एक आकर्षण

स्वामी सुयग्न: ये वर्ष 1996 की घटना है। अपने कार्यालय की कैंटीन में, मैं अपने एक साथी कर्मचारी के साथ दोपहर का भोजन कर रहा था। बातचीत के दौरान उसने मुझे पूछा, "अरे! शहर में किन्हीं सद्‌गुरु जग्गी वासुदेव द्वारा एक नया योग कार्यक्रम होने जा रहा है। क्या तुम जाना पसंद करोगे"?

"ये सब योग कार्यक्रम भाड़ में जायें, मैंने बहुत कर लिये हैं", मैंने कहा। मैंने पहले ही विपासना, वेट्ठिरी कुंडलिनी, विवेकानंद योग और कुछ अन्य ऐसे ही कार्यक्रमों में भाग लिया था और तब तक इन आध्यात्मिक प्रयासों से कुछ थक सा गया था। लेकिन मेरे साथी ने एक और प्रयास करने का निश्चय लिया और वो सद्‌गुरु की इस 13 दिवसीय कक्षा में गया।

पहले 3 - 4 दिनों तक, वह कक्षा की कई चीजों की आलोचना करता रहा। रोज़ सुबह वहाँ जाने के बारे में उसका सुर शिकायती होता था। पर जैसे जैसे दिन गुज़रते गये, वो शांत होता गया। एक सप्ताह के बाद मुझे विचार आया, "ये अब ज्यादा शिकायतें नहीं कर रहा"। वास्तव में, कार्यक्रम के बाद मैंने उसमें बहुत परिवर्तन पाया। बाद में वो मुझे कहने लगा, "तुमको ये कार्यक्रम ज़रूर करना चाहिये"। वैसे वो काफी रूखा, निंदक व्यक्ति था और ज़्यादातर हर चीज़ की आलोचना करता था, और शायद यही कारण था कि मेरी उससे दोस्ती थी। अब कार्यक्रम के बारे में उसकी प्रशंसा को सुन कर मैं चकित हो रहा था और ईशा योग के बारे में मेरा कुतूहल थोड़ा बढ़ गया, पर बहुत ज़्यादा नहीं। ख़ैर बाद में मुझे उस कक्षा में ले जाने के लिये उसने एक नया रास्ता ढूँढ निकाला।

मई माह के प्रारंभ में एक दिन उसने मुझे बताया, "ईशा एक हिमालय यात्रा आयोजित कर रही है, पर उसमें सिर्फ ईशा साधक ही पंजीयन करा सकते हैं"। मुझे हमेशा से हिमालय जाने की चाह थी। अतः, ध्यान यात्रा पर जाना मुझे कक्षा में जाने के लिये एक अच्छा कारण लगा। तो जून 1996 में मैं 13 दिन की कक्षा में गया। मुझे कक्षा अच्छी लगी पर मैंने इसके बारे में बहुत नहीं सोचा। फिर, सितंबर में मैं आश्रम में भाव स्पंदन कार्यक्रम करने गया जो उस ध्यान यात्रा पर जाने के कुछ ही पहले था। तब पहली बार मुझे ये अहसास हुआ कि जीवन के बारे में मेरी जो समझ थी, वो उससे कहीं ज्यादा है।

एक झाड़ी के साथ विसंगत भेंट

वो भाव स्पंदन का चौथा दिन था। जो पिछले तीन दिनों से हो रहा था, वो उस दिन भी हुआ - बहुत लोग रो रहे थे, कुछ चिल्ला भी रहे थे और एक दूसरे के गले भी लग रहे थे। कार्यक्रम की शुरुआत से ही मैं यह सब बहुत अरुचि के भाव से देख रहा था। कई बार मैंने सोचा, "ये सब लोग यहाँ क्या भड़ास निकाल रहे हैं"? कुछ प्रतिभागियों का, जिनको मैं पहले से जानता था, मैं इस रोने धोने के लिये मजाक भी बना रहा था। उस दोपहर को सद्‌गुरु ने हमें बाहर जा कर प्रकृति के साथ रहने के लिये कहा। हम सब बाहर आये और मैं एक छोटी सी झाड़ी के पास बैठ कर ये सोच रहा था कि अब क्या करूँ ? थोड़ी देर इधर उधर, दूसरे लोगों को देखने के बाद, सद्‌गुरु के निर्देशानुसार मैं उस छोटी झाड़ी पर ध्यान देने लगा।

