उमंग और उत्सव में जीना सिखाते हैं खेल
खेलों को हम अक्सर मनोरंजन के साधन के तौर पर समझ लेते हैं। क्या कभी आपने सोचा है कि खेल ना केवल सामाजिक समानता लाने में मददगार हैं, बल्कि यह आध्यात्मिकता का एक सोपान भी है ?
खेलों को हम अक्सर मनोरंजन के साधन के तौर पर जानते हैं। क्या कभी आपने सोचा है कि खेल ना केवल सामाजिक समानता लाने में मददगार हैं, बल्कि यह आध्यात्मिकता का एक सोपान भी है ?
प्रश्न: सद्गुरु, समाज का निर्माण करने या सामाज में भाईचारा पैदा करने में खेलों की क्या भूमिका है?
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सद्गुरु:
एक वक्त था जब भारत में साल के 365 दिन 365 त्योहार मनाए जाते थे। इसका मतलब है कि हमारी पूरी की पूरी संस्कृति हमेशा उत्सव के माहौल में रहती थी। जहां हर पल उत्सव था। अगर आज खेत जोतने का दिवस है तो यह एक तरह का उत्सव था। कल वृक्षारोपण दिवस है तो दूसरी तरह से खुशियां मनाई जाती थीं। परसों कूड़ा-करकट साफ करने का दिन है तो वह भी उत्सव। यहां तक कि फसल कटाई का मौका भी जश्न का होता था, जो कि आज भी एक उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। इतना ज्यादा जश्न मनाने वाली हमारी संस्कृति अब निराशा और कुंठा की स्थिति में पहुंच गई है।
आप खेलते हुए जो भी कर रहे हैं, उसमें पूरी तरह से लीन होना खेल का सबसे जरूरी हिस्सा है। जरा सोचिए, ऐसा क्यों होता है कि कहीं कोई फुटबॉल मैच हो रहा है और उसकी वजह से दुनिया के दूसरे हिस्सों में बैठे करोड़ों लोग उसका मजा लेते हैं, तालियां बजाते हैं और चीखते-चिल्लाते हैं। मैच खेल रहे खिलाडिय़ों का खेल के साथ जबर्दस्त जुड़ाव होने की वजह से ऐसा होता है।
आप जो भी कर रहे हैं, उसके साथ पूरी तरह से जुडऩा, अपने लक्ष्य पर पूरा ध्यान लगाना और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपनी क्षमताओं को उनकी सीमाओं से आगे ले जाना सफल जीवन के सबसे महत्वपूर्ण घटक हैं।
खेलों के बारे में एक अच्छी बात यह है कि यह समुदायों को बराबरी पर लाने का काम करते हैं। जो कोई भी अच्छा खेल दिखा रहा है, वह सबकी नजरों में आ जाता है और महत्वपूर्ण हो जाता है। कोई भी उसकी जाति, संप्रदाय या नस्ल की फिक्र नहीं करता। खेलों की सबसे बड़ी खूबी यह है, कि एक बार आप मैदान में पहुंच गए, तो फिर बस इतना ही महत्वपूर्ण रह जाता है कि आप कौन हैं और उस वक्त आप क्या कर रहे हैं। आपके पिता कौन थे और वह क्या करते थे, इसका कोई महत्व नहीं रह जाता। यहां आपकी काबिलियत ही आपको पहचान दिलाती है, आप पहले से क्या करते रहे हैं, इसके कोई मायने नहीं होते। यह सवाल कोई नहीं पूछता कि महेंद्र सिंह धोनी की जाति क्या है, क्योंकि इसकी किसी को कोई परवाह नहीं है। धोनी मैदान पर क्या करते हैं, हमारे लिए उसी के मायने हैं। इस तरह से देखा जाए तो खेल समाज में बराबरी लाने का एक बड़ा जरिया है।
खेलों से सामाजिक विकास
खेल खेलने और समुदाय के लोगों के बीच खेलों को लाने की प्रक्रिया समुदाय में मेलजोल का भाव पैदा करती है, जो तमाम उपदेशों से भी संभव नहीं है। नैतिक और धार्मिक शिक्षाएं मेलजोल का वह भाव कभी पैदा नहीं कर सकतीं, जो खेल कर सकते हैं, क्योंकि खेल ही लोगों को एक साथ रहने और मिलकर एक दिशा में आगे बढऩे के लिए स्वाभाविक तौर पर प्रेरित करते हैं। जब आप किसी टीम के साथ खेलते हैं, तो इससे आपके भीतर समावेश, यानी सबको साथ लेकर चलने का एक खास भाव पैदा होता है। अगर आप किसी टीम के सदस्य के तौर पर कोई खेल खेलना चाहते हैं तो तब तक आप अच्छा नहीं खेल सकते, जब तक अपनी टीम के सदस्यों के साथ एक खास तरह का जुड़ाव महसूस नहीं करेंगे। यही बात आपकी विरोधी टीम के साथ भी है। समावेश का यह भाव, टीम के दूसरे सदस्यों के प्रति अपनी पसंद या नापसंद से परे जाकर सभी को साथ लेकर चलने के लिए प्रेरित करता है। इस तरह से सामूहिक रूप से एक साझे लक्ष्य की ओर बढऩे जैसी बातें ही समाज निर्माण के लिए जरूरी बुनियादी तत्वों को पैदा करती हैं।
अगर खेलों को शुरुआती स्तर पर इस्तेमाल किया जाए तो सामाजिक बदलाव, आर्थिक पुनरुद्धार और आध्यात्मिक विकास जैसी बातें समाज में आसानी से लाई जा सकती हैं। यह जरूरी नहीं है कि इसके लिए खेलों में प्रतियोगिता लाई जाए। महत्वपूर्ण यह है कि हर इंसान के अंदर खेल की भावना विकसित की जाए, ताकि हर इंसान जीवन में पूरी तरह शामिल होने के लिए तैयार हो सके।
खेल के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आप आधे अधूरे मन से खेल में शामिल नहीं हो सकते। आप अपने काम पर आधे अधूरे मन से जा सकते हैं, अपनी शादी को भी आधे अधूरे मन से चला सकते हैं लेकिन आधे अधूरे मन से खेल नहीं सकते।