प्रश्न: सद्‌गुरु, यह बहुत दिलचस्प बात है कि आप ग्रामीण इलाक़ों में लोगों तक पहुंचने के लिये खेलों को ज़रिया बना रहे हैं। कृपया बतायें कि ईशा फाउंडेशन ने ‘सामुदायिक विकास कार्यक्रम’ को चलाने में किस तरह खेलों का उपयोग किया है?

सद्‌गुरु: यह तब की बात है जब बहुत सालों पहले, हमने पहला 'एक्शन फॉर रूरल रेजुवेनेशन' (एएफआरआर,AFRR) कार्यक्रम शुरू किया था। हम गाँव के लोगों को एक ध्यान प्रक्रिया सिखाना चाहते थे। जब पहली क्लास हुई तो सौ से थोड़े ज्यादा लोग आए थे। तीसरे दिन हमने सभी लोगों को खाना खिलाया। चौथे दिन आधे लोग नहीं आये। जब मैंने जानना चाहा कि ऐसा क्यों हुआ तो मुझे बताया गया कि वे लोग इसलिए नहीं आए क्योंकि उन्हें दूसरी जाति के लोगों के साथ बैठ कर खाना मंज़ूर नहीं था। मैंने तय किया कि अगर ऐसा हो रहा है तो मुझे कार्यक्रम नहीं करना। मैंने कार्यक्रम बीच में ही बन्द कर दिया।

मैंने उन्हें एक साथ बैठ कर खाने को कहा था जो एक विवाद का मुद्दा बन गया, तो मैंने सोचा कि अगर साथ बैठ कर खाना उनके लिये एक समस्या है तो हम कार्यक्रम इस ढंग से करें कि वे साथ-साथ खेलें।

लेकिन फिर मैंने इस बारे में सोचा, मैंने देखा कि यह समस्या हज़ारों सालों से है, इसे रातों रात हल नहीं किया जा सकता। मैंने उन्हें एक साथ बैठ कर खाने को कहा था जो एक विवाद का मुद्दा बन गया, तो मैंने सोचा कि अगर साथ बैठ कर खाना उनके लिये एक समस्या है तो हम कार्यक्रम इस ढंग से करें कि वे साथ-साथ खेलें।

 

 

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उन्हें साथ-साथ खेलने में कोई परेशानी नहीं थी और इससे ‘एएफआरआर’ की दिशा ही बदल गई क्योंकि साथ-साथ खेलने में वे भूल गये थे कि वे कौन हैं? यह खेल की सुंदरता है -- जैसे ही आप खेल के मैदान पर उतरते हैं, आप में एक खास तरह का त्याग आ जाता है, और आपकी पहचान गायब हो जाती है।

हम दुनिया भर में, अपने कार्यक्रमों में खेल का इस्तेमाल करते हैं। हम जहां भी कोई ध्यान की प्रक्रिया सिखाते हैं, ध्यान की प्रक्रिया में उन्हें ले जाने से पहले हमेशा एक घंटे का कोई सरल खेल होता है जो वे खेलते हैं, जहां लोग बच्चों जैसे हो जाते हैं। वे चीखते-चिल्लाते हैं, दौड़ते-भागते हैं, खुलकर खेलते हैं। अगर त्याग का भाव न हो, अगर लोग चीख़-चिल्ला नहीं सकते, हंस-कूद नहीं सकते, खेल नहीं सकते, तो वे निश्चित तौर पर ध्यान भी नहीं कर सकते।

 

खेल से मिटता भेद

जाति और इस तरह के दुराग्रह हज़ारों सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे हैं। लेकिन हमने देखा है कि जब गांवों की टीमें बनती थीं और जब तमिलनाडु में सब ‘लीग टूर्नामेंट’ शुरू हुए तो जो भी अच्छा खेलता था वह हीरो बन जाता था। फिर कोई उसकी जाति को नहीं देखता था। वह उनके गांव का ‘चैम्पीयन’ होता था और उनके लिए बस यही मायने रखता था। खेल ने जाति के अंतर को पाट दिया, पूरी तरह से नहीं तो भी कुछ हद तक। इसने एक तरह से अलग-अलग समुदायों के बीच पुल बना दिया।

आज भी जब कोई मैच चल रहा होता है तो आप देखेंगे कि सभी समुदाय साथ-साथ आ जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि वे कौन हैं। शुरुआत में वे अपने ही लोगों के साथ खड़े होते हैं, पर जैसे-जैसे खेल रफ़्तार पकड़ता है, दर्शक उछलने लगते हैं और फिर एक दूसरे के साथ घुलमिल जाते हैं। वे एक दूसरे की पीठ ठोकते हैं और भूल जाते हैं कि वे कौन हैं?