झाड़ी को देखते हुए 5 मिनट ही बीते होंगे कि मेरे साथ कुछ अद्भुत हो गया। धीरे धीरे मेरे आँसू बहने लगे। एक वयस्क के रूप में मैं अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ और एक अत्यंत संतुष्ट व्यक्ति था। पिछले 12 सालों में मैं एक बार भी रोया नहीं था। अतः, मैंने जागरूकता के साथ अपने आप से पूछा, "मैं क्यों रो रहा हूँ, किस चीज़ के लिये रो रहा हूँ"? जब ये प्रक्रिया चल रही थी तो मुझे कोई कारण नहीं मिला। किसी खराब अनुभव, दुःख या पीड़ा की कोई याद, कोई अनुभूति उस क्षण मुझमें नहीं थी, मेरे मन में कोई नकारात्मक भाव भी नहीं थे। फिर भी मैं रोये चला जा रहा था, और ये लगभग तीन घंटे चलता रहा। जब हम हॉल में वापस आये तो मैं सद्‌गुरु के पास जा कर उनके गले भी लग गया। पहली बार मेरे सारे तर्क पूर्णतः ग़ायब हो गये थे।

नमस्कारम एवं कुछ और

अगले 10 दिनों में हम सद्‌गुरु के साथ ध्यान यात्रा पर निकल पड़े। हम 216 लोग कोयम्बटूर से दिल्ली तक रेल के स्लीपर वर्ग में यात्रा कर रहे थे। मुझे तथा कुछ अन्य ब्रह्मचारियों को सद्‌गुरु एवं विज्जी माँ के साथ उनके डिब्बे में जगह दी गयी थी। सद्‌गुरु सभी के साथ बहुत दोस्ताना व्यवहार कर रहे थे और समय-समय पर वे हर डिब्बे में जा कर सभी प्रतिभागियों से मिलते थे। बाद में जब हम बसों में यात्रा कर रहे थे तब भी वे रोज अलग-अलग बसों में प्रतिभागियों के अलग-अलग समूहों के साथ यात्रा करते थे।

इस रेल यात्रा के दौरान मुझे एक बार सद्‌गुरु को पानी देने का मौक़ा मिला। मैंने देखा कि पानी लेने से पहले तथा बाद में खाली गिलास लौटाते समय भी सद्‌गुरु ने बहुत नम्रता से नमस्कारम किया। उनकी इस मुद्रा से मैं थोड़ा शर्मिंदा हुआ। मैंने सोचा, "किसी को सिर्फ एक गिलास पानी लेने के लिये इतना आभार प्रदर्शन करने की क्या ज़रूरत है"? उनकी इस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया।

अप्रैल फूल

ध्यान यात्रा से वापस आने के बाद मेरा जीवन पहले जैसा ही चलने लगा। मुझमें अभी कोई बड़ी बात नहीं हुई थी, न ही मुझे पूरे समय के लिये आश्रम में आने की कोई इच्छा हुई।

चूंकि मैं अपने परिवार में इकलौता पुत्र था, मैं सोच रहा था कि जब उन्हें पता लगेगा कि मैं हमेशा के लिये ईशा जाने वाला था तो उन्हें कैसा लगेगा ?

