Sadhguru कभी आपने सोचा है कि प्राचीन मंदिरों में कुंआ या कोई जलाशय क्यों होता है? कभी इस बात पर विचार किया है कि हम परिक्रमा क्यों लगाते हैं और यह परिक्रमा एक खास दिशा में ही क्यों होती है? इन सबके पीछे वैज्ञानिक कारण हैं। जानते हैं सद्‌गुरु से:

प्रदक्षिणा का अर्थ है परिक्रमा करना। उत्तरी गोलार्ध में प्रदक्षिणा घड़ी की सुई की दिशा में की जाती है। इस धरती के उत्तरी गोलार्ध में यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। अगर आप गौर से देखें तो नल की टोंटी खोलने पर पानी हमेशा घड़ी की सुई की दिशा में मुडक़र बाहर गिरेगा। अगर आप दक्षिणी गोलार्ध में चले जाएं और वहां नल की टोंटी खोलें तो पानी घड़ी की सुई की उलटी दिशा में मुडक़र बाहर गिरेगा। बात सिर्फ पानी की ही नहीं है, पूरा का पूरा ऊर्जा तंत्र इसी तरह काम करता है।

इस संस्कृति में हम ईश्वर से मिलना नहीं चाहते, हम स्वर्ग जाकर उसके साथ खाना नहीं खाना चाहते। यहां तो हम खुद ही ईश्वर बन जाना चाहते हैं। हम बड़े महत्वाकांक्षी लोग हैं।
उत्तरी गोलार्ध में अगर कोई शक्ति स्थान है और आप उस स्थान की ऊर्जा को ग्रहण करना चाहते हैं तो आपको घड़ी की सुई की दिशा में उसके चारों ओर परिक्रमा लगानी चाहिए। अगर आप ज्यादा फायदा उठाना चाहते हैं तो आपके बाल गीले होने चाहिए। इसी तरह और ज्यादा फायदा उठाने के लिए आपके कपड़े भी गीले होने चाहिए। अगर आपको इससे भी ज्यादा लाभ उठाना है तो आपको इस स्थान की परिक्रमा नग्न अवस्था में करनी चाहिए। वैसे, गीले कपड़े पहनकर परिक्रमा करना नंगे घूमने से बेहतर है, क्योंकि शरीर बहुत जल्दी सूख जाता है, जबकि कपड़े ज्यादा देर तकगीले रहते हैं। ऐसे में किसी शक्ति स्थान की परिक्रमा गीले कपड़ों में करना सबसे अच्छा है, क्योंकि इस तरह आप उस स्थान की ऊर्जा को सबसे अच्छे तरीके से ग्रहण कर पाएंगे।

यही वजह है कि पहले हर मंदिर में एक जल कुंड जरूर होता था, जिसे आमतौर पर कल्याणी कहा जाता था। ऐसी मान्यता है कि पहले आपको कल्याणी में एक डुबकी लगानी चाहिए और फिर गीले कपड़ों में मंदिर भ्रमण करना चाहिए, जिससे आप उस प्रतिष्ठित जगह की ऊर्जा को सबसे अच्छे तरीके से ग्रहण कर सकें। लेकिन आज ज्यादातर कल्याणी या तो सूख गए हैं या गंदे हो गए हैं।

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सूर्य कुंड, सूर्य मंदिर
जब आप घड़ी की सुई की दिशा में घूमते हैं तो आप कुछ खास प्राकृतिक शक्तियों के साथ घूम रहे होते हैं। कोई भी प्रतिष्ठित स्थान एक भंवर की तरह काम करता है, क्योंकि उसमें एक कंपन होता है और यह अपनी ओर खींचता है। दोनों ही तरीकों से ईश्वरीय शक्ति और हमारे अंतरतम के बीच एक संपर्क स्थापित होता है। इसके पीछे सोच यह है कि इस संस्कृति में हम ईश्वर से मिलना नहीं चाहते, हम स्वर्ग जाकर उसके साथ खाना नहीं खाना चाहते। यहां तो हम खुद ही ईश्वर बन जाना चाहते हैं। हम बड़े महत्वाकांक्षी लोग हैं। हमारा मकसद ईश्वर से मिलना नहीं है, बल्कि हम तो खुद ईश्वर हो जाना चाहते हैं। इसीलिए हम अपनी आंखें बंद रखते हैं। ऐसे में किसी प्रतिष्ठित स्थान में रहने का अर्थ है कि हम इस संपर्क को लगातार बनाये रखना चाहते हैं, जिससे धीरे-धीरे यह शरीर एक मंदिर बन जाए। अगर आप चाहें तो इस शरीर को किसी जानवर जैसा रख सकते हैं और चाहें तो इसे एक मंदिर की तरह रख सकते हैं।

