कुछ दिन पहले वहां एक कार्यशाला का आयोजन हुआ था जो केवल शिक्षकों के लिए था। उस कार्यशाला में जाने का मुझे न्योता मिला था, जहां मुझे सद्‌गुरु के दर्शन हुए थे।

लेकिन यह सच है कि उस क्षण के बाद मेरे अंतर्मन से कुछ लुप्त हो गया और उस शून्यता में सद्‌गुरु ने निवास करना शुरू कर दिया।

सद्‌गुरु को जब मैंने पहली बार देखा तो कुछ भी खास न लगा, शायद उस देवत्व की गरिमा मेरी आंखों को आश्चर्य की सीमा से परे लेकर चली गई थी। सद्‌गुरु जब लोगों को संबोधित करने मंच पर आए उस क्षण से मुझे ऐसा लगा जैसे केवल मैं और मेरे गुरु ही वहां हैं, क्योंकि मुझे किसी और के होने का कोई एहसास ही न रहा। सद्‌गुरु ने शिक्षकों का समाज में उत्तरदायित्व के विषय पर जब बोलना शुरू किया, तभी मेरी नजर अचानक उन दिव्य नेत्रों से मिली और मुझे लगा कि सद्‌गुरु जी मुझसे ही बातें कर रहे हैं। अब यह मेरे मन का भ्रम था या मेरे जीव को ईश्वर दर्शन हुए, यह कह पाना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव होगा। यह अनुभव इतना क्षणिक था कि इसे भाषा का रूप देना कदाचित असम्भव कार्य होगा। लेकिन यह सच है कि उस क्षण के बाद मेरे अंतर्मन से कुछ लुप्त हो गया और उस शून्यता में सद्‌गुरु ने निवास करना शुरू कर दिया। उस दिन के बाद से जब भी मेरा मन विचलित होता, तत्क्षण सद्‌गुरु मुझे ब्रह्मानंद रूप का एक सूक्ष्म अनुभव करा देते, ठीक वैसे ही जैसे भटके राहगीरों को दिशा सूचक यंत्र सही मार्ग दिखला देता है।

 

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उनके दर्शन के उपरांत मन में उठे भावों ने एक कविता का रूप लिया जो कुछ इस तरह है:

दिखा दो वह दिशा नई

अहोभाग्य है मेरा जो, गुरु का दर्शन हो पाया है,

जन्म-जन्म के पुण्यों का फल, आज सफल हो आया है।

कितने घंटे कितने दिनों का, परिणाम ये बनकर आया है,

जीव को जीवित रखने का, दिनमान निकलकर आया है।

उनके साथ जो बीते पल, वे मार्गदिशा दिखलाएंगे,

जीवन को जीने का मकसद, स्पष्ट-सहज हो जाएंगे।

गुरु की नजरें पड़ी जो हम पर, आत्मसाक्ष अनुभव पाया,

देव के दर्शन पर मुखरित हो, जीव नया जीवन पाया।

आंखें उनकी ओर निहारीं, प्रश्नों की गुत्थी सुलझ गईं,

ईशा के हे ईश्वर मुझको, दिखला दो वह दिशा नई।

- गीता नायर राजशेखर