उसी साल नवंबर में, मैं भारतीय हॉकी टीम के एक कार्यक्रम में स्वयं सेवा करने के लिये आश्रम आया, और तीन हफ़्तों के लिये रह गया। कार्यक्रम के दौरान हमने सद्‌गुरु के साथ एक शक्तिशाली क्रिया की। इस कार्यक्रम के बाद मुझे ये स्पष्ट हो गया था कि बिना किसी खास कारण के मैं ईशा और सद्‌गुरु की ओर जबरदस्त रूप से खिंचा चला जा रहा था।

मुझ पर जे. कृष्णमूर्ति का बहुत गहरा प्रभाव था और मैंने कभी ये नहीं सोचा था कि मुझे कोई गुरु खोजना चाहिये या किसी संस्था से जुड़ना चाहिये। पर अचानक ही मुझे मेरी विचार प्रक्रिया बदलती हुई महसूस हुई। मुझे ईशा में पूर्ण रूप से आ जाने की एवं उस मार्ग पर चलने की इच्छा होने लगी। मैंने सद्‌गुरु से पूछा कि क्या मैं पूरे समय के लिये आश्रम आ सकता हूँ? सद्‌गुरु ने कहा, "अपने माता पिता की अनुमति लो और अगर वे दें तो अप्रैल में यहाँ आ जाना"।

अपने माता पिता को तैयार करने के लिये मैंने उनको और अपनी बहनों को एक कार्यक्रम करवाया। वे सभी इससे बहुत प्रभावित हुए। चूंकि मैं अपने परिवार में इकलौता पुत्र था, मैं सोच रहा था कि जब उन्हें पता लगेगा कि मैं हमेशा के लिये ईशा जाने वाला था, तो उन्हें कैसा लगेगा ? लेकिन मेरे लिये ये एक आशीर्वाद जैसा था कि मेरे माता पिता बहुत समझदार थे और मेरे लिये ये सब बिना किसी खास कोशिश के हो गया। जब मैंने उन्हें अपने निर्णय के बारे में बताया तो माँ इसके लिये एकदम तैयार लगी। वास्तव में, जब मैं जाने लगा तो उसने मुझे आश्रम में देने के लिये मिठाईयां भी दीं। पिता ने अपनी बात थोड़ी उदासी के साथ कही, "मैं ये समझता हूँ कि जीवन में करने के लिये ये सबसे बड़ी चीज है, इसलिये तुम्हें रोकने की मेरी इच्छा नहीं है, फिर भी भावनात्मक रूप से तुम्हारे इस निर्णय को मैं स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ"। फिर, अप्रैल 1997 में मैं पूरे समय के लिये ईशा में आ गया।

उसी वर्ष मई में, मैंने अपना पहला सम्यमा कार्यक्रम किया और ये एक अद्भुत अनुभव था। आँसू, बस आँसू ही बह रहे थे, और मैं घास और चींटी से ले कर जो कुछ भी मेरे सामने आ रहा था, उसके आगे झुक रहा था। अपने पहले सम्यमा के अनुभवों को कह सकने के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं। फरवरी 1998 में मुझे ब्रह्मचर्य की दीक्षा मिली।

उन वर्षों में सद्‌गुरु के आसपास भी बहुत सी शक्तिशाली बातें हुईं - विज्जी माँ की महासमाधि से ले कर ध्यानलिंग की प्राणप्रतिष्ठा तक। मुझे विज्जी माँ हमेशा बच्चे जैसी निर्दोष पर अत्यंत तीव्र भाव की लगती थीं। उनका सद्‌गुरु से बेहद जुड़ाव था और मैं कई बार ऐसा सोचता था कि सद्‌गुरु की पत्नी ऐसे कैसी हो सकती थीं? ध्यान यात्रा के दौरान मुझे कभी वे एक बच्चे जैसी लगतीं और कभी तीव्रता से समर्पित - एक अलग ही आयाम में खोयी हुईं। उनकी महासमाधि ने आध्यात्मिक विकास के चरणों की मेरी सारी कल्पनायें खत्म कर दीं।

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उनके शरीर छोड़ देने के बाद हमने ध्यानलिंग के प्रतिष्ठापन की सम्पूर्ण प्रक्रिया में सद्‌गुरु को कष्ट में तथा अपने आप से संघर्षरत देखा। मुझे याद है, एक दिन उन्होंने हमसे कहा, "अभी हमारे हाथ में जो कुछ है, उसे देखते हुए मुझे कोई और विकल्प नहीं दिखता, बजाय इसके कि लिंग की स्थापना करने के लिये मैं उसमें अपना ही विलय कर दूँ। पर मेरा हृदय कहता है कि मैं बूढ़ा हो कर ही मरूँगा"। प्रक्रिया पूरी होने के बाद, जब सद्‌गुरु बिल्कुल मेरे ही सामने गिर पड़े तब मैंने उनके हृदय की आवाज़ पर ही भरोसा किया था और मुझे यही लगा था कि वे हमारे साथ लंबे समय तक रहेंगे। ये हमारा बहुत सौभाग्य है, कि वे हैं !

