रोगों के कारण क्या हमारे कर्म होते हैं?
हम अक्सर देखते हैं कि जहाँ एक व्यक्ति हमेशा रोगग्रस्त रहता है, वहीं दूसरा व्यक्ति कभी बीमार होता नहीं दिखता। क्या हमारे कर्म ये निश्चित करते हैं कि कौन स्वस्थ रहेगा और किसको रोग सतायेंगे?
प्रश्न : सद्गुरु, हर दिन मैं अपने चारों ओर, बहुत रोग और पीड़ा देखता हूँ। कई बार ये बात मुझे बहुत परेशान करती है कि किसी मनुष्य को इस तरह के कष्ट होते ही क्यों हैं? यह बहुत ही अकारण, अविवेकी लगता है कि एक मनुष्य का स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहता है जब कि दूसरा मनुष्य खराब स्वास्थ्य से पीड़ित रहता है। क्या आप बता सकते हैं कि रोग क्यों होता है? ये क्या है और कहाँ से आता है?
सद्गुरु: रोग के कई सारे पहलू हैं। अंग्रेज़ी शब्द “डिसीज़” का अर्थ है कि आप आराम में नहीं है। जब आप के शरीर को पता नहीं चलता कि आराम कैसे करें, तो ऊर्जाएं अस्त व्यस्त हो जाती हैं। उदाहरण के लिये, जब अस्थमा के रोगी ईशा योग कार्यकम में आते हैं और ध्यान तथा योग क्रियाऐँ करना शुरू करते हैं तो कुछ ही दिनों की क्रिया से बहुत से लोगों का अस्थमा गायब हो जाता है। इसका कारण ये है कि उनकी ऊर्जाएं कुछ दिन क्रिया करने से ही व्यवस्थित होने लगती हैं। कुछ लोगों का अस्थमा थोड़ा कम हो जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनका अस्थमा सिर्फ अस्त-व्यस्त ऊर्जाओं की वजह से नहीं हुआ है। इसके अन्य गहरे कर्म संबंधी कारण भी हैं। कुछ लोगों को बिल्कुल भी आराम नहीं आता, क्योंकि उनका रोग बहुत ज्यादा शक्तिशाली कर्म संबंधी कारणों की वजह से होता है। कुछ ऐसी बाहरी परिस्थितियाँ भी हो सकती हैं, जो न बदलीं हों।
अंग्रेज़ी शब्द “डिसीज़” का अर्थ है कि आप आराम में नहीं हैं। जब आप के शरीर को पता नहीं चलता कि आराम कैसे करें, तो उर्जायें अस्त व्यस्त हो जाती हैं।कर्म, रोग का कारण कैसे बनते हैं? एक चीज़ होती है जिसे प्रारब्ध कहते हैं, जो आप के इस जीवन के लिये आवंटित कर्मों का हिस्सा हैं। प्रारब्ध कर्म आप के शरीर, मन और अनुभूतियों पर दर्ज़ रहते हैं, परंतु आप की ऊर्जाओं पर ये सबसे अधिक गहरे रूप से दर्ज होते हैं। ऊर्जाओं पर कोई जानकारी कैसे दर्ज़ हो सकती है? ये मेरे अंदर एक जीवित अनुभव है - मुझे पता नहीं कि इस पर कोई वैज्ञानिक शोध हो रहा है या नहीं, पर मैं ये ज़रूर जानता हूँ कि विज्ञान किसी दिन ये जानने के लिये रास्ता ढूंढ ही लेगा। एक समय था जब हम जो कुछ भी दर्ज़ कर के रखना चाहते थे वो सब पत्थरों की पट्टियों पर लिख कर रखना पड़ता था। वहाँ से हम पुस्तकों की ओर आये और अब आगे बढ़ते हुए डिस्क और चिप्स तक आ गये हैं। पत्थरों की हज़ारों पट्टियों पर जो कुछ लिखा जा सकता था वो एक पुस्तक में आने लगा और फिर जो हज़ारों पुस्तकों में लिखा जा सकता था वो एक कॉम्पैक्ट डिस्क में आने लगा। और अब तो, हज़ारों डिस्क में आने वाली