन्म दिया। एक दिन दोनों युवतियां स्नान करने के लिए नदी तक गईं। शर्मिष्ठा असुरों की राजकुमारी थी और देवयानी गुरु शुक्राचार्य की बेटी थी। इसका मतलब था कि वह ब्राह्मण कुल की थी, जिसका सामाजिक स्तर उस समय सबसे ऊंचा माना जाता था। इसलिए जब दोनों युवतियां स्नान करने गईं, तो उन्होंने अपने कपड़े और आभूषण उतार कर अलग-अलग रखे।

वे नदी में क्रीड़ा कर रही थीं। तभी तेज हवा चली और उनके कपड़े उड़कर आपस में मिल गए। जब दोनों नदी से बाहर निकलीं, तो कपड़े पहनने की जल्दबाजी में शर्मिष्ठा ने गलती से देवयानी के कपड़े पहन लिए। फिर थोड़े मजाक में और थोड़ी अपनी श्रेष्ठता जताने के लिए, देवयानी ने कहा, ‘अपने पिता के गुरु की बेटी के कपड़े तुमने कैसे पहन लिए? ऐसा करके तुम्हें कैसा लग रहा है? ये बताओ, ऐसा करना क्या सही है?’

शर्मिष्ठा को अपनी गलती का अंदाजा हो गया। मगर राजकुमारी होने के कारण उसे गुस्सा आ गया। वह बोली, ‘तुम्हारे पिता भिखारी हैं। वह मेरे पिता के सामने सिर झुकाते हैं। तुम लोग मेरे पिता के दिए टुकड़ों पर पलते हो। तुम्हें अपनी जगह पता होनी चाहिए।’ और उसने देवयानी को एक गड्ढ़े में धक्का दे दिया। देवयानी गिर पड़ी। शर्मिष्ठा उसे वहीं छोड़कर चली गई।

जब देवयानी घर लौटी, तो वह अपने पिता की गोद में सिर रखकर रोने लगी, वह प्रतिशोध लेना चाहती थी। उसने कहा, ‘आपको इस राजकुमारी को सबक सिखाना ही होगा।’ शुक्राचार्य ने मांग की कि उनकी बेटी का अपमान करने के बदले राजकुमारी को देवयानी की दासी बनना होगा। राजा के पास कोई चारा नहीं था क्योंकि मृतकों को जीवित कर सकने वाले शुक्राचार्य के बिना वे कुछ नहीं कर पाते।

यादव कुल के पहले राजा – यदु

महाभारत की कहानी में हर कहीं श्राप और वरदान देखने को मिलते हैं। मगर आपको पता नहीं चलेगा कि कहां श्राप ही वरदान बन जाता है या वरदान कहां श्राप बन जाता है। क्योंकि चीजों को उलझा देने का जीवन का अपना तरीका होता है। एक श्राप, वरदान बन सकता है और एक वरदान, श्राप बन सकता है। तो, शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनने का श्राप मिला। इसके बाद देवयानी का विवाह ययाति से तय हुआ। उसने आग्रह किया कि शर्मिष्ठा उसकी खास दासी बनकर उसके साथ उसके ससुराल जाएगी।

देवयानी शर्मिष्ठा से अपना बदला ले चुकी थी और उसे अब बात को और तूल नहीं देना चाहिए था। मगर वह शर्मिष्ठा को और सताना चाहती थी। शादी के बाद शर्मिष्ठा दासी बनकर उसके साथ चली गई। ययाति और देवयानी पति-पत्नी के रूप में साथ रहने लगे। कुछ समय बाद उनका एक पुत्र हुआ, जिसका नाम यदु था। यादव इसी यदु के वंशज हैं।

Subscribe

Get weekly updates on the latest blogs via newsletters right in your mailbox.

हालांकि शर्मिष्ठा देवयानी की दासी थी, मगर राजकुमारी होने के कारण उसकी एक खास शान थी। उसने खुद को देवयानी से ज्यादा आकर्षक बना लिया। जैसा कि होना ही था, ययाति उसके प्रेम में पड़ गए। उन दोनों के बीच गुपचुप प्रेम संबंध बन गए और उनका एक बच्चा हो गया। वह बच्चा पुरु था, जो कुरु वंश का एक जनक बना। इन्हें लेकर और भी दिलचस्प कहानियां हैं, मगर हमें समय का ध्यान रखना होगा।

ययाति का बड़ा पुत्र होने के नाते स्वाभाविक रूप से यदु को राजा बनना चाहिए था मगर एक गलत आचरण की वजह से वह राजा नहीं बन पाया। जब शुक्राचार्य को पता चला कि ययाति ने उनकी बेटी को धोखा दिया है और दासी से बच्चा पैदा किया है, तो उन्होंने ययाति को श्राप दे दिया - ‘तुम अपनी युवावस्था खो दोगे।’ श्राप के कारण ययाति बूढ़ा हो गया। वह परिस्थिति से समझौता नहीं कर पा रहा था। जब यदु युवा हुआ, तो ययाति ने उससे पूछा, ‘तुम मुझे अपनी जवानी दे दो और कुछ साल तक उसका सुख भोगने दो। फिर मैं उसे वापस तुम्हें दे दूंगा।’ यदु ने कहा, ‘ऐसा नहीं हो सकता। आपने पहले मेरी मां को धोखा दिया। अब आप मेरी जवानी लेकर मुझे छलना चाहते हैं। मैं ऐसा नहीं करूंगा।’ फिर ययाति ने यदु को श्राप दे दिया, ‘तुम कभी राजा नहीं बनोगे।’

