मंदिर की परिक्रमा क्यों करते हैं हम?
कभी आपने सोचा है कि प्राचीन मंदिरों में कुंआ या कोई जलाशय क्यों होता है? कभी इस बात पर विचार किया है कि हम परिक्रमा क्यों लगाते हैं और यह परिक्रमा एक खास दिशा में ही क्यों होती है? इन सबके पीछे वैज्ञानिक कारण हैं। जानते हैं सद्गुरु से :
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कभी आपने सोचा है कि प्राचीन मंदिरों में कुंआ या कोई जलाशय क्यों होता है? कभी इस बात पर विचार किया है कि हम परिक्रमा क्यों लगाते हैं और यह परिक्रमा एक खास दिशा में ही क्यों होती है? इन सबके पीछे वैज्ञानिक कारण हैं। जानते हैं सद्गुरु से:
प्रदक्षिणा का अर्थ है परिक्रमा करना। उत्तरी गोलार्ध में प्रदक्षिणा घड़ी की सुई की दिशा में की जाती है। इस धरती के उत्तरी गोलार्ध में यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। अगर आप गौर से देखें तो नल की टोंटी खोलने पर पानी हमेशा घड़ी की सुई की दिशा में मुडक़र बाहर गिरेगा। अगर आप दक्षिणी गोलार्ध में चले जाएं और वहां नल की टोंटी खोलें तो पानी घड़ी की सुई की उलटी दिशा में मुडक़र बाहर गिरेगा। बात सिर्फ पानी की ही नहीं है, पूरा का पूरा ऊर्जा तंत्र इसी तरह काम करता है।
यही वजह है कि पहले हर मंदिर में एक जल कुंड जरूर होता था, जिसे आमतौर पर कल्याणी कहा जाता था। ऐसी मान्यता है कि पहले आपको कल्याणी में एक डुबकी लगानी चाहिए और फिर गीले कपड़ों में मंदिर भ्रमण करना चाहिए, जिससे आप उस प्रतिष्ठित जगह की ऊर्जा को सबसे अच्छे तरीके से ग्रहण कर सकें। लेकिन आज ज्यादातर कल्याणी या तो सूख गए हैं या गंदे हो गए हैं।
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कई मंदिर तो ऐसे हैं जिनके निर्माण में कई पीढ़ियों को अपना योगदान देना पड़ा। उदाहरण के लिए एल्लोरा का कैलाश मंदिर, जिसका निर्माण राष्ट्रकूटों ने कराया था उसे बनने में 135 साल का लंबा वक्त लगा। इसका मतलब है कि मंदिर की इस योजना पर बिना कोई भी बदलाव किए चार पीढ़ियों ने काम किया। यह एक अलग तरह की मानवता है। आज दुनिया में एक बीमारी है। दुनिया के ज्यादातर लोग ऐसे हो गए हैं कि आप उन्हें कुछ भी दे दीजिए, वे उसमें कुछ जोड़ घटा देंगे, उसमें अपनी मूर्खता जरूर जोड़ देंगे। हालांकि इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका यह बदलाव कितना मूर्खतापूर्ण है, बात बस इतनी है कि वे हर चीज पर अपना निशान छोड़ना चाहते हैं। पुराने समय में इतने भव्य मंदिरों का निर्माण किया गया, लेकिन किसी ने उसमें कहीं भी अपना नाम नहीं खुदवाया। उन्होंने बस उस मंदिर के लिए काम किया और बिना उसे पूरा किए चल बसे। इसके बाद अगली पीढ़ी ने उस अधूरे काम को आगे बढ़ाया और उसे बिना पूरा किये वे भी चल बसे। लेकिन उन्हें इस बात का भरोसा था कि कोई न कोई इस काम को पूरा अवश्य करेगा।
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तो इस तरह से चीजें बनीं और वक्त के साथ ये हमारी संस्कृति में आ गईं। ऐसा इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि लोगों ने इन्हें मनमाने ढंग से बनाया, बल्कि इसलिए क्योंकि उन लोगों ने जीवन का गहराई से अवलोकन किया था। उन्होंने देखा कि यही वह जगह है, जहां यह सबसे अच्छे तरीके से काम करती है। यही वह तरीका है जो सबसे अच्छे ढंग से काम कर सकता है। इसी को ध्यान में रखकर उन्होंने इन मंदिरों का निर्माण किया।
यह लेख ईशा लहर जनवरी 2013 से उद्धृत है।
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