मैं उस दिन को कभी भूल नहीं सकता जिस दिन ध्यानलिंग को लोगों के लिये खोला गया था। सद्‌गुरु का स्वप्न पूर्ण हो गया। वह हमारे लिए बहुत भावुक समय था। वो पूरा दिन उत्सव सा था, जिसका प्रारंभ सुबह सद्‌गुरु के प्रवचन से हुआ, उसके बाद संगीत कार्यक्रम और अन्नदानम आदि था। आश्रम परिसर में ऐसी भीड़ पहले कभी नहीं देखी गयी थी - 30, 000 से भी अधिक लोग उस दिन ध्यानलिंग के दर्शन के लिये आये थे।

उस दिन मैं सारा समय किसी ना किसी गतिविधि में व्यस्त रहा तो ध्यानलिंग में रात को 9 बजे ही जा सका। जब मैं मंदिर के अंदर बैठा तो सारा माहौल - ध्यानलिंग, गुम्बद, अंदर की परिक्रमा - सब कुछ मुझे स्वर्ग समान लग रहे थे। शायद उस दिन पहली बार मैंने ध्यान दिया कि खंभों और दीवार चित्रों पर कितने सुंदर ढंग से बारीक नक्काशी की गई थी। उसी समय सद्‌गुरु भी वहाँ आ गये। एक अद्भुत बात ये हुई कि जब सद्‌गुरु अंदर की परिक्रमा में आये और वहाँ से जब उन्होंने गुम्बद के अंदर प्रवेश किया, बस उन्हीं कुछ क्षणों के लिये, आकाश में से वर्षा की बौछार हुई जैसे कि उनके स्वागत के लिये कोई दिव्य छिड़काव हुआ हो।

बाँसुरी की गुनगुनाहट

मेरी पहली ध्यान यात्रा के दौरान, जब हम वापस आ रहे थे और मैं चेन्नई स्टेशन पर उतरने ही वाला था तो अचानक, सद्‌गुरु ने मुझसे कहा, "अपना बाँसुरी का अभ्यास सही ढंग से करो"। मुझे समझ नहीं आया कि उनका क्या मतलब था पर मैंने उसके बारे में कुछ भी नहीं किया। जब मैं आश्रम में आया तो उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि मेरा ये छोटा सा शौक अच्छी तरह से उपयोग में लाया जाये। हमारी बैठकों, मुलाकातों के दौरान वे अक्सर मुझे बाँसुरी बजाने को कहते।

स्पंदा हॉल में पहले सम्यमा कार्यक्रम के दो ही दिन पूर्व सद्‌गुरु हम कुछ लोगों से मिले और उन्होंने हमें निर्देश दिये कि शाम के सत्संगों के दौरान हम किस प्रकार का संगीत बजायें। उस बैठक में उन्होंने मुझे मेरी बाँसुरी पर एक विशेष धुन बजाने को कहा। मैंने उस धुन को बजाने का प्रयत्न किया पर अपनी छोटी बाँसुरी पर वो धुन बजाने में मैंने अपने को अक्षम पाया। उन्होंने मुझे एक कैसेट दी जिससे मैं कुछ वैसी ही धुन सुन सकूँ पर मुझे यही लगा कि मैं ये नहीं कर सकता।