जानकारी एक छोटी सी चिप में आ जाती हैं। किसी दिन ये होगा कि आज हम जितना कुछ लाखों चिप्स में दर्ज़ कर सकते हैं वो ऊर्जा के एकदम छोटे से हिस्से में आ जायेगा। मैं जानता हूँ कि यह सम्भव है क्योंकि यह मेरे अंदर हर समय हो रहा है, और ये हरेक में हो रहा है। ऊर्जा स्वयं ही एक खास ढंग से काम करती है। हरेक की ऊर्जा या प्राणशक्ति एक समान ढंग से काम नहीं करती। ये उनके कर्म बंधनों के हिसाब से काम करती है। ऊर्जा में चीज़ें सबसे गहरे तरीके से दर्ज होती हैं। ये कर्मों के बैक-अप (मूल स्रोत न होने पर काम आने वाला संग्रह) रेकॉर्ड की तरह है। आप का मन समाप्त हो जाये तो भी ये शरीर में रहती हैं, और शरीर समाप्त हो जाये तो ये ऊर्जा में रहती हैं।
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ऊर्जा के आवंटन का उपयोग करना
ऊर्जा का आवंटन होता है। इसमें बहुत सारी जटिलताएं हैं, पर यदि सरल शब्दों में कहें तो ऊर्जा का कुछ हिस्सा कार्य करने के लिये होता है, कुछ आप की भावनाओं के लिये, कुछ विचार प्रक्रिया के लिये और एक अन्य, आप के अंदर के अनुभवों के आयामों के लिये। जिस तरह से लोग आज जी रहे हैं, उनकी भावनायें पूरी तरह से व्यक्त नहीं हो पा रहीं। ऊर्जा का वह भाग जो दबी हुयी, अव्यक्त भावनायें हैं, वो कुछ और नहीं बन सकतीं। या तो उन्हें भावनाओं की अभिव्यक्ति बन कर उभरना होगा या फिर, वे अंदर की ओर मुड़ जायेंगी और आप के अंदर अजीब गड़बड़ियाँ करेंगीं। यही कारण है कि पश्चिमी देशों में इतनी अधिक मानसिक समस्यायें हैं।
ये कहा जाता है कि हर तीन अमेरिकन में से एक किसी न किसी प्रकार की मानसिक बीमारी का शिकार है। इसके मुख्य कारणों में से एक ये है कि उन संस्कृतियों में भावनात्मक अभिव्यक्ति के लिये कोई स्थान नहीं है। हर भावनात्मक चीज़ को कमजोरी समझा जाता है और उसे दबाया जाता है। सारी दुनिया में, 90% या उससे भी ज्यादा लोगों को अपनी भावनाओं को पूरी तरह से प्रदर्शित करने का मौका ही नहीं मिलता। उन्हें अपने प्यार से, दुःखों से, खुशियों से भी डर लगता है - वे हर चीज़ से डरते हैं। जोर से हँसना एक समस्या है, जोर से रोना भी, सब कुछ एक समस्या ही है। वे इसे “आधुनिक संस्कृति” कहते हैं। मेरे विचार में तो ये एक प्रतिबंधात्मक संस्कृति है जो आप को एक खास ढंग से व्यवहार करने के लिये मजबूर करती है।अगर आप की भावनाओं को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं मिलती तो ये अंदर जा कर आप का बहुत नुकसान कर सकती हैं।
एक और विचारणीय बात ये है कि आधुनिक जीवन में गतिविधियों का स्तर नाटकीय ढंग से नीचे आ गया है। जिस तरह मनुष्य पहले अपने शरीर से काम लेते थे, अब वैसा नहीं है। लेकिन आज भी, आप में, भौतिक शरीर सबसे मुख्य भाग है। इसलिए प्रारब्ध कर्म का अधिकतम भाग शारीरिक गतिविधि के लिये आवंटित होता है। यह अनुपात एक व्यक्ति से दूसरे में काफी अलग हो सकता है लेकिन आम तौर पर यह ऐसा ही होता है। अगर ये, उपयोग न की गई ऊर्जा वैसी ही रह जाती है तो ये आसानी से रोग उत्पन्न कर सकती है। आधुनिक मन एक खास तरह की विक्षिप्तता से पीड़ित हो रहा है जो पहले के समय में नहीं थी, क्योंकि आजकल मनुष्य ने अपने शरीर का उपयोग करना बहुत कम कर दिया है।
