प्रतिशोध यानी बदले की भावना ने हमेशा से विनाश ही किया है। विनाश की महागाथा - महाभारत के तीन महत्वपूर्ण पात्र - द्रोण , द्रुपद और द्रौपदी भी इसी प्रतिशोध की अग्नि में जल रहे थे। क्या थी उनके प्रतिशोध की वजह ?

प्रश्‍न: 

सद्‌गुरु, क्या आप द्रौपदी और उसके परिवार के बारे में कुछ बता सकते हैं?

सद्‌गुरु:

द्रौपदी का असली नाम कृष्णा था। ‘कृष्ण’ पुरुष-नाम या कहें पुरुष-गुण है, जबकि ‘कृष्णा’ स्त्री-नाम या स्त्री-गुण है। चूंकि उनके पिता राजा द्रुपद थे, इसलिए उन्हें द्रौपदी कहा गया। उनका एक नाम पांचाली भी था, क्योंकि वह पांचाल राज्य की राजकुमारी थीं।

द्रौपदी के पिता राजा द्रुपद का राज्य काफी बड़ा था और उनके पास एक बहुत शक्तिशाली सेना थी। द्रुपद एक भले और बुद्धिमान राजा थे। उस समय बहुत से ऐसे निरंकुश शासक थे जो किसी न किसी तरीके से, चाहे बल से या छल से दूसरे राज्यों को हड़पने की कोशिश में रहते थे। लेकिन द्रुपद ऐसे नहीं थे। वह एक योग्य शासक थे जो कुशलतापूर्वक अपना राज्य चलाते थे। एक शक्तिशाली राजा होने के नाते उनसे कोई आसानी से उलझता नहीं था। द्रौपदी के तीन भाई थे - धृष्टद्युम्न, सत्यजीत और शिखंडी।

अपने जीवन में घटी कुछ घटनाओं के चलते द्रौपदी ने एक तरह से आग की लौ की तरह अपना जीवन जिया। उसके जीवन में जो सबसे पहला महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा, वह उसके पिता से संबंधित था।

उन दिनों किसी को मारने का मतलब यह नहीं होता था कि आप उसके पीछे गए और आपने पीछे से उसे मार गिराया। उस समय आपको अगर किसी को मारना होता था तो आपको उससे द्वंद्व यु़द्ध करना पड़ता था।
दरअसल, उनके पिता जब पढ़ रहे थे तो उनके गुरु के आश्रम में उनके साथ कुछ और विद्यार्थी भी थे जिनमें से एक द्रोणाचार्य थे। उन दिनों क्षत्रिय, जो शासक हुआ करते थे, उनको युद्ध व शस्त्र विद्या भी आवश्यक रूप से सिखाई जाती थी। वे लोग तीरंदाजी, गदाबाजी व दूसरी कई अन्य शस्त्र विद्याएं सीखते थे।

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उन दिनों पुरोहित का काम करने वाले कुछ ब्राह्मण लोग भी शस्त्र विद्या सीखते-सिखाते थे। आमतौर पर सभी अध्यापक ब्राह्मण होते थे और उन्हें भी अस्त्र-शस्त्र की जानकारी दी जाती थी। ये लोग कभी राजा तो नहीं बन पाते थे, लेकिन ये लोग अलग-अलग राजाओं के यहां सेनापति और राजगुरु का काम करते थे। ये लोग वेद और शस्त्र, दोनों ज्ञान में पारंगत हुआ करते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो शस्त्र और शास्त्र दोनों के ज्ञाता हुआ करते थे। इन लोगों के आश्रम में अध्यात्म और युद्ध कौशल दोनों की शिक्षा दी जाती थी।

जब द्रुपद और द्रोणाचार्य साथ पढ़ रहे थे तो उन दोनों के बीच गहरी दोस्ती हुआ करती थी। इनमें से एक ब्राह्मण था और दूसरा क्षत्रिय। द्रोणाचार्य धनुर्विद्या में जबरदस्त पारंगत थे। एक दिन द्रुपद ने आपसी दोस्ती और लगाव के चलते द्रोण से कहा कि जब मैं राजा बनूंगा तो मैं अपना आधा राज्य तुम्हें दे दूंगा। हालांकि उन्होंने जब यह बात कही तब वह बालक ही थे। लेकिन आगे चल कर वो एक शक्तिशाली राज्य के राजा बने।

दूसरी ओर द्रोणाचार्य अपना अध्ययन खत्म करके किसी राज्य में अच्छे अवसर की तलाश करने लगे। हालांकि वह एक महान धनुर्धर थे, फिर भी उन्हें कहीं किसी दरबार में राज-गुरु होने का मौका नहीं मिला। तब द्रोण ने द्रुपद के पास जाने का फैसला किया ताकि उनके दरबार में उन्हें कोई काम मिल सके। खैर, जब द्रोण दु्रपद के यहां पहुंचे तो उनका हाल देख पहरेदारों ने उन्हें भीतर नहीं जाने दिया। स्वाभिमानी द्रोण को यह रवैया पसंद नहीं आया। उन्हें द्वारपालों से राजा को एक संदेश देने के लिए कहा कि ‘अपने राजा से कह दो कि द्रोणाचार्य आए हैं। मैं उनका मित्र हूं।’ जिस अधिकार भरे अंदाज में उन्होंने द्वारपालों से यह कहा, उसे देखकर द्वारपाल ने उन्हें अंदर जाने की इजाजत दे दी।