फिर भी, उनकी बतायी बातों के आधार पर मैंने किसी तरह कुछ अभ्यास किया और मंच पर ये सोचते हुए बैठा कि सद्‌गुरु जिस चीज़ की अपेक्षा कर रहे थे, मैं उसके करीब भी नहीं था। लेकिन जब मैंने बजाना शुरू किया तो कुछ ही मिनटों में सद्‌गुरु ने अपना अंगूठा ऊपर कर के मेरी प्रशंसा की। सत्र के बाद जब वे बाहर निकल रहे थे, तो फिर उन्होंने कहा कि मैंने वो संगीत बहुत ही अच्छी तरह बजाया था। उनकी प्रतिक्रिया सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा, मानों मैंने ग्रैमी पुरस्कार जीत लिया हो। आख़िरकार कम से कम एक बार, मैं अपने गुरु के लिये सन्तोषजनक प्रदर्शन कर सका था।

ईशा में निर्वाणषट्कम का जन्म

2004 या 2005 में, ब्रह्मचारियों की एक बैठक के पहले सद्‌गुरु ने मुझे एक कैसेट दी और कहा कि उसके मंत्रों में से कुछ सरल मंत्र मैं बैठक के विभिन्न दिनों में ब्रह्मचारियों को सिखाऊँ। तो मैंने कुछ मंत्रों का चयन किया और उन्हें सिखाया। ये बहुत अच्छे ढंग से हुआ और ब्रह्मचारियों ने वे मंत्र दो ही दिन में सीख लिये। तीसरे या चौथे दिन के बाद, मुझे कैसेट में कोई आसान मंत्र नहीं मिले, तो अब क्या करूँ, ये सोचते हुए मैंने तय किया कि मैं उन्हें निर्वाणषट्कम का एक छंद सिखाऊँ, जो मैंने पहले सुना हुआ था। पर मेरी सुनी हुई धुन बहुत कोमल व जटिल थी। तो मैंने उसकी एक सरल धुन बनाई और ब्रह्मचारियों को 'न पुण्यम न पापम...' ये छंद सिखाया। हम जब अभ्यास कर रहे थे तो सद्‌गुरु आ गये। उन्हें शब्द और धुन दोनों अच्छे लगे। उन्होंने पूछा, "ये किसने लिखा है"? मैंने जवाब दिया, 'आदि शंकराचार्य"। तब उन्होंने मुझे उसके सभी छंद गाने को कहा। सभी 6 छंद सुन कर वे बहुत प्रभावित हुए कि ये आदि शंकराचार्य ने लिखा था। उन्होंने मुझसे ये सारे ही छंद ब्रह्मचारियों को सिखाने को कहा। अब ये बहुत दिलचस्प लगता है कि कैसे ये मंत्र अब लगभग एक तरह से ईशा का स्तुति गान ही बन गया है।

पढ़ाने का आनंद और विस्तार

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मई 1997 में मैंने 'शिक्षक प्रशिक्षण' लिया। बाकी ईशा शिक्षकों की तरह मेरा भी यह देखने का सौभाग्य था कि कितने ही लोग मेरी आँखों के सामने बदल गये, वह भी बस 13 ही दिनों में। वर्ष 2000 के शुरुआती समय में, इरोड में, मेरी कक्षा में एक युवा विधवा थी जिसके पति की मृत्यु एक सप्ताह पहले ही हुई थी। वो अत्यंत उदास, अवसादग्रस्त एवं अपने आप में अकेली रहती थी। लेकिन 3 - 4 दिनों में ही वो खुलने लगी और तेरहवें दिन तक तो उसके चेहरे पर खुशी और चमक दिखने लगी। मैंने कारावास के कैदियों में भी ऐसे परिवर्तन होते देखे थे। वास्तव में, शुरुआत में तो कैदी इन योग कक्षाओं का प्रतिरोध करते थे, पर एक बार जब वे उससे जुड़ जाते थे, तो पूर्ण रूप से शामिल होते थे और उनमें स्पष्ट बदलाव दिखता था।

शिक्षक प्रशिक्षण एक अत्यंत शक्तिशाली प्रक्रिया थी जिसने मुझे हर तरह से बदल दिया था

