डिजाईन : प्राकृतिक सौंदर्य का आइना
मशहूर फैशन डिजाईनर सब्यसाची मुखर्जी ने सुंदरता, डिजाईन, फैशन और योग पर सद्गुरु के साथ चर्चा की, जिसका संचालन अरुंधती सुब्रह्मण्यम ने किया। पेश है उस बातचित का अंश:
मशहूर फैशन डिजाईनर सब्यसाची मुखर्जी ने सुंदरता, डिजाईन, फैशन और योग पर सद्गुरु के साथ चर्चा की, जिसका संचालन अरुंधती सुब्रह्मण्यम ने किया। पेश है उस बातचित का अंश:
संचालक(अरुंधती सुब्रह्मण्यम): सब्यसाची, आपने कहा कि अपूर्णता या अधूरापन आपकी डिजाईन का एक हिस्सा है। इसके बारे में थोड़ा विस्तार से बताएंगे?
हाथ से बनी चीज़ों का महत्व
सब्यसाची मुखर्जी: फैशन इंडस्ट्री में एक ओर हम इंडिविजुअलिटी यानी वैयक्तिकता की बात करते हैं और दूसरी ओर उसके विपरीत मास प्रोडक्शन की बात भी करते हैं।
सद्गुरु : और उम्मीद करते हैं कि एक ही ड्रेस पहने लोगों की आपस में मुलाकात न हो!
सब्यसाची मुखर्जी: जी हां। मैं भी कई बार इसका शिकार बन चुका हूं। मैं भारतीय शादियों के लिए डिजाईन बनाता हूं और मैं इस डर से अब शादियों में नहीं जाता कि कहीं तीन महिलाओं ने एक जैसे कपड़े न पहन रखे हों। मगर इसके बावजूद मुझे लगता है कि भारत जो बना सकता है, वह चीन नहीं कर सकता। भारत आपको एक निजी पहचान या खासियत दे सकता है। अगर आप हाथ से बनाई गई किसी चीज को देखें, तो पश्चिम में अगर एक पीस दूसरे पीसों से अलग होगा, तो कोई क्वालिटी कंट्रोल वाला अधिकारी उसे रिजेक्ट कर देगा। लेकिन लक्जरी का असली मतलब यही है कि चीजों को एक-दूसरे से अलग होना चाहिए। और हाथ से बनी चीजें ही हर व्यक्ति के लिए अनूठी हो सकती हैं, भले ही वह छोटा सा ही अंतर हो।
रचनात्मक होते हुए भी बाज़ार की मांग को कैसे पूरा करें?
अरुंधती: इसे आगे बढ़ाते हुए कहूं तो, मैं सोच रही थी कि जब आप कुछ रचनात्मक करते हैं तो उसमें वैयक्तिक छाप छोड़ते हैं, पर बाजार की मांग को भी पूरा करना होता है – कोई कैसे ऐसा संतुलन बनाए हुए चल सकता है?
सब्यसाची मुखर्जी: एक उद्यमी के लिए यह चुनौतीपूर्ण है।
मेरे ख्याल से जब आप उद्यमी होते हैं, तो कितना भी पूर्वानुमान और अंदाजा आपको यह नहीं बता सकता कि क्या चीज कारगर होगी और क्या नहीं। यह आपका विश्वास और सहज वृत्ति होती है। अगर आपका विश्वास बहुत मजबूत है, तो व्यापार अपने आप होगा। मेरे ख्याल से जब आप किसी ऐसे ब्रांड से जुड़े हों, जिसका एक खास सौंदर्य बोध है, तो अपने विश्वास के प्रति ईमानदार रहना बहुत महत्वपूर्ण है, चाहे लोग आपको किसी भी तरह देखें। आखिरकार, आपकी जीत होगी।
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रचनात्मकता क्या है?