द्रुपद के पास संदेश गया कि एक सामान्य सा ब्राह्मण जिसका नाम द्रोणाचार्य है और जो खुद को उनका मित्र बता रहा है, उनसे मिलने आया है। एक विशाल राज्य के राजा होने के अहंकार में डूबे द्रुपद को द्रोण का यह अंदाज अखर गया। खैर, द्रोण भीतर आए और उन्होंने द्रुपद को याद दिलाया कि उन्होंने अपनी मित्रता में एक बार कहा था कि वह राजा बनने पर उन्हें अपने राज्य का आधा हिस्सा दे देंगे।

एक आदिवासी बालक था एकलव्य, जो धनुर्विद्या सीखना चाहता था। उसने द्रोणाचार्य और उनकी धनुर्विद्या के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। इसलिए वह एक दिन धनुष-विद्या सीखने के लिए द्रोणाचार्य के आश्रम पहुंचा।
इस पर द्रुपद ने उनसे कहा, ‘केवल एक राजा ही राजा का दोस्त हो सकता है। पहले खुद को देखो, तुम कुछ भी नहीं हो। चले जाओ यहां से।’ यह सुनकर द्रोणाचार्य ने खुद को बेहद अपमानित महसूस किया और उन्होंने इस अपमान का बदला लेने का प्रण कर लिया।

उस दिन से द्रोणाचार्य के मन में नफरत की आग जलने लगी। इसके बाद वह उस समय के सबसे शक्तिशाली राज्य हस्तिनापुर के राज-आचार्य नियुक्त हो गए। उन्होंने अपने समय के सबसे शक्तिशाली युवराजों - सौ कौरवों और पांच पांडवों को पढ़ाना शुरू कर दिया। जब अर्जुन की शिक्षा-दीक्षा पूरी हो गई और वह एक महान धनुर्धर बन गया तो उसने एक दिन अपने गुरु के प्रति सम्मान दिखाते हुए पूछा कि वह गुरुदक्षिणा में क्या चाहेंगे? द्रोणाचार्य अपने शिष्यों से क्रूर गुरुदक्षिणा लेने के लिए जाने जाते थे।

इसके पीछे भी एक कहानी है। एक आदिवासी बालक था एकलव्य, जो धनुर्विद्या सीखना चाहता था। उसने द्रोणाचार्य और उनकी धनुर्विद्या के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। इसलिए वह एक दिन धनुष-विद्या सीखने के लिए द्रोणाचार्य के आश्रम पहुंचा। द्रोणाचार्य ने उसे यह कहते हुए झिडक़ दिया कि ‘हम यहां आदिवासियों को नहीं सिखाते।’ लेकिन एकलव्य के मन में द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखने की जबरदस्त ललक थी। अत: गुरु के मना करने के बाद वह अपने घर वापस लौट आया और उसने जंगल में द्रोणाचार्य की एक प्रतिमा बनाकर उसके सामने धनुष अभ्यास करने लगा। वह रोज उस प्रतिमा के सामने जाता, उसे प्रणाम करता, उसकी पूजा करता और फि र उसी से प्रेरणा लेकर खुद ही अपने अभ्यास में जुट जाता।

एक बार पांडव और कौरव जंगल-भ्रमण के लिए निकले थे। उनके साथ अर्जुन का पालतू कुत्ता भी था। कुत्ते ने जब एकलव्य को देखा तो उसने भौंकना शुरु कर दिया। एकलव्य ने अपना धनुष उठाया और उसने दनादन ऐसे तीर चलाए कि उन तीरों से उस कुत्ते का मुंह बंद हो गया और कुत्ते को घाव भी नहीं लगा, बस कुत्ते की आवाज निकलनी बंद हो गई। जब अर्जुन ने कुत्ते के मुंह को इस तरह तीरों से भरा देखा तो सहसा उसे विश्वास ही नहीं हुआ। वह सोचने लगा कि तीरों को इस तरह से किसने चलाया होगा? उसने खुद आज तक ऐसा कोई करिश्मा नहीं किया था।

यह देख अर्जुन उस धनुर्धर की खोज करने निकल पड़ा। कुछ देर बार जब उसे एकलव्य मिला तो उसने पूछा कि तुम्हारा गुरु कौन है? एकलव्य ने जवाब दिया - द्रोणाचार्य। यह सुनते ही अर्जुन ईष्र्या से भर उठा। वह सीधा गुरु के पास गया और बोला, ‘आपने मुझसे कहा था कि आप मुझे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाएंगे। लेकिन आपने एक आदिवासी लडक़े को मुझसे बेहतर शिक्षा दी। यह ठीक नहीं है।’ जब द्रोणाचार्य ने कहा कि उन्होंने किसी आदिवासी बालक को शिक्षा नहीं दी है तो अर्जुन ने उन्हें एकलव्य से मिलने की अपनी बात बताई और यह भी बताया वह कहता है कि आप उसके गुरु हैं।