ययाति के दूसरे पुत्र पुरु, जो शर्मिष्ठा के बेटे थे, ने अपनी इच्छा से अपने पिता को अपनी जवानी देनी चाही। उसने कहा, ‘आप युवावस्था का आनंद लीजिए। मेरे लिए वह कोई मायने नहीं रखता।’ ययाति फिर से युवा हो गए और कुछ समय तक एक युवक के रूप में रहे। जब उन्हें लगा कि अब उन्हें जवानी की जरूरत नहीं है, तो उन्होंने अपने बेटे पुरु को जवानी वापस कर दी और उसे राजा बना दिया।

कुरु वंश के राजा विश्वामित्र

पुरु से कुछ पीढ़ी बाद, उसी वंश में एक राजा विश्वामित्र हुए, जिन्हें कौशिक भी कहा जाता था। ऋषि-मुनियों की शक्ति को देखते हुए, उन्हें किसी वजह से ऐसा लगा कि राजाओं की शक्ति उनके मुकाबले बहुत कम है। इसलिए वह राजा के रूप में जन्म लेने के बावजूद ऋषि बनना चाहते थे। उन्होंने वन जाकर घोर तपस्या शुरू कर दी।

उनके घोर तप को देखते हुए, इंद्र को लगा कि अगर विश्वामित्र ने अपनी मनचाही चीज पा ली, तो उनकी श्रेष्ठता खतरे में पड़ जाएगी। इसलिए उन्होंने अपनी एक अप्सरा मेनका को भेजा। मेनका का काम विश्वामित्र को मोहित करके उनका तप और उनकी साधना भंग करना था। वह इसमें सफल हुई और उसने विश्वामित्र की बेटी को जन्म दिया।

कुछ समय बाद, विश्वामित्र को लगा कि उन्होंने अपनी साधना से जो कुछ पाया था, उसे वह अपना ध्यान भंग होने के कारण खो चुके हैं। वह कुपित होकर मां और बेटी दोनों को वहीं छोड़कर चले गए। मेनका एक अप्सरा थी, वह संसार में कुछ ही समय तक रह सकती थी। वह वापस जाना चाहती थी। वह बेटी को उसके पिता के पास नहीं छोड़ सकती थी क्योंकि उसका पिता उसे अपनाने के लिए तैयार नहीं था। इसलिए वह बच्ची को मालिनी नदी के किनारे छोड़कर चली गई।

शकुंतला का आगमन

वहां कुछ शकुन पक्षियों ने इस नन्हीं सी बच्ची को देखा और उन्होंने उसे दूसरे जीवों से बचाकर रखा। एक दिन, कण्व ऋषि वहां से गुजरे तो उन्होंने इस विचित्र स्थिति को देखा, जहां एक नन्हीं सी बच्ची पक्षियों की सुरक्षा में पल रही थी। वह बच्ची को उठाकर अपने आश्रम ले आए और उसका पालन-पोषण किया। शकुन पक्षियों द्वारा बचाए जाने के कारण, उन्होंने उस बच्ची का नाम शकुंतला रखा। वह बड़ी होकर एक खूबसूरत युवती बनी।

एक दिन राजा दुष्यंत एक अभियान पर निकले। लड़ाई से वापस आते समय उन्होंने देखा कि उनके सैनिकों को भूख लगी है। उन्होंने जंगल में जाकर ढेर सारे जानवरों का शिकार किया, ताकि उनके सैनिकों का पेट भर सके। जब उन्होंने एक विशाल नर हिरण पर तीर चलाया तो तीर जाकर लगा मगर फिर भी हिरण भाग गया। दुष्यंत ने उसका पीछा किया तो देखा कि वह शकुंतला की गोद में था। वह शकुंतला का पालतू हिरण था और वह बहुत प्यार से उसकी मरहमपट्टी कर रही थी। यह देखकर दुष्यंत शकुंतला के प्रेम में पड़ गए। वह कुछ समय तक वहीं रहे और कण्व ऋषि की अनुमति से उन्होंने शकुंतला से विवाह कर लिया।

