अपने प्रिय को खोने के विचार से ही मन में एक हलचल और एक भय जन्म ले लेता है। ऐसे में अगर वह प्रिय कोई और नहीं बल्कि जीवन-नइया के पतवार थामने वाले सद्‌गुरु हों तो..? क्या सद्‌गुरु भी हमें छोड़ कर चले जाएंगे? फिर क्या होगा उसके बाद?

प्रश्न: सद्‌गुरु, आपने कहा कि दिव्यज्ञानी लोग इस धरती पर नहीं रहना चाहते। एक तरह से हम सब उस बस से यात्रा कर रहे हैं, जिसके ड्राइवर आप हैं। और आप किसी दिन बस से छलांग लगाने का फैसला कर सकते हैं। आपके पास दो तरह के यात्री हैं। कुछ तो वे, जिनकी नजर मंजिल पर है। चाहे आप बस को स्वचालित यानी ऑटो पायलट पर कर दें, तब भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मगर आपके पास ऐसे यात्री भी हैं, जिनका पूरा ध्यान ड्राइवर पर है, लक्ष्य उनके लिए मायने नहीं रखता। अगर आप बस को स्वचालित कर दें, तो उनका क्या होगा? इस संदर्भ में भगवद्गीता के आठवें अध्याय के 23वें से 27वें श्लोक में कृष्ण योगियों के बारे में बताते हैं कि कुछ योगि तो अंधकार में या कहें गुप्त तरीके से अपना जीवन समर्पित करते हैं और कुछ प्रकाश में यानी संसार के सामने अपना त्याग करते हैं। कुछ योगी ऐसे हैं जो लौट कर धरती पर आते हैं और कुछ नहीं आते। मैं बस इस बात को समझना चाहता हूं।

 सद्‌गुरुसद्‌गुरु: लोगों को ड्राइवर में दिलचस्पी सिर्फ उस लक्ष्य या मंजिल के कारण होती है, जिधर वह ड्राइवर ले जाने वाला है। अगर आप किसी खास मंजिल तक पहुंचने का सपना देखते हैं, तो बस को चलाने वाला इंसान आपके सपने का एक हिस्सा बन जाता है। भले ही ‘सद्‌गुरु’ के बारे में सोचकर आपकी आंखों में आंसू आ जाते हों, लेकिन अगर मैं बगल के गांव चला जाऊं, तो उन्हें कोई परवाह तक नहीं होगी कि मैं कौन हूं। क्योंकि उन्हें कहीं जाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। उन्होंने इस बारे में सोचा तक नहीं है, इसलिए मैं क्या चीज पेश करता हूं, यह उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। आपकी दिलचस्पी लक्ष्य में है, मगर लक्ष्य गूढ़ है जबकि ड्राइवर एक ऐसा इंसान है, जिससे आप जुड़ सकते हैं। इसलिए, आपकी समझ में, ड्राइवर महत्वपूर्ण हो गया है। मगर असल में आपके लिए महत्वपूर्ण लक्ष्य ही है। मन में सवाल कुछ इस तरह से उठेगा - ‘अगर ड्राइवर नहीं होगा, तो क्या हम लक्ष्य तक पहुंच पाएंगे?’ दरअसल आपको स्वचालन वाली तकनीक पर भरोसा नहीं है। आपको लगता है कि अगर गाड़ी ऑटो पायलट पर लगा दी जाएगी, तो आप शायद मंजिल तक पहुंच ही नहीं पाएंगे। मगर यह सच नहीं है।

सवाल यह है कि ‘आप कब जाने वाले हैं – मुझसे पहले या मेरे बाद?’ हो सकता है कि मैं आपसे ज्यादा समय तक जीवित रहूं। मैंने अभी तक मन नहीं बनाया है कि मुझे कब जाना है। क्या इसका मतलब यह है कि मेरे पास असीमित समय है? फिलहाल तो नहीं। अगर हम चाहें, तो इसे हासिल कर सकते हैं। मगर सिर्फ कुछ और साल तक घिसटने के लिए, बहुत कड़ी मेहनत की जरूरत होती है। मैं ऐसा नहीं करना चाहता।

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आपको लगता है कि अगर गाड़ी ऑटो पायलट पर लगा दी जाएगी, तो आप शायद मंजिल तक पहुंच ही नहीं पाएंगे। मगर यह सच नहीं है।
मान लीजिए, मैं कल चला जाऊं, तो क्या आपकी आध्यात्मिक यात्रा समाप्त हो जाएगी? बिल्कुल नहीं। उसे बाहर से संचालित करने की बजाय, अंदर से संचालित किया जा सकता है। आपने जो दीक्षाएं ली हैं, चाहे वह शून्य हो या कुछ और, वे खोखली प्रक्रियाएं या निर्देशों की महज एक गठरी नहीं हैं। वे जीवन ऊर्जा का विशाल निवेश हैं। अगर आप उसे एक बीज की तरह अपने पेट में रखें, तो आपको उसकी मौजूदगी महसूस नहीं होगी। उसे एक बड़ा पेड़ बनाने के लिए आपको जरूरी माहौल बनाना होगा, फिर आप उसकी मौजूदगी महसूस किए बिना नहीं रह पाएंगे।

अतीत में ज्यादातर गुरुओं के लिए यह एक दुर्भाग्यपूर्ण हकीकत रही है कि उनकी शुरू की गई आध्यात्मिक प्रक्रियाओं ने उनके जाने के बाद ज्यादा गति पकड़ी। भौतिक अनुपस्थिति दूसरी मौजूदगी को बहुत शक्तिशाली बना देती है, वह हमेशा दूसरे आयाम को बहुत ज्यादा बढ़ा देती है। अगर मैं कल चला जाऊं, तो वह भी आपके हित में ही होगा, इसलिए चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है। मगर मैं कल जाने वाला नहीं हूं – आपको निराश करने के लिए क्षमा चाहता हूँ!