द्रोणाचार्य एकलव्य से मिलने गए। एकलव्य ने पूरी विनम्रता और श्रद्धा से अपने गुरु को साष्टांग दंडवत किया। जब द्रोणाचार्य ने उससे पूछा कि उसने धनुर्विद्या कहां सीखी? तो उसने जवाब दिया, ‘मैंने आपकी एक मूर्ति बनाकर रोज उसके सामने अपना अभ्यास करता था। आपकी कृपा से ही मैं एक अच्छा तीरंदाज बन सका।’

द्रोण से बदला लेने के लिए द्रुपद एक लंबी तपस्या पर निकल गए। उन्होंने एक महान पराक्रमी बेटे को पाने के लिए तपस्या की। द्रुपद एक ऐसा बेटा चाहते थे, जो द्रोणाचार्य को मार सके।
द्रोणाचार्य ने उससे कहा कि अगर तुमने मेरी कृपा से धनुर्विद्या सीखी है तो तुम्हें मुझे गुरुदक्षिणा देनी होगी। एकलव्य ने द्रोणाचार्य से कहा कि गुरुदक्षिणा के तौर पर आप जो भी चाहें, मुझे आज्ञा दे सकते हैं। द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा, ‘मैं गुरुदक्षिणा के रूप में तुमसे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा मांगता हूं।’ बिना दाहिने अंगूठे के कोई धनुष नहीं चला सकता। गुरु का आदेश सुनते ही एकलव्य ने बिना देर किए तुरंत अपना दाहिने हाथ का अंगूठा गुरु द्रोणाचार्य के चरणों में समर्पित कर दिया।

इसलिए जब अर्जुन ने द्रोणाचार्य से गुरुदक्षिणा के बारे में पूछा तो उन्होंने इतने दिनों से अपने भीतर धधक रही अपमान की ज्वाला को अर्जुन के सामने खोल दिया। उन्होंने अर्जुन से कहा, ‘मैं द्रुपद से अपने अपमान का बदला लेना चाहता हूं। मैं द्रुपद को अपने पैरों में देखना चाहता हूं।’ इसके बाद अर्जुन और द्रोण द्रुपद के दरबार में गए। अर्जुन ने द्रुपद को बिना कोई चेतावनी दिए उसके मुकुट को निशाना बांधते हुए ऐसा बाण छोड़ा कि द्रुपद का मुकुट सीधा द्रोण के पैरों पर आ गिरा। मुकुट राजा से ऊपर माना जाता है। राजा या उसके मुकुट का किसी व्यक्ति के पांवों में गिरने का मतलब है कि राजा ने उस व्यक्ति के सामने समर्पण कर दिया।

भरे दरबार में द्रुपद का मुकुट द्रोणाचार्य के पैरों में गिरना राजा का भयानक अपमान था। इस हालत में द्रुपद ने अपना आधा राज्य द्रोण को दे दिया। द्रोणाचार्य ने भले ही इस हिस्से पर कभी राज नहीं किया, लेकिन वह हिस्सा उनके नाम पर था। द्रोणाचार्य अपना अध्यापन का काम करते रहे। इस घटना से अपमानित द्रुपद द्रोणाचार्य से अपना बदला लेना चाहता था, लेकिन उनके पास ऐसा कोई व्यक्ति या साधन नहीं था, जो द्रोणाचार्य जैसे महान धनुर्धर को हरा या मार सके।

उन दिनों किसी को मारने का मतलब यह नहीं होता था कि आप उसके पीछे गए और आपने पीछे से उसे मार गिराया। उस समय आपको अगर किसी को मारना होता था तो आपको उससे द्वंद्व यु़द्ध करना पड़ता था। और बात जब द्रोणाचार्य की थी तो उस समय कोई भी ऐसा महारथी नहीं था, जो द्वंद्व युद्ध में द्रोणाचार्य को हरा सकता। द्रोण से बदला लेने के लिए द्रुपद एक लंबी तपस्या पर निकल गए। उन्होंने एक महान पराक्रमी बेटे को पाने के लिए तपस्या की। द्रुपद एक ऐसा बेटा चाहते थे, जो द्रोणाचार्य को मार सके। इस तपस्या के परिणामस्वरूप धृष्टद्युम्न का जन्म हुआ। धृष्टद्युम्न का जन्म द्रोणाचार्य के वध के लिए ही हुआ था। समय के साथ वह लगातार बड़ा हो रहा था और शस्त्र विद्या की साधना ही इस अंदाज में कर रहा था कि एक दिन वह द्रोण को मारेगा।