कोई संगीत का प्रेमी है तो कोई साहित्य का, कोई सुंदर सा चित्र बनाने में पारंगत है तो कोई बेमिशाल मूर्ति। कला के कई रूप हैं। लेकिन क्या कलाकार वाकई सृजन करता है या महज नकल? आइए जानते हैं  कि क्या हम सच में रचनात्मक हो सकते हैं...


हमारी कल्पना के परे एक शानदार और भव्य सृष्टि है। आप चाहे किसी टेलिस्कोप से देखिए या माइक्रोस्कोप से, आप जितनी गहराई में जाकर देखने की कोशिश करेंगे, आप पाएंगे कि यह भव्यता लगातार बढ़ती जा रही है। यह इतनी शानदार है जितनी आप सोच भी नहीं सकते।
अगर आप एक पत्ते का चित्र वैसा ही बना दें, जैसा वह है, तो यह भी एक महान रचना बन जाती है। अरबों खरबों पत्ते हैं। क्या आपको कोई भी दो पत्ते एक जैसे नजर आते हैं? नहीं न? दरअसल, कोई भी अणु किसी दूसरे के जैसा नहीं हो सकता। यहां हर चीज विशिष्ट है।
अगर आपको एक अच्छी सी पेंटिंग बनानी है तो आपके पास संवेदनशील नजर का होना जरूरी है, हाथ नहीं, आंखें काबिल होनी चाहिए। इसका क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि आप इस जगत को दूसरों के मुकाबले ज्यादा गहराई से देख और समझ रहे हैं,आप इस जगत की तस्वीर दूसरों के मुकाबले कहीं बेहतर तरीके से ले रहे हैं।
तो ऐसे में हम या आप क्या रचनात्मकता दिखा सकते हैं? अगर हम बस इस रचना का आनंद लेते रहें, तो यही अच्छी बात होगी, लेकिन इंसान कुछ करना चाहता है। लोग कुछ करने के लिए आजाद हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं मान लेना चाहिए कि उन्होंने कोई रचना की है, क्योंकि यह सब उन्हें पूरी तरह से उलझन में फंसा देगा।
यही वजह है कि जब आप भारत या कुछ और पूर्वी देशों में आते हैं, तो आपको कला के उत्कृष्ट नमूने तो देखने को मिलते हैं, लेकिन बनाने वाले का नाम नहीं मिलता। ऐसे शानदार मंदिर मिलते हैं जो कला और सौंदर्य के साथ-साथ इंजीनियरिंग के मामले में भी बेजोड़ हैं, लेकिन यह किसी को नहीं पता कि उन्हें बनाया किसने? उन्हें बनाने वाला कलाकार कौन है, मुख्य आर्किटेक्ट कौन है? आपको कहीं कोई नाम नहीं मिलेगा। ऐसा इसलिए है कि इन्हें बनाने वाला यह बात अच्छी तरह से जानता था कि वह कोई नई चीज नहीं बना रहा है, वह तो बस इस जगत में पहले से मौजूद चीजों की नकल कर रहा है। ऐसे में इन रचनाओं पर अपना नाम लिख देना उसे फूहड़ता या भद्दापन लगा।
इधर को छोडक़र आप लगभग पूरी दुनिया में देखेंगे कि कलाकार का अपने काम के साथ जुड़ाव जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, दुर्भाग्य से उनके मन में एक खास तरह की ऐंठन आती जाती है। इस बात का यकीन उन्हें जितना ज्यादा होता है कि वे रचना कर रहे हैं, वे उतने ही ज्यादा सनकी होते जाते हैं। और वे जितने ज्यादा सनकी होते जाते हैं, समाज को वे उतने ही ज्यादा रचनात्मक प्रतीत होते हैं। ये सब ठीक नहीं है। दरअसल, जैसे ही आपके मन में यह विचार आता है कि मैं किसी नई चीज की रचना कर रहा हूं, तो मनोवैज्ञानिक रूप से आप एक बेचैनी की स्थिति में आ जाते हैं। अनावश्यक रूप से दिखावा करने लगते हैं, खुद की शेखी बघारने लगते हैं।