जहाँ तक कार्य का प्रश्न है, तेरह दिन की कक्षाओं में पढ़ाना मेरे जीवन का सबसे अच्छा समय था। पढ़ाने के उन दस वर्षों में एक बार भी खराब तबियत या किसी भी कारण से मेरा कोई कार्यक्रम कभी छूटा नहीं। मुझे बहुत आनंद भी होता था एवं अपने अंदर ही अत्यंत पूर्णता तथा विस्तार का अनुभव होता था। 13 दिन की कक्षायें हम सब के लिये ऐसा तीव्र अनुभव होतीं थीं कि जब सद्‌गुरु ने घोषणा की कि अब उन कक्षाओं का पुनर्गठन 7 दिन में होगा तो हममें से कईयों ने उसका प्रतिरोध किया। हमने इसके विरुद्ध दिल से तर्क दिये, वाद विवाद किया और कक्षाओं में अपने प्रचुरता के अनुभवों का हवाला दिया। उन्होंने धैर्यपूर्वक एवं करुणा के साथ हमारे सभी प्रश्नों का उत्तर दिया और हम सब को राजी कर लिया। हमें उनके निर्णय की व्यापकता एवं उसका महत्व ज्यादा अच्छी तरह समझ में आया जब बाद में हमने पाया कि 7 दिन की कक्षायें भी 13 दिन की कक्षाओं की तरह ही समान रूप से जीवंत थीं।

जिस शानदार ढंग से सद्‌गुरु ने ईशा योग कार्यक्रमों का गठन किया है, मैं उसके बारे में हमेशा ही बहुत आश्चर्यचकित रहता हूँ। हम बहुत सौभाग्यशाली हैं कि उन दिनों प्रशिक्षण सत्रों के दौरान सद्‌गुरु अधिकतर हमारे साथ ही रहते थे। हम उनके मॉक सत्रों (जिनमें हम शिक्षक और वे प्रतिभागी बन कर बैठते थे) को तो कभी नहीं भूल सकते। वे जिस तरह से हमसे जिरह करते, सरल तरीकों से हमें अपने धारदार प्रश्नों और प्रतिप्रश्नों के साथ उछालते, उसने हमें कक्षायें चलाने के लिये अच्छी तरह तैयार कर दिया - हमारी समझ व अपेक्षाओं से भी ज्यादा गहरे रूप से। शिक्षक प्रशिक्षण एक शक्तिशाली प्रक्रिया थी जिसने मुझे हर तरह से बदल दिया था।

सद्‌गुरु के साथ सहशिक्षक होना भी एक बड़ी चुनौती होती थी। शुरुआत के शाम्भवी कार्यक्रमों में से एक के दौरान मुझे नाड़ी विभाजन तथा सूर्य नमस्कार सिखाने थे और वे मेरे पास ही बैठे थे। उन्होंने देख लिया कि प्रतिभागियों को निर्देश देते समय मुझे शब्द नहीं सूझ रहे थे। कुछ देर बाद, मेरे संघर्ष को देखते हुए वे करुणा से चुपचाप बाहर चले गये। मैंने राहत की साँस ली और फिर मेरे शब्द सामान्य रूप से प्रवाहित होने लगे।

अशोक की तलाश

वर्ष 2000 में, शिक्षकों की एक बैठक के दौरान मेरे और सद्‌गुरु के बीच ऐसा प्रश्नोत्तर हुआ:

मैं : "आप में और गौतम बुद्ध में क्या अंतर है"?

वे : "हममें बहुत सी समानतायें हैं पर उनके और मेरे बीच एक बहुत बड़ा अंतर है"।

मैं : "और वो क्या है, सद्‌गुरु" ?