अरुंधती : रचनात्मकता का यह विचार दोहराव की धारणा से जुड़ा है। कई बार हम दोहराव को सिर्फ किसी ऐसी चीज के तौर पर देखते हैं जो मास प्रोडक्शन यानी बड़ी आयात में निर्माण के समय होता है।
सद्गुरु : हमें बस इंसान को देख लेना चाहिए – किसी के पास सींग, फालतू हाथ या तीन आंखें नहीं हैं। हर कोई एक जैसा है, मगर फिर भी सब अलग हैं। यही रचनात्मकता है। अगर आप सरल शब्दों में इंसान की विशेषताएं बताना चाहें तो हर किसी के पास दो पैर, दो हाथ, एक नाक, दो आंखें, आदि होते हैं। मगर हरेक इंसान हर तरह से एक अलग अस्तित्व है। यही सृष्टि की प्रकृति है। किसी इंसान को कभी ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि हम किसी चीज का सृजन कर रहे हैं। किसी रूप में जाने-अनजाने हमने जो इंप्रेशंस या बाहरी प्रभाव लिए हैं, उनसे हम कुछ चीजों को फिर से पैदा करते हैं। वास्तव में कोई भी यहां कुछ नया सृजन नहीं कर सकता। आप चाहे किसी भी रूप और रंग में जो कुछ बनाते हैं, वह कोई आभूषण हो या कपड़े, भवन हो या कुछ और, वह प्रकृति में कहीं न कहीं पहले से मौजूद है।
हमारे अंदर कल्पना नहीं, बोध होना चाहिए
आपने बहुत से इंप्रेशंस या प्रभाव इकट्ठे किए हैं, जिनमें सारे सजगता पूर्वक नहीं लिए गए हैं। आपके मन में मौजूद कुछ रूप-रंग और आकार अचेतनता में अभिव्यक्ति पा सकते हैं।
बहुत से इंसानों के साथ यही होता है। वे चीजों को उस तरह नहीं देखते, जैसी वे वास्तव में हैं। बल्कि उनके पास कल्पनाएं और ख्याल होते हैं। अगर आप कोई खूबसूरत चीज़ बनाना चाहते हैं, तो सबसे पहले आपके दिमाग में कोई ख्याल नहीं होना चाहिए। ये जरुरी नहीं है कि ख्याल का वास्तविकता के साथ कोई संबंध हो। अगर ख्याल के बजाय आपके पास बोध या अनुभूति है और आप हर समय बस जीवन को आत्मसात करते रहते हैं, तो जब आप कुछ बनाना या रचना चाहेंगे, तो वह आकार, रूप-रंग, ध्वनि, आदि सभी चीजों के रूप में आपके साथ होगा। चाहे आप संगीत बनाना चाहें या कपड़े या इमारत, अगर आप पर्याप्त रूप से ध्यान दें, तो सब कुछ वहीं होगा।
बनारस के डिजाईन उद्योग को पहले जैसा कर देने की जरुरत
सब्यसाची मुखर्जी : क्या मैं इसमें कुछ जोड़ सकता हूं, सद्गुरु? डिजाईन इंडस्ट्री में एक पहचान बनाने की इच्छा रखने वाले एक युवा उद्यमी के रूप में मैं कुछ ऐसा करना चाहता था, जो अब तक न हुआ हो।
जब मेरी डिजाईन कंपनी वहां जाती है, मैं उनसे कहता हूं, ‘बनारस के लोग सैंकड़ों सालों से डिजाईनिंग करते रहे हैं। वे इसमें माहिर हैं। उनके काम में दखल मत दो। हम सिर्फ वह माध्यम हैं जो उस डिजाईन को बाजार तक लेकर जाएंगे। हम सिर्फ मार्केटिंग और विज्ञापन के जरिये उनके बाजार को फिर से बहाल करने के लिए हैं।’ क्योंकि जब हर कोई अपनी अलग छाप छोड़ना चाहता है, तो डिजाईन बहुत भ्रमित करने वाली चीज हो जाती है। हालांकि हम डिजाईन की डेमोक्रेसी या लोकत्रंत्र की बात करते हैं, डिजाईन को संरक्षित करना भी बहुत महत्वपूर्ण है। मेरे ख्याल से भारत में बहुत से लोगों को उन चीजों को संरक्षित करने की पहल करनी चाहिए, जो हमारे पास हैं और खूबसूरत हैं और लोगों को इसके प्रति जागरूक करना चाहिए। आखिरकार सौंदर्य की सराहना बहुत ही सब्जेक्टिव यानी सभी के लिए अलग-अलग होती है। अगर हम सिर्फ सुंदर चीजों को संरक्षित कर सकें और उसके बारे में जागरूकता पैदा कर सकें, तो हमें डिजाईन करने की जरूरत नहीं है।
सद्गुरु : जो लोग अपने पैरों के निशाना छोड़ने के लिए बहुत बेचैन होते हैं, वे कभी उड़ नहीं पाते।
सब्यसाची मुखर्जी : सद्गुरु, एक डिजाईनर होने के नाते मैं आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूं। मैं आपको बहुत सुरुचिपूर्ण कपड़े पहनने वाला शख्स पाता हूं। आप इस बात का उदाहरण हैं कि भारतीय पुरुषों को कैसे परिधान पहनने चाहिए। आपके कपड़े कौन डिजाईन करता है?