इसलिए सबसे खास बात यह है कि अगर कोई कलाकार किसी चीज की रचना करना चाहता है, तो सबसे पहले वह निरीक्षण करना शुरु करे। मान लीजिए आप संगीत की धुन बनाना चाहते हैं तो आपमें सुनने की अच्छी काबिलियत होनी चाहिए। अगर आपको एक अच्छी सी पेंटिंग बनानी है तो आपके पास संवेदनशील नजर का होना जरूरी है, हाथ नहीं, आंखें काबिल होनी चाहिए। इसका क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि आप इस जगत को दूसरों के मुकाबले ज्यादा गहराई से देख और समझ रहे हैं,आप इस जगत की तस्वीर दूसरों के मुकाबले कहीं बेहतर तरीके से ले रहे हैं। फूल सभी देखते हैं, लेकिन हर कोई फूल को उतनी गहराई से नहीं देखता। कोई उस पर बस एक नजर डालता है, कोई उसे नजरंदाज ही कर देता है, कोई उसकी तमाम बारीकियों को देख लेता है, तो कोई उसमें गहरे तक उतर जाता है। सवाल बस इस बात का है कि किसी चीज को आप कितनी गहराई के साथ देख और समझ रहे हैं, कितना आत्मसात कर रहे हैं।
रचनात्मकता के नाम पर आप जो भी कर रहे हैं, वह एक तरह से किसी दूसरे की रचना से कुछ चुराने जैसा है, यह एक चोरी है। खैर, आप इन चीजों को ले रहे हैं, यह अच्छी बात है, क्योंकि कम से कम आप ले तो रहे हैं। मैं इसे कम करके नहीं आंक रहा। लेकिन अगर कोई कलाकार ऐसा सोचता है कि 'वाह! देखो मैंने कितनी जबर्दस्त रचना कर दी है', तो आप देखेंगे कि उस कलाकार के लिए वह अनुभव अविश्वसनीय हो जाएगा। जब उसे यह लगने लगेगा कि 'मैंने यह रचना कर दी, मैंने वह रचना कर दी' तो वह पागल हो जाएगा। जितनी सुंदर रचना वह करेगा, उतनी ही जल्दी वह पागल होगा। इसकी वजह यह है कि आप रचना की बुनियादी चीजों के साथ खेल रहे हैं, जो कि आपको नहीं करना चाहिए। आप इस जगत के साथ तालमेल में रहिए, इसे प्रतिबिंबित कीजिए।
आप कुछ भी रचने की कोशिश न करें, बस अस्तित्व को अपने भीतर उतार लें। अगर आपने इस अस्तित्व को पी लिया, बहुत गहराई में अपने भीतर उतार लिया तो यह बाहर निकलने का कोई न कोई रास्ता ढूंढ ही लेगा।
आप सृष्टि को बस प्रतिबिंबित कर सकते हैं। जितनी ज्यादा स्पष्टता के साथ आप इसे प्रतिबिंबित कर पाएंगे, उतने ही अच्छे कलाकार आप होंगे और अगर आप ऐसा कर पाए तो यह बहुत बड़ी बात होगी। लेकिन आपमें इतनी विनम्रता होनी चाहिए कि यह मान सकें कि आप महज प्रतिबिंबित कर रहे हैं, कुछ रच नहीं रहे हैं। अगर आप इस बात को समझते हैं, तो आप बहुत सारे ऐसे कामों को करने में सक्षम होंगे जो लोगों को जादुई लगते हैं। लेकिन आप इन कामों को बिना कोशिश के बस यूं ही करते चले जाएंगे।
आप कुछ भी रचने की कोशिश न करें, बस अस्तित्व को अपने भीतर उतार लें। अगर आपने इस अस्तित्व को पी लिया, बहुत गहराई में अपने भीतर उतार लिया तो यह बाहर निकलने का कोई न कोई रास्ता ढूंढ ही लेगा। हो सकता है यह किसी गाने के रूप में बाहर निकले, हो सकता है नृत्य के रूप में अभिव्यक्त हो जाए, हो सकता है कोई पेंटिंग बन जाए या बिल्कुल उस रूप में अभिव्यक्त हो जाए, जिस रूप में आप हैं। लेकिन यह तय है कि किसी न किसी रूप में यह अभिव्यक्त जरूर होगा। आप इसे रोक नहीं सकते। आप या तो कलाकार बन जाएंगे या खुद ही एक कलाकृति बन जाएंगे। दोनों स्थितियां ठीक हैं। जिस किसी ने भी जीवन का गहराई से अनुभव किया है, उसे आप नजरंदाज नहीं कर सकते। ऐसे शख्स को या तो आप उसके काम से पहचानते हैं, या फिर उसके काम की अनुपस्थिति से। तो आपको बस इस ओर ध्यान देना है कि इस जगत का मैं कितनी गहराई के साथ अवलोकन कर सकता हूं। इसे कितनी गहराई तक मैं आत्मसात कर सकता हूं, अपने भीतर उतार सकता हूं। आपके अंदर से जो बाहर आना है, वह तो आ ही जाएगा। अगर आपके हाथ अच्छे हैं, तो वो पेंटिंग बन बाहर आएगा। अगर आपकी आवाज में दम है तो वह गाना बन जाएगा। अगर आपकी बुद्धि तीक्ष्ण है तो कुछ और बन जाएगा, लेकिन यह तय है कि किसी न किसी रूप में यह अभिव्यक्त हो ही जाएगा।

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