शक्ति स्थान की परिक्रमा गीले कपड़ों में करना सबसे अच्छा है, क्योंकि इस तरह आप उस स्थान की ऊर्जा को सबसे अच्छे तरीके से ग्रहण कर पाएंगे।
घड़ी की सुई की दिशा में किसी प्रतिष्ठित स्थान की परिक्रमा करना इस संभावना को ग्रहण करने का सबसे आसान तरीका है। खासतौर से भूमध्य रेखा से 33 डिग्री अक्षांश तकयह संभावना काफी तीव्र होती है, क्योंकि यही वह जगह है जहां आपको अधिकतम फायदा मिल सकता है। आपने इस बात को महसूस किया होगा कि जैसे-जैसे आप उत्तर की ओर बढ़ते जाते हैं, आपको ऐसे मंदिर मिलते हैं, जिनका निर्माण खासतौर से पूजा और उपासना के लिए ही किया गया है। दक्षिण में पूजा और उपासना वाला पहलू तो है ही, लेकिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि उन मंदिरों को खास वैज्ञानिक तरीकों से बनाया गया है और उन्हें बनाने में कई पीढ़ियों का योगदान है।

कई मंदिर तो ऐसे हैं जिनके निर्माण में कई पीढ़ियों को अपना योगदान देना पड़ा। उदाहरण के लिए एल्लोरा का कैलाश मंदिर, जिसका निर्माण राष्ट्रकूटों ने कराया था उसे बनने में 135 साल का लंबा वक्त लगा। इसका मतलब है कि मंदिर की इस योजना पर बिना कोई भी बदलाव किए चार पीढ़ियों ने काम किया। यह एक अलग तरह की मानवता है। आज दुनिया में एक बीमारी है। दुनिया के ज्यादातर लोग ऐसे हो गए हैं कि आप उन्हें कुछ भी दे दीजिए, वे उसमें कुछ जोड़ घटा देंगे, उसमें अपनी मूर्खता जरूर जोड़ देंगे। हालांकि इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका यह बदलाव कितना मूर्खतापूर्ण है, बात बस इतनी है कि वे हर चीज पर अपना निशान छोड़ना चाहते हैं। पुराने समय में इतने भव्य मंदिरों का निर्माण किया गया, लेकिन किसी ने उसमें कहीं भी अपना नाम नहीं खुदवाया। उन्होंने बस उस मंदिर के लिए काम किया और बिना उसे पूरा किए चल बसे। इसके बाद अगली पीढ़ी ने उस अधूरे काम को आगे बढ़ाया और उसे बिना पूरा किये वे भी चल बसे। लेकिन उन्हें इस बात का भरोसा था कि कोई न कोई इस काम को पूरा अवश्य करेगा।

कैलाश मंदिर, एल्लोरा
यह अलग तरह की मानवता है। हम उस तरह के लोगों को पैदा करना चाहते हैं, क्योंकि उस तरह के लोग वास्तव में मानवता के लिए उपयोगी हैं। वे देवता जैसे थे। जब मैं कहता हूं देवता समान, तो जरा देखिए कि ईश्वर ने दुनिया की कितनी शानदार रचना की है, लेकिन क्या उसने कहीं भी अपना कोई हस्ताक्षर छोड़ा है। कहीं नहीं? उसने तो अपनी रचना से खुद को इस हद तक अलग कर लिया कि आज हम बैठकर यह बहस तककरते हैं कि वह है भी या नहीं।

तो इस तरह से चीजें बनीं और वक्त के साथ ये हमारी संस्कृति में आ गईं। ऐसा इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि लोगों ने इन्हें मनमाने ढंग से बनाया, बल्कि इसलिए क्योंकि उन लोगों ने जीवन का गहराई से अवलोकन किया था। उन्होंने देखा कि यही वह जगह है, जहां यह सबसे अच्छे तरीके से काम करती है। यही वह तरीका है जो सबसे अच्छे ढंग से काम कर सकता है। इसी को ध्यान में रखकर उन्होंने इन मंदिरों का निर्माण किया।

यह लेख ईशा लहर जनवरी 2013 से उद्धृत है।

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Aihole, Surya kund@wikimedia commons, Ellora@flickr,