सद्‌गुरुकहते हैं कि गुरु कृपा या ईश्वर की कृपा से हम जीवन में और आध्यात्मिक पथ पर प्रगति कर सकते हैं। अगर ऐसा है तो फिर क्या हमें कोशिश करनी चाहिए? कैसे पता चले कि खुद में कृपा की पात्रता लाएं, या अथक प्रयासों में लग जाएं?

 

कोशिश मशीन के पुर्जे की तरह है। कृपा लुब्रिकेंट की तरह है। बिना कृपा के मशीन के पुर्जे कुछ ही समय में बेकार हो जाएंगे। बिना पुर्जों के कृपा कुछ चीजें तो कर सकती है, लेकिन कृपा हालात पैदा नहीं करती।

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मानव जाति के साथ समस्या यही है। अगर आप उन्हें यह बता दें कि चीजें कृपा से घटित होंगी, तो वे अपनी बुद्धिमानी, अपनी कोशिश, अपनी क्षमता, सब छोड़ देंगे और कल्पना करना शुरु कर देंगे कि सब कुछ कृपा से हो रहा है। उनकी बेवकूफियों पर कृपा का लेबल लग जाएगा।

तो आपको यह समझना होगा कि आपका काम परिस्थितियों की योजना बनाना और उन्हें पैदा करना है। लुब्रिकेंट कोई और उपलब्ध कराएगा, लेकिन मशीन के पुर्जे सही तरह से काम करने चाहिए।
अगर मैं कहूं कि इस शिवरात्रि पर आप शिव के दर्शन कर सकते हैं, तो अगर आश्रम में दो सौ लोग हैं, तो सबसे बेवकूफ किस्म के लोग सबसे पहले शिव को देखना शुरू कर देंगे। मैं यह नहीं कह रहा कि जो भी ऐसा देख रहा है या महसूस कर रहा है, वह मूर्ख है, लेकिन उन लोगों में से जो सबसे मूर्ख होंगे, उन्हें हर चीज में शिव दिखने लगेंगे। जो बुद्धिमान लोग होंगे, उन्हें हैरानी होगी कि आखिर हो क्या रहा है। जो भक्त हैं, वे अनुभव करेंगे, लेकिन जो मूर्ख हैं, वे हर तरह की चीजों की कल्पना करने लगेंगे।

जीवन में संतुलन बनाना होगा

जैसे ही आप कृपा की बात करते हैं, लोग अपनी बुद्धि और समझ को छोड़ देते हैं। फिर अगर आप कहें कि कृपा जैसा कुछ नहीं है तो लोग अपनी सारी चेतना और बोध खो देंगे और सोचने लगेंगे कि दुनिया में वे ही सब कुछ कर रहे हैं। तो यह पूरा मामला संतुलन बनाने का है। कृपा के बिना कुछ भी नहीं होता। साथ ही बात यह भी है कि एक बार अगर आप इसके बारे में बात करते हैं, तो लोगों की कल्पना उड़ान भरने लगती है। वे हर तरह की चीज की कल्पना करना शुरू कर देते हैं। यहां तक कि वे अपनी मानवता को भी त्याग देते हैं।

सब कुछ ईश्वर की कृपा से हो रहा है, इस बात का सहारा लेकर लोग एक दूसरे के प्रति अमानवीय हो गए हैं। मान लीजिए कोई बीमार है, आप कहते हैं कि यह तो ईश्वरीय योजना है। लोग गरीब हैं, संघर्ष कर रहे हैं, लोग कह देते हैं कि यह तो ईश्वर की मर्जी है।

जो लोग कृपा में भरोसा करते हैं, वे सोचते हैं कि सब कुछ ईश्वरीय कृपा से हो जाएगा और कुछ करते ही नहीं। तो हमें इन दोनों स्थितियों के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है।
हां, यह ईश्वर की योजना के हिसाब से हो रहा है, क्योंकि अभी तो आप भरपेट खा कर आ रहे हैं। लेकिन अगर आपका पेट खाली है तो इसे भरने के लिए आप अवश्य ही अपनी कोई निजी योजना तैयार करेंगे। जब आपका पेट भरा होता है, किसी और का पेट खाली होता है-तो यह ईश्वरीय योजना है! जब आपका पेट खाली होता है, तो आपके पास अपनी योजना है।

ईश्वर के नाम पर लोग अपनी मानवता तक खोते जा रहे हैं। अगर आपके भीतर मानवता कम होगी तो आप कभी भी ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते। यही हमेशा इस संसार की व्यथा रही है कि लोग ईश्वर के नाम पर इंसान भी नहीं रह जाते। अगर आपमें इंसानियत छलक रही है तब ईश्वरीय होने की भी संभावना है। तो अगर आप कृपा के अस्तित्व को नकार देते हैं तो लोग एक खास तरह का व्यवहार करने लगते हैं और अगर आप कृपा के अस्तित्व को मानते हैं तो वे दूसरे तरह का व्यवहार करने लग जाते हैं।

कृपा और कोशिश : क्या चुनें?

कोशिश और कृपा के बीच का मामला है यह। अगर आप अपने आपको एक मशीन के तौर पर देखें, तो आपके पास दिमाग है, शरीर है, आपके पास सब कुछ है। कोशिश मशीन के पुर्जे की तरह है। जिसे आप कृपा कहते हैं, वह लुब्रिकेशन है।

जैसे ही आप कृपा की बात करते हैं, लोग अपनी बुद्धि और समझ को छोड़ देते हैं। फिर अगर आप कहें कि कृपा जैसा कुछ नहीं है तो लोग अपनी सारी चेतना और बोध खो देंगे
आपके पास बढिय़ा इंजन हो सकता है, लेकिन बिना लुब्रिकेशन के वह जगह जगह अटकता रहेगा। बिना कृपा के मशीन के पुर्जे कुछ ही समय में बेकार हो जाएंगे। बिना पुर्जों के कृपा कुछ चीजें तो कर सकती है, लेकिन कृपा हालात पैदा नहीं करती। वह तो परिस्थितियों के लिए एक लुब्रिकेंट का काम करती है। तो आपको यह समझना होगा कि आपका काम परिस्थितियों की योजना बनाना और उन्हें पैदा करना है। लुब्रिकेंट कोई और उपलब्ध कराएगा, लेकिन मशीन के पुर्जे सही तरह से काम करने चाहिए। लोगों के भीतर यह संतुलन नहीं है। जब लोग काम करना शुरू करते हैं, तो वे सोचते हैं कि वे ही सब कुछ कर रहे हैं। जो लोग कृपा में भरोसा करते हैं, वे सोचते हैं कि सब कुछ ईश्वरीय कृपा से हो जाएगा और कुछ करते ही नहीं। तो हमें इन दोनों स्थितियों के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है। तभी सही चीजें होंगी।