वे : "अशोक ! उनके पास अशोक था और मेरे पास बस......"।

मैं समझ गया कि सद्‌गुरु उस एक बड़ी शक्ति के बारे में बात कर रहे थे जो उस, इतनी बड़ी संभावना - जो सद्‌गुरु हैं - को करोड़ों लोगों तक ले जाये।

सद्‌गुरु का ये कथन अत्यंत तीव्र था और उनके काम को सभी लोगों तक ले जाने की उनकी गहन इच्छा एवं तीव्रता ने मुझे हिला डाला। मैं इस पर सोचने के लिये बैठ गया - आज के समय में “अशोक” कौन है ? मैं समझ गया कि यह प्रसार माध्यम (मीडिया) है, जिसके पास सारी दुनिया में संदेश पहुँचाने की शक्ति है। तो मैंने उस पर काम करना शुरू कर दिया। कई प्रकार से सद्‌गुरु का ये विशेष कथन एक आग की तरह था जिसके कारण मैंने उन दिनों में तमिलनाडु के प्रसार माध्यम में ईशा के लिये जगह बनायी तथा प्रभावात्मक लोगों से संपर्क बनाये।

सद्‌गुरु का जीवन ही एक शिक्षण है

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जिस प्रतिबद्धता के साथ सद्‌गुरु काम करते हैं, वो अविश्वसनीय है। वे कभी भी, किसी भी कार्यक्रम या बैठक में देर से नहीं आते, न ही उन्होंने कभी भी अपनी कोई मुलाकात या बैठक अपनी तबियत या अपने किसी व्यक्तिगत कारण से रद्द की है। मैं एक बार उनके साथ गोवा में होने वाले एक सम्मेलन के लिये यात्रा कर रहा था और मुझे मालूम था कि उन्होंने उसके पिछले दिन कुछ भी खाया नहीं था। तो जब हम सम्मेलन स्थल पर पहुँचे तो मैं चाहता था कि चूंकि उनके सत्र की अभी घोषणा नहीं हुई थी अतः उन्हें कुछ खा लेना चाहिये। मेरे आग्रह पर वे खाने के लिये बैठे पर 10 ही मिनट में आयोजकों ने उनके सत्र की घोषणा कर दी और मंच पर उनकी उपस्थिति अपेक्षित थी। यह सुन कर सद्‌गुरु तुरंत उठे और एक क्षण के भी विलंब के बिना बीच में ही हाथ धो कर हॉल की तरफ दौड़ पड़े।

प्रशासनिक कार्य के उतार - चढ़ाव

वर्ष 2007 में सद्‌गुरु ने मुझे आश्रम में वापस आने को कहा तथा आश्रम के प्रशासनिक कामकाज के संयोजन का कार्यभार सौंपा। जहाँ तक लोगों को अधिकार देने की बात है, सद्‌गुरु जैसा कोई नहीं। वे जिस तरह से हमारा सशक्तिकरण करते हैं, वो अदभुत है। अगले 4 वर्षों में मुझे बहुत बड़े-बड़े अधिकार दिये गये। उनके सहयोग एवं उत्साहवर्धन के कारण कई सारी अच्छी अच्छी बातें हुईं पर साथ ही, कुछ अवसरों पर मैंने गलतियाँ भी कीं।

सही बात ये है कि पढ़ाने में मैं जितना ज्यादा शामिल रहता था, भागीदारी महसूस करता था, उतना आश्रम की प्राशसनिक गतिविधि में नहीं कर पाता था। अपनी उस भूमिका में मैं कभी भी शत प्रतिशत शामिल नहीं हो पाता था, और हर चीज़ मेरे लिये चुनौती बन जाती थी। यद्यपि मैं लगातार अच्छा काम करने के लिये प्रयत्न करता था पर फिर भी, मैं उस भूमिका में सफल नहीं हो पाया। मेरा सबसे बड़ा पछतावा ये है कि मेरे कारण कुछ मौकों पर सद्‌गुरु को भी निराश होना पड़ा।

मुझे याद है, जब सद्‌गुरु ने ईशा संस्कृति की शुरुआत की थी तब मैंने उनकी परिकल्पना पर बहुत सारे प्रश्न उठाये थे, "12 वर्ष की शिक्षा के बाद, इन बच्चों का क्या होगा"? मैं अपने अंदर ही अंदर कई बार तर्क करता था। अब उन बच्चों को इतना होनहार, बुद्धिमान और योग्य देख कर मैं समझ गया हूँ कि सद्‌गुरु जैसे किसी व्यक्ति की बुद्धिमत्ता पर कभी प्रश्न नहीं उठाने चाहियें। वे सब जानते हैं।