 

यह खेल की सुंदरता है। आप पूरी तरह से जुड़े बगैर खेल नहीं सकते। सम्पूर्ण भागीदारी, पूरी तरह से जुड़ जाना, शामिल होना, यह किसी भी खेल का मूल मंत्र है। अगर पूरा जुड़ाव नहीं है तो कोई खेल संभव ही नहीं है। खेल उनके भीतर भागीदारी का ऐसा भाव लाता है कि वे बड़ी बातों के लिये तैयार हो जाते हैं। हम गांवों में खेलों का इस्तेमाल बहुत ही प्रभावशाली ढंग से कर रहे हैं जिसके कारण वे शांत, स्थिर हो जाते हैं और ध्यान में उतरते हैं, जिसकी उन्होंने अपने जीवन में कभी कल्पना भी नहीं की थी। विवेकानंद ने तो यहाँ तक कहा था कि प्रार्थना करने से ज्यादा आप ईश्वर के करीब तब होते हैं जब फुटबॉल खेल रहे होते हैं।

जब कोस्टारिका जैसा छोटा सा देश, जिसकी कुल जनसंख्या सिर्फ़ 50 लाख है, फुटबॉल विश्व कप फाइनल्स में अपनी टीम भेज सकता है, तो हमारे सवा सौ करोड़ लोग क्यों एक टीम नही बना सकते?

 

खेल और भारत का भविष्य

प्रश्न: एक राष्ट्र के रूप में हमारे पास बहुत सारी समस्याएं हैं। आपके अनुसार भारत के विकास में खेलों की क्या भूमिका हो सकती है? सदगुरु: एक बात तो यह है कि सवा सौ करोड़ लोगों के लिये हमारे देश में खेल बहुत ही कम हैं। जब हमारे पास करोड़ों लोग हैं तो दुनिया में खेले जाने वाले हर खेल के लिये हमारे पास बढ़िया टीमें होनी चाहिए। जब कोस्टारिका जैसा छोटा सा देश, जिसकी कुल जनसंख्या सिर्फ़ 50 लाख है, फुटबॉल विश्व कप फाइनल्स में अपनी टीम भेज सकता है, तो हमारे सवा सौ करोड़ लोग क्यों एक टीम नही बना सकते?

इसका कारण यह है कि हमने कभी भी खेलों को अपने जीवन के महत्वपूर्ण हिस्से के रुप में नहीं लिया है। हमने अपने खेलकूद के जज़्बे को कई तरह से खो दिया है, जिसकी हमें भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। अब समय आ गया है कि इस राष्ट्र में हम सभी स्तरों पर खेलकूद को अपने जीवन में वापस लाएं। स्कूलों में यह ज़रूरी है कि कम से कम 15 से 20 फ़ीसदी समय खेलों को दिया जाये जिससे बच्चे में खेल-भावना, चंचलता बनी रहे। कक्षा के एक कोने में बैठे रहने की बजाय एक बच्चे को खेल के ज़रिए बहुत कुछ सिखाया जा सकता है। उसके शरीर एवं दिमाग को चुस्त व फुर्तीला बनना चाहिए। अगर उसका शरीर और दिमाग फुर्तीला नहीं है तो आप उसे क्या सिखा सकते हैं?

यह जरूरी नहीं है कि हम हर समय प्रतियोगितात्मक खेल ही खेलें। ये सिर्फ मजे के खेल भी हो सकते हैं, लेकिन लोगों को खेलना चाहिये। शरीर और दिमाग का विकास होना बहुत ज़रूरी है। तभी हम एक ऐसी मानवता विकसित कर सकते हैं जो क़ाबिल हो। अगर वो क़ाबिलियत छोटी उम्र में नहीं लाई गई तो बाद में देश के अधिकतर लोग फ़िट नहीं होंगे।

 

आजीवन चुस्त दुरुस्त

कुछ समय पहले मैं कुछ कारोबारी लोगों और उनके परिवारों के लोगों के साथ बातचीत कर रहा था। मैंने उनसे कहा कि आप में से कोई भी जीवन के लिए फ़िट नहीं है। वे बोले, ‘आप क्या कहना चाहते हैं? हमारा स्वास्थ्य तो बहुत अच्छा है, हम लोग कामयाब भी हैं।’ मैंने कहा, ‘मान लीजिए, कल सुबह आप सड़क पर टहल रहे हैं और वहां अचानक एक बाघ आ जाए। ऐसे में आप में से कितने हैं जो पेड़ पर चढ़कर अपनी जान बचा सकते हैं? आप में से कोई एक भी ऐसा नहीं कर सकेगा। सिर्फ़ वो आदमी जो वहां सड़क साफ कर रहा है, वो पेड़ पर चढ़ कर अपने आप को बचा लेगा। बाकी आप सब लोग जो ख़ुद को सफल मानते हैं, बाघ के लिये नाश्ता बन जाएंगे।’

भारत में आम तौर पर लोगों की फ़िटनेस का स्तर काफी नीचे है। पिछले कुछ सालों में थोड़ा बहुत उत्साह लोगों में बढ़ा है लेकिन यह सिर्फ समाज के कुछ खास वर्ग में है। ये सारे देश में फैलना चाहिए, बढ़ना चाहिए।

अगर हमें एक महान राष्ट्र बनना है तो सबसे पहले हमारे लोगों को स्वस्थ्य और मजबूत होना चाहिये। ऐसा करने में खेलों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है। व्यक्तिगत स्तर पर लोगों को अच्छी तरह स्वस्थ्य एवं चुस्त बनाये बिना आप देश को महान नहीं बना सकते। और इस कारण खेलों की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।