जब आप अपने आप को शारीरिक गतिविधि में तीव्रता से लगाते हैं तो आप के तंत्र की गड़बड़ियाँ ठीक हो जाती हैं, क्योंकि आप की नसों की ऊर्जा का अच्छी तरह उपयोग हो जाता है। लेकिन, पहले के किसी भी समय की तुलना में आज का आधुनिक मनुष्य ज्यादा निष्क्रीय एवं विक्षिप्त (मानसिक रूप से बीमार) हो गया है। आज, समाज में ये सामान्य बात हो गयी है कि प्रत्येक व्यक्ति विक्षिप्तता के किसी न किसी स्तर पर है और ये सिर्फ इसीलिये है कि शारीरिक गतिविधि के लिये आवंटित ऊर्जा का सही उपयोग नहीं हो रहा। शारीरिक सक्रीयता एकदम कम होने के कारण ये ऊर्जा ऐसे ही, बंधी हुई पड़ी रहती है। आप देखेंगे कि जो लोग उच्च स्तर की शारीरिक गतिविधि में लगते हैं - जैसे कि पर्वतारोहण जैसी खेलकूद गतिविधि में - वे संतुलन और शांति के एक अलग ही स्तर पर होते हैं क्योंकि उनकी पूरी शारीरिक गतिविधि का उपयोग होता है। आप देखेंगे कि ऐसे लोग कामुकता तथा भौतिक वासनाओं में ज्यादा नहीं फँसते क्योंकि उनके एक पहलू को पूरी अभिव्यक्ति मिल गयी है।
इस प्रकार की निष्क्रियता का परिणाम रोग है और सबसे बढ़कर, निष्क्रियता तथा बंधी पड़ी ऊर्जा ही अशांति का कारण बनती है। शरीर में ये अशांति, कुछ लोगों में किसी प्रकार के शारीरिक रोग का निर्माण करती है, और अन्य में भले ही ये कोई रोग न बनाये पर वे लोग हर समय अशांत और अस्त-व्यस्त होने के कारण आराम की स्थिति में नहीं होते। उनकी उर्जायें हर समय अंदर ही अंदर संघर्ष कर रहीं होती हैं। वे शांति से बैठ भी नहीं सकते। अगर आप लोगों को ध्यान से देखें तो वे जिस तरह से बैठते या खड़े होते हैं, वही दर्शाता है कि वे आराम में नहीं हैं। उन्होंने बस अभ्यास कर के एक तरह का सजीलापन सीख लिया है, कि कैसे बैठना, खड़े होना या चलना है। पर अगर आप अपनी गतिविधि में आराम की कमी को इस तरह के अभ्यास से दूर करेंगे, तो ये संघर्ष आपकी ऊर्जा में समा जाएगा, क्योंकि ये अभिव्यक्त नहीं हो पा रहा। यह एक ऐसे अलग आयाम में परिवर्तित हो जता है, जहाँ इसे अभिव्यक्ति मिलती है। यही कारण है कि ऊर्जा अंदर घूम जाने के कारण रोग बना देती है।
ये एक कारण है कि क्यों हमारे ब्रह्मचारी इतनी अधिक गतिविधियों में लगे रहते हैं। कोई भी, जो उनकी गतिविधि का स्तर देखेगा, उसे आश्चर्य होगा कि ये लोग जो यहाँ अपनी आध्यात्मिक क्रियायें करने के लिये आये हैं, दिन के चौबीसों घंटे क्यों काम करते रहते हैं ? लोगों को ऐसा लगता है कि आध्यात्मिकता का अर्थ पेड़ के नीचे बैठना और आधी नींद में रहने जैसा कुछ है। मगर ऐसा नहीं है। उनका कामकाज उनके