ईश्वर नहीं आप खुद हैं अपने भाग्य के निर्माता
क्या हमारे भाग्य की वजह से हमारे जीवन में परिस्थितियाँ आती हैं? क्या परिस्थितियों को स्वीकार कर लेना चाहिए या फिर उनका मुकाबला करना चाहिए? क्या पूरी तरह भाग्य को अपने हाथों में ले सकते हैं?
क्या हमारे भाग्य की वजह से हमारे जीवन में परिस्थितियाँ आती हैं? क्या परिस्थितियों को स्वीकार कर लेना चाहिए या फिर उनका मुकाबला करना चाहिए? क्या पूरी तरह भाग्य को अपने हाथों में ले सकते हैं?
सद्गुरु : आज न केवल राजनीतिज्ञ, बल्कि ज्योतिषी और धर्मगुरु भी आपको अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। ज्योतिषी और धर्मगुरु लोगों का दिल स्नेहसद्भावना के बल पर नहीं जीतते, बल्कि पाप और पुण्य, अच्छाई और बुराई की बातें करते हुए ये लोग आपके अंदर एक तरह का डर और अपराध-बोध का भाव पैदा करके आपको चक्कर में डालते हैं। इन लोगों ने डंके की चोट पर अपनी बात रखते हुए आपके मन में यह विश्वास बैठा दिया है कि आपकी हार-जीत का फैसला करने वाला तत्व केवल आपका भाग्य है।
जन्म के कारण तथा पालन-परवरिश की वजह से आपने कुछ बुनियादी गुणों को चाहे अनचाहे प्राप्त किया है। आपके पथ का निर्णय करने वाले ये ही गुण-विशेष हैं। यह बात भी एक हद तक ही सही है। वर्ना यदि आप ध्यानपूर्वक काम करेंगे तो अपनी तथाकथित भाग्यरेखा को इच्छानुसार बदल सकते हैं। एक बार शंकरन पिल्लै कोई समस्या लेकर एक बुद्धिजीवी के पास गए। वे बुद्धिजीवी स्वयं को सर्वज्ञ मानते थे। शंकरन पिल्लै ने उनके सामने अपनी समस्या रखी ‘मेरी एक सुंदर बेटी है। वह शिक्षा-कला आदि सभी में खूब होशियार है। लेकिन उसके साथ एक दिक्कत है। सुबह उठते ही बड़ी सुस्त रहती है। जो भी खाना खाती है, उसे तुरंत उल्टी कर देती है।’ बुद्धिजीवी आंखें मूंदकर थोड़ी देर विचार-मग्न रहे। फिर पूछा, ‘क्या आपकी बेटी दूध पीती है?’ ‘हां, अच्छी नस्ल की गाय से दुहा खालिस दूध उसे पिलाते हैं।’ शंकरन