शंकराचार्य एक महान बौद्धिक हस्ती थे, भाषाओं के महारथी और सबसे बड़ी बात कि एक आध्यात्मिक प्रकाश पुंज व भारत का गौरव थे। बेहद कम उम्र में उन्होंने ज्ञान और विवेक का जो स्तर दिखाया था, उसने उन्हें मानवता के लिए एक चमकती ज्योति बना दिया। आप ऐसे प्राणियों को कैसे रचते हैं? अपनी अल्पायु में ही उन्होंने भारत देश को लंबाई और चौड़ाई में नाप डाला। भारत के सुदूर दक्षिणी छोर से चलते हुए वह देश के मध्य में पहुंचे और जहां से वह उत्तर भारत में आगे की ओर बढ़े और फिर वह पूर्व और पश्चित की तरफ गए। सवाल उठता है कि उनमें इसके लिए जरूरी ऊर्जा, उत्साह, विवेक कहां से आया? इसका एक पहलू महत्वपूर्ण और प्रतीकात्मक दोनों है कि शंकराचार्य दक्षिण भारत स्थित कालड़ी नामक एक गांव से आते थे, जो आज एक छोटा सा कस्बा है। कालड़ी का शाब्दिक होता है- ‘पैरों के नीचे या पैरों तले’। दक्षिण में हम लोग भारत माता के चरणों में रहते हैं, यह चीज कई रूपों में हमारे लिए फायदेमंद रही है।

आने वाली पीढ़ी ऐसी सभी चीजों को नकार देगी, जो उनकी तार्किकता पर खरी नहीं उतरेगी या उन्हें तार्किक रूप से ठीक नहीं लगेगी और जो वैज्ञानिक रूप से ठीक नहीं होगी।
महाभारत का एक सुंदर प्रसंग है, जिसके बारे में आपमें से ज्यादातर लोग जानते होंगे। जब कुरुक्षेत्र का युद्ध तय हो गया तो अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही कृष्ण का सहयोग लेने के लिए उनके पास पहुंचे। कृष्ण उस समय सो रहे थे। दुर्योधन उनके सिर के पास जाकर खड़े हो गए और अर्जुन उनके पांवों के पास। दोनों की स्थितियों ने सब कुछ तय कर दिया। उस दोपहर जब अर्जुन कृष्ण के चरणों के पास खड़े हुए थे, उसी दौरान उन्होंने महाभारत का युद्ध जीत लिया था। यह हमारे देश और संस्कृति की बुनियादी प्रकृति है- क्योंकि हम हर चीज के प्रति नमन करते हैं, इसलिए ऊपर उठते हैं। हम लोग कोहनी मार कर या दूसरों को ठेल कर अपना रास्ता नहीं बनाते, बल्कि हम चीज के प्रति झुक कर आगे बढ़ते हैं।

उनकी प्रज्ञा और ज्ञान, आत्म-ज्ञानका परिणाम हैं

भारत का मतलब है कि हमने हमेशा सीखा है कि दैवीयता के चरणों में कैसे रहा जाए। यह संस्कृति आडंबर या दिखावे की नहीं, बल्कि स्वाभाविक भक्ति की है। चाहे वो भगवान हों, स्त्री हो, पुरुष हो, बच्चा हो, जानवर हो, पेड़ हो या फिर एक पत्थर हो, हमने हर चीज के सामने नमन करना सीखा है। सिर्फ एक इसी पहलू के चलते हम लोग महान प्राणी रचने में सक्षम रहे। दैवीयता के चरणों में रह कर ही हमने सीखा, खुद को विकसित किया, निखारा, हम पल्लवित हुए और लंबे समय तक हम पूरी दुनिया के लिए प्रकाश पुंजों का काम करते रहे।

Subscribe

Get weekly updates on the latest blogs via newsletters right in your mailbox.

हजारों साल पहले, शंकराचार्य से भी पहले, आदियोगी से लेकर तमाम योगियों, रहस्यदर्शियों, दिव्यात्माओं, साधु व संतों ने यह बात कई तरह से कही है। उन्होंने जिस बौद्धिक स्पष्टता के साथ इसे अभिव्यक्त किया, जिस उत्साह व ऊर्जा के साथ इस विचार को पूरे देश में फैलाया, उसने शंकराचार्य को सबसे अलग खड़ा कर दिया। आज के दौर में एक पहलू बहुत महत्वपूर्ण है कि यह सारी प्रज्ञा, सारा ज्ञान किसी मत या विश्वास के चलते नहीं आया है, बल्कि यह आत्म-ज्ञान से आया है। जब तक कि आध्यात्मिक प्रक्रिया किसी न किसी रूप में बुनियादी मानव तर्क व मौजूदा विज्ञान की खोज से जुड़ी नहीं होगी, लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे। आने वाली पीढ़ी ऐसी सभी चीजों को नकार देगी, जो उनकी तार्किकता पर खरी नहीं उतरेगी या उन्हें तार्किक रूप से ठीक नहीं लगेगी और जो वैज्ञानिक रूप से ठीक नहीं होगी।

आदि शंकराचार्य ने ब्रह्माण्ड को माया क्यों कहा था?