मौन

उन सब वर्षों में, मैंने कभी यह देखने की परवाह नहीं की थी कि मेरे अंदर क्या हो रहा था या मेरी साधना के साथ क्या हो रहा था? मुझे बस एक ही धुन लगी रहती थी कि कैसे मैं ईशा के काम पूरे करूँ! तो वर्ष 2011 में जब सद्‌गुरु ने मुझे डेढ़ वर्ष के लिये कार्यरत मौन में भेज दिया तो मुझे ये सच्चा वरदान लगा। इसके कारण मुझे अपने अंदर देखने का अवकाश मिला और ये स्पष्टता हुई कि मैं यहाँ क्यों हूँ ? मुझे समझ में आया कि सच यही है कि कई मौकों पर मैंने बेवकूफी और असावधानी से काम किया था। इस समझ और अन्तर्निरीक्षण के कारण मुझे उन संघर्षों, टकरावों और उलझनों से छुटकारा मिला, जिनका सामना अपने अंदर मैं कई वर्षों से कर रहा था।

सद्‌गुरु ने मुझे जो कुछ भी दिया है, धीरे-धीरे ही उसके प्रति मैं अधिक प्रशंसक तथा ग्रहणशील बन पाया। उदाहरण के लिये, एक सरल सी बात जो सद्‌गुरु बार-बार कहते हैं, "आप इसलिये खुश नहीं हैं क्योंकि जीवन उस तरह से नहीं चल रहा, जैसे आप चाहते हैं" - ये बात मेरे अंदर जीवित अनुभव हो गयी। मौन की अवधि में मैं, थोड़े ही समय में, आराम की अवस्था में आ गया और मुझे अपने अंदर स्वतंत्रता का एक नया स्तर मिल गया। इस साधना ने मेरे जीवन को एक नया दृष्टिकोण दिया तथा मेरी तीव्रता के स्तर को बढ़ा कर मार्ग पर मेरा ध्यान केंद्रित किया। "....... और अब योग" - पतंजलि सूत्र की यह पहली पंक्ति मेरे लिये जीवित वास्तविकता बन गयी।

वह दिन - वह क्षण

हाल ही में मुझे एहसास हुआ कि मैं कुछ महीने पहले 50 साल का हो गया था - लेकिन मुझे नहीं लगता कि मेरी उम्र हो गयी है। वास्तव में, मैं अपने कॉलेज के दिनों की तुलना में अधिक ज़िंदा, अधिक जीवंत महसूस करता हूँ। ईशा और सद्‌गुरु के साथ मेरी यात्रा इतनी समृद्ध और परिपूर्ण रही है कि सद्‌गुरु ने मुझे साधना और ब्रह्मचर्य के रूप में जो दिया है, उसे मैं दुनिया की किसी भी चीज़ के साथ बदलना नहीं चाहूँगा।

अंत में, मैं अक्सर उस पहली बात को याद करता हूँ जो सद्‌गुरु ने मुझे तब बतायी थी जब मैं यहाँ पूर्णकालिक आया था - "तुम्हें पत्थर की तरह होना होगा, हम तुम्हें जहाँ चाहे फेंक देंगे, क्या ये मंज़ूर है"? इन सब वर्षों में यही मेरी मार्गदर्शक शक्ति रही है - मैं कहीं भी फेंक दिये जाने का इच्छुक हूँ, और मैं पूरी तरह से शामिल होने के लिये तैयार हूँ।

मेरी एकमात्र लालसा है - मैं उस दिन और उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जब मैं किसी भी कार्य की आवश्यकता से मुक्त हो जाऊँ, बस पूर्ण स्वतंत्रता में रहूँ। तब तक, किसी भी समय, किसी भी जीवन में, कहीं भी फेंके जाने के लिये तैयार हूँ।

Editor's Note: Watch this space every second Monday of the month as we share with you the journeys of Isha Brahmacharis in the series, "On the Path of the Divine."