सद्गुरु : मेरे डिजाईन कमर्शियल नहीं हैं। मैं नहीं चाहता कि मैं बोलने के लिए किसी कांफ्रेंस या हॉल में जाऊं और हर कोई मेरे जैसे कपड़े पहने हो! यह सारा स्थानीय तौर पर, आश्रम के भीतर बनाया जाता है।
भारतीय डिजाईन के बारे में पश्चिमी जगत के विचार
अरुंधती : सब्यसाची, यह प्रश्न आपके लिए है। आपके अनुभव में भारतीय डिजाईन और फैशन को पश्चिम में किस नजर से देखा जाता है? वह सिर्फ आकर्षक होता है, या उन्हें इससे अधिक गंभीरता से लिया जाता है।
सब्यसाची मुखर्जी : आप भारत को कैसे पेश करते हैं, पश्चिम उसे उसी तरह देखेगा। दुर्भाग्यवश, लंबे समय तक, हमने इसे हाथियों, ऊंटों, संपेरों और सुंदर राजा-रानियों के देश के रूप में पेश किया। आज भी अगर आप पश्चिमी संदर्भ में भारतीय फैशन को देखें, तो वे बस महाराजा, महारानी या बॉलीवुड डांसर के बारे में सोचते हैं।
सद्गुरु : आपको ‘बॉलीवुड’ शब्द को छोड़ देना चाहिए। हॉलीवुड तो एक जगह है मगर यह बॉलीवुड क्या बला है?
सब्यसाची मुखर्जी : दुर्भाग्यवश इसी शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। इसे मैं चीप नकल कहता हूं।
सद्गुरु : बॉलीवुड, कॉलीवुड, टॉलीवुड – हर तरह के नाम मौजूद हैं। यह दासता का सबसे खराब रूप है।
सब्यसाची मुखर्जी : बिल्कुल।
भारतीय कपड़े पहनने से कई बदलाव आ सकते हैं
सद्गुरु : आम तौर पर जब मैं, विशेष रूप से किसी भी भारतीय कारपोरेट समारोह में जाता हूं, तो वहां सिर्फ मैं ही भारतीय होता हूं। महिलाएं थोड़ी बेहतर होती हैं मगर पुरुषों में हर किसी के गले में फंदा होता है। चालीस डिग्री सेल्सियस में वे कोट और टाई पहने होते हैं।
सब्यसाची मुखर्जी : यहां मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं। सीआईआई (भारतीय उद्योग संघ) के एक कांफ्रेंस में मैंने सुझाव दिया कि देश में हर कारपोरेशन शुक्रवार को भारतीय परिधान दिवस घोषित करे। कल्पना कीजिए, विक्टोरिया टर्मिनस से सुबह नौ बजे हजारों लोग साड़ी, सलवार कमीज, कुर्ता चूड़ीदार, बिंदी और गजरे पहने हुए निकलें। इससे न सिर्फ बुनियादी स्तर पर अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन मिलेगा, बल्कि ढेर सारे बुनकरों के बच्चे, जो वैसे कोई दूसरा पेशा अपनाते, अपने ही पेशे में रहेंगे। कपड़े समुदाय के निर्माण में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अगर हर भारतीय पूरी जागरूकता में भारतीय कपड़े पहनने लगे, तो यह बहुत ही उल्लेखनीय देश बन जाएगा।