इस संदर्भ में आज शंकराचार्य बेहद महत्वपूर्ण हो उठते हैं। उन्होंने जो कहा था, उसे लेकर कुछ गलतफहमी है। मुझे लगता है कि हमें उनके लिए कम से कम इस एक ग़लतफहमी को मिटाना चाहिए।

इसी तरह से आप जिस तरह से इस अस्तित्व या सृष्टि को देखते हैं, आप अपनी पांच ज्ञानेंद्रियों द्वारा इस सृष्टि को समझते व महसूस करते हैं, वह सब पूरी तरह से वास्तविकता से दूर है, यह भ्रम या माया है।   
बहुत सारे लोग कहते हैं कि उन्होंने जो कहा है, वो क्या मूर्खता है- ‘हर चीज़ माया है’। इसे गलत तरीके से परिभाषित किया गया या समझा गया है कि माया का मतलब जिसका अस्तित्व ही नहीं है। माया का मतलब यह नहीं है कि इसका अस्तित्व ही नहीं है। माया का मतबल एक भ्रम है, यानी जैसी कोई चीज वास्तव में है, उसे आप वैसा नहीं देख रहे हैं। आप यहां पर ठोस शरीर के तौर पर दिखाई देते हैं, लेकिन जो भोजन आप खाते हैं, जो पानी आप पीते हैं, जो हवा आप सांस के रूप में लेते हैं, उनसे आपके शरीर की कोशिकाएं अदल बदल रही हैं। आपके ऊतक व शरीर के अंग,कोशिकाओं की प्रकृति के आधार पर कुछ दिनों से लेकर कुछ सालों के भीतर पूरी तरह से बदल कर पुनर्जीवित हो जाते हैं। इसका मतलब हुआ कि कुछ समय बाद आप पूरी तरह से एक नया शरीर होते हैं। लेकिन अपने अनुभव में आपको ऐसा लगता है कि यह वही शरीर है, यही माया है।

पांच इन्द्रियों की सूचना भ्रमित करती है

इसी तरह से आप जिस तरह से इस अस्तित्व या सृष्टि को देखते हैं, आप अपनी पांच ज्ञानेंद्रियों द्वारा इस सृष्टि को समझते व महसूस करते हैं, वह सब पूरी तरह से वास्तविकता से दूर है, यह भ्रम या माया है। यह एक तरह की मृगतृष्णा या मरीचिका है। अगर आप हाइवे पर चले जा रहे हैं तो कभी-कभी काफी दूर पर आपको पानी सा कुछ दिखाई देता है। लेकिन जब आप वहां पहुंचते हैं तो आपको वहां पानी बिलकुल नहीं मिलता। इसका यह मतलब नहीं था कि वहां कुछ नहीं था। वहां प्रकाश का कुछ ऐसा परावर्तन हुआ कि जिसने वहां दूर से पानी होने का भ्रम पैदा कर दिया। जो एक चीज थी, वह दूसरे होने का भ्रम पैदा कर रही थी। आप जिसे ‘मैं’ समझ रहे हैं, वास्तव में वह सबकुछ है, यही माया है। आप जिसे दूसरा समझ रहे हैं, वही वास्तव में आप हैं। आप जिसे सबकुछ समझ रहे हैं, वह शून्य भी है। तो शंकराचार्य इस माया की बात कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि इस मानव सिस्टम को जानकर इंसान पूरे ब्रम्हांड को जान सकता है। आधुनिक भौतिक शास्त्र भी आपसे यही कह रहा है कि पूरा ब्रम्हांड बुनियादी तौर पर एक ही ऊर्जा है। इसी तरह से शंकराचार्य ने कहा था कि सृष्टि और उसका रचयिता एक ही हैं। आज काफी कोशिशों के बाद आधुनिक विज्ञान भी उसी नतीजे पर पहुंचा है, जिसके बारे में शंकराचार्य और तमाम ऋषियों ने हजारों साल पहले पूरी स्पष्टता के साथ कह दिया था।

यह आध्यात्मिक ज्ञान या विवेक पहाड़ों से उतर कर नीचे शहरों, कस्बों, गांवों और सबसे बड़ी बात कि लोगों के दिल व दिमाग में आना चाहिए। अब समय आ गया है कि उस संस्कृति, उस भक्ति, उस विनम्रता को अपने समाज में वापस लाया जाए, जिसने हमें अद्भुत लाभ पहुंचाया है और वो चीज है- नमन करने या झुकने की कला सीखना। यह हमारी ताकत रही है, यह हमारा तरीका रहा है, यह हमारे विकास और आत्म ज्ञान की प्रक्रिया और विधि रही है। यह सबसे बड़ा खजाना बनने जा रहा है, यह देश का भविष्य बनने जा रहा है। अगर हमने सिर्फ यह एक चीज कर ली तो पूरी दुनिया मार्गदर्शन के लिए हमारी ओर देखेगी। चलिए शंकराचार्य की उस भावना को इस देश और बाकी दुनिया में फिर से जागृत किया जाए।

Love & Grace