आध्यात्मिक विकास का एक भाग है। इसका कारण ये है कि मैं चाहता हूँ कि वे अपने प्रारब्ध कर्म के लिये आवंटित ऊर्जा को एक निश्चित समय में, मान लीजिए पाँच ही वर्षों में पूरी तरह समाप्त कर दें। अगर वे इस तरह कर्म को पूरा कर लेंगे तो फिर उन्हें किसी काम को करने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। वे काम अपनी मर्जी से करेंगे, मजबूरी में नहीं। फिर अगर उनको सिर्फ बैठे रहने के लिये कहा जायेगा तो वे सहज रुप से बैठे ही रहेंगे, उनको कोई संघर्ष नहीं करना पड़ेगा।
गतिविधि से ध्यान की ओर
यही वह चीज़ है जो हम उच्चतर स्तर के कार्यक्रमों, जैसे भाव स्पंदन और सम्यमा में करते हैं। शरीर को तोड़ने वाली जबरदस्त शारीरिक गतिविधि के माध्यम से आप गतिविधि के लिये आवंटित ऊर्जा का, अपने सामान्य जीवन की तुलना में, जल्दी उपयोग कर लेंगे। इससे आपके अंदर शांत बैठने के लिये सही स्थिति बनेगी। फिर ध्यान स्वभाविक रूप से होगा। लेकिन, जब आप में, गतिविधियों के लिये आवंटित, पर उपयोग न की हुई ऊर्जा होगी तो आप शांति से बैठ नहीं सकेंगे, क्योंकि ऊर्जा कुछ ज्यादा करने का प्रयत्न करेगी।
रोग के कुछ अन्य पहलू भी हैं। कुछ कर्म संबंधी कारण भी होते हैं क्योंकि आप की ऊर्जा एक खास ढंग से काम करती है और रोग उत्पन्न करती है। लोग यदि कर्मों के कारण रोगी हैं तो बात अलग है पर दुनिया में बहुत सारे लोग ऐसे हैं जिन्हें रोग नहीं होने चाहियें। पहले के किसी भी समय की तुलना में चिकित्सा शास्त्र आज ज्यादा उन्नत, ज्यादा प्रभावशाली है लेकिन फिर भी लोग रोगमुक्त नहीं हुए हैं। शारीरिक और भावनात्मक उर्जायें, दोनों का ही आवंटन ज्यादा होता है पर उनका सही उपयोग नहीं होता। सिर्फ एक ही ऊर्जा है जो पूरी तरह से उपयोग में लायी जाती है और वो है मानसिक ऊर्जा - जो विचारों के लिये आवंटित है। उदाहरण के लिये, आप के देश के बजट में धन आवंटित किया जाता है - शिक्षा के लिये इतना, विकास के लिये इतना, उद्योग के लिये इतना और ऊर्जा के लिये इतना। मुख्य, बड़ा हिस्सा ऊर्जा के लिये आवंटित होता है और अगर आप इसका उपयोग नहीं करते तो अर्थ व्यवस्था को नुकसान होता है। यही सब आप के शरीर में भी हो रहा है। ये अत्यंत महत्वपूर्ण है कि शरीर, मन, भावना और ऊर्जा सही ढंग से काम करें एवं उनका उपयोग हो। सिर्फ तभी जीवन सभी स्तरों पर मजबूती से चलेगा और एक संतुलित, सामंजस्यपूर्ण तरीके से घटित होगा।
Editor’s Note: Excerpted from Mystic’s Musings. Not for the faint-hearted, this book deftly guides us with answers about reality that transcend our fears, angers, hopes, and struggles. Sadhguru keeps us teetering on the edge of logic and captivates us with his answers to questions relating to life, death, rebirth, suffering, karma, and the journey of the Self. Download the sample pdf or purchase the ebook.