अब दुष्यंत के वापस जाने का समय आ गया था। उनकी पूरी सेना जंगल के बाहर उनका इंतजार कर रही थी। उन्होंने शकुंतला से कहा कि वह अपने राज्य की व्यवस्था देखकर उसके पास वापस आ जाएंगे। उन्होंने अपनी यादगार निशानी के रूप में और विवाह के चिह्न के रूप में अपनी शाही अंगूठी निकालकर शकुंतला को पहना दी। स्वाभाविक रूप से वह शकुंतला की उंगली में ठीक से नहीं आई। इसके बाद दुष्यंत ‘मैं वापस आऊंगा’ कहते हुए चला गए। शकुंतला लगातार सपने में खोई रहने लगी। यह वन कन्या अचानक से एक रानी बन गई थी।

एक दिन दुर्वासा ऋषि कण्व के आश्रम आए। वह बहुत क्रोधी पुरुष थे। उन्होंने शकुंतला को बुलाया मगर शकुंतला ने सुना नहीं। उसकी आंखें खुली थीं, मगर वह कुछ देख नहीं पा रही थी। दुर्वासा ने इसे अपना अपमान समझा और बोले, ‘अभी तुम जिसके ख्यालों में खोई हो, वह तुम्हें सदा के लिए भूल जाए।’ अचानक शकुंतला को होश आया और वह रोने लगी, ‘ऐसा नहीं हो सकता! आपने ऐसा क्यों किया?’

आश्रम के लोगों ने दुर्वासा को बताया कि शकुंतला की शादी राजा से हो गई है और वह उसका इंतजार कर रही है कि वह वापस आकर उसे साथ ले जाएं। वह दिवास्वप्न में खोई थी, इसलिए उसे माफ कर दीजिए। तब तक वे दुर्वासा की खातिरदारी कर चुके थे, जिससे उनका क्रोध उतर चुका था। वह बोले, ‘ठीक है, मैं इसे सुधारने की कोशिश करता हूं। हां, वह तुम्हें भूल गया है मगर जैसे ही तुम उसे कोई ऐसी चीज दिखाओगी, जो उसे तुम्हारी याद दिलाए, तो उसे याद आ जाएगा।’

शकुंतला राजा का इंतजार करती रही मगर दुष्यंत नहीं आया। उसका एक बेटा हुआ, जिसका नाम भरत रखा गया। उसी के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा क्योंकि इस सम्राट में बहुत सारे गुण थे। वह एक आदर्श इंसान था।

सम्राट भरत का बचपन

भरत जंगल में ही बड़ा हुआ। एक दिन कण्व ऋषि ने शकुंतला से कहा, ‘तुम्हें जाकर राजा दुष्यंत को याद दिलाना चाहिए कि तुम उसकी पत्नी हो और तुम्हारा एक बेटा है। यह अच्छी बात नहीं है कि एक राजा का पुत्र अपने पिता के बिना बड़ा हो रहा है।’ शकुंतला अपने बेटे को लेकर महल के लिए चल पड़ी। उन्हें एक नदी पार करनी थी। वह अब भी प्रेम में खोई हुई थी। जब वे नाव से नदी पार कर रहे थे, तो उसने पानी को छूने के लिए अपना हाथ निकाला और वह अंगूठी, जो उंगली से बड़ी थी, नदी में गिर गई। उसे इस बात का पता भी नहीं चला।

उसे राजाओं और महलों के तौर-तरीके पता नहीं थे। जब राजा के दरबार में दुष्यंत ने पूछा, ‘तुम कौन हो?’ तो वह बोली, ‘आपको याद नहीं है? मैं आपकी पत्नी शकुंतला हूं। यह आपका बेटा है।’ दुष्यंत गुस्से में आकर बोले, ‘तुम्हारी ऐसा कहने की हिम्मत भी कैसे हुई?’ उसे महल से बाहर निकाल दिया गया। वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या हुआ। ‘वह मुझसे इतना प्रेम करते थे और अब मुझे पूरी तरह भूल चुके हैं।’

वह निराश होकर वापस चली गई। पहली बार उसका समाज से पाला पड़ा था और यह नतीजा निकला था। वह आश्रम के पीछे और भी घने जंगल में चली गई और अपने बेटे के साथ वीराने में रहने लगी। भरत जंगली जानवरों के साथ बड़ा हुआ। वह बहुत बहादुर और शक्तिशाली था। वह उस धरती का एक हिस्सा था, जिस पर वह रहता था।

एक दिन दुष्यंत इस जंगल में शिकार खेलने आए। उन्होंने एक छोटे बच्चे को बड़े शेरों के साथ खेलते, हाथियों पर चढ़ते देखा। उन्होंने बच्चे को देखकर पूछा, ‘तुम कौन हो? क्या तुम किसी तरह के महामानव हो? क्या तुम देवता हो? क्या तुम कहीं और से आए हो?’ बच्चा बोला, ‘नहीं, मैं भरत हूं, दुष्यंत का पुत्र।’ राजा बोला, ‘मैं ही दुष्यंत हूं। फिर मैं भला तुम्हें कैसे नहीं जानता?’ फिर कण्व ऋषि आए और उन्हें पूरी कहानी बताई। आखिरकार दुष्यंत को सब कुछ याद आ गया और वह शकुंतला तथा भरत को लेकर महल लौट गए।

आगे जारी. . .