अब आठवें अध्याय के 23वें से 27वें श्लोक पर नजर डालते हैं - ‘हे भरतश्रेष्ठ, अब मैं उन विभिन्न कालों को बताऊंगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता। जो परब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अग्नि में, प्रकाश में, दिन की शुभ घड़ी में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छह महीनों के दौरान इस संसार से शरीर त्यागने पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते हैं। जो योगी धुएं में या रात के समय, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों के दौरान प्राण त्यागता है, वह चन्द्रलोक को प्राप्त करता है, मगर वहां से फिर पृथ्वी पर लौट आता है।

मन में सवाल कुछ इस तरह से उठेगा - ‘अगर ड्राइवर नहीं होगा, तो क्या हम लक्ष्य तक पहुंच पाएंगे?’ दरअसल आपको स्वचालन वाली तकनीक पर भरोसा नहीं है।
वेदों के अनुसार, संसार को छोड़ने के दो मार्ग हैं – पहला रोशनी का और दूसरा अंधकार का। रोशनी के मार्ग से जाने वाला इंसान लौट कर नहीं आता मगर अंधकार के मार्ग से जाने वाला वापस लौट कर आता है। भक्त इन दोनों मार्गों के बारे में जानते हैं, मगर वह कभी भ्रमित नहीं होते। इसलिए, हे अर्जुन, हर समय योग में स्थिर रहो।’

कृष्ण अर्जुन से हर समय तैयार रहने के लिए कहते हैं। आप दिन में भी प्राण त्याग सकते हैं, रात में भी। चाहे आपका प्रयाण किसी भी समय हो – आपको तैयार रहना चाहिए। उत्तरी गोलार्ध में सूर्य की उत्तरी और दक्षिणी गति का इंसान के जीवन पर कुछ असर पड़ता है। आप जानते ही हैं कि भीष्म ने प्राण त्यागने के लिए सूर्य की उत्तरी गति, उत्तरायण का इंतजार किया। अगर हम पूरी चेतनता में प्रयाण करने वाले लोगों का इतिहास देखें, तो ज्यादातर लोगों ने दक्षिणी संक्रांति के बाद की पहली पूर्णिमा का दिन चुना। इस दिन को तमिलनाडु में थाईपूसम कहा जाता है। इसी दिन विजी (सद्‌गुरु की पत्नी) ने भी प्रयाण किया, क्योंकि कुदरती शक्तियां एक आदर्श स्थिति पैदा कर रही थीं। मगर सिर्फ उन्होंने ही नहीं, खास तौर पर दक्षिणी भारत के बहुत से ऋषि-मुनियों और सिद्ध लोगों ने इस दिन प्राण त्यागे हैं क्योंकि यह दिन सबसे अनुकूल होता है।

अगर आप पूरी चेतनता में प्राण त्यागना चाहते हैं, तो आपको कम से कम 24 घंटों तक पेट खाली रखना चाहिए। पेट में भोजन रहने पर, अपनी जीवन ऊर्जा को नियंत्रित करने की आपकी क्षमता कम हो जाती है। इसलिए, हमने आपसे कहा है कि आपको खाली पेट साधना करनी चाहिए। भरे पेट भोजन करने के बाद साधना करना नुकसान भी पहुंचा सकता है। पेट खाली रहने पर अपनी ऊर्जा को संचालित करने की आपकी क्षमता सबसे अधिक होती है। भोजन के बाद कम से कम चार घंटे का अंतर रखना चाहिए, मगर आपके आखिरी भोजन और आपकी साधना के बीच 12 घंटे का अंतर सबसे अच्छा रहेगा। तब क्रिया सबसे ज्यादा प्रभावशाली होगी।

जब पृथ्वी सूर्य के अनुसार, विशेष रूप से उत्तरी गोलार्ध में, अपनी स्थिति बदलती है, तो वह स्थिति किसी इंसान के शरीर त्यागने के लिए अधिक अनुकूल होती है। भीष्म ने 58 दिनों तक इंतजार किया। दूसरों ने चेतनता में इंतजार नहीं किया, मगर उन्होंने अपने भीतर एक अनुकूल स्थिति आने का इंतजार किया। यह अनुकूल स्थिति अक्सर दक्षिणी संक्रांति के बाद की पहली पूर्णिमा को आती है।

जैसा कि इन श्लोकों में में कहा गया है कि संसार को छोड़ने के दो मार्ग हैं – पहला रोशनी का और दूसरा अंधकार का। और ये भी कहा गया है कि रोशनी के मार्ग से जाने वाला इंसान लौट कर नहीं आता मगर अंधकार के मार्ग से जाने वाला वापस लौट कर आता है -  जरूरी नहीं है कि रोशनी और अंधकार दिन और रात के संदर्भ में हों। चाहे कोई योग में कितना भी दक्ष हो, अगर वह अनजाने में संसार छोड़ता है, तो वह लौट कर आता है, अगर कोई पूरी जागरूकता में प्राण त्यागता है, तो वह लौट कर नहीं आता। रोशनी और अंधकार बस एक सरल अनुवाद हो सकते हैं। उसका अर्थ दिन और रात से नहीं है, क्योंकि बहुत से योगी सुबह 3:40 से 3:50 का समय चुनते हैं, जिसे ब्रह्ममुहूर्त कहा जाता है। उस समय अंधकार होता है। तो यहां कृष्ण रोशनी और अंधकार की बात जागरूकता और अज्ञानता के अर्थ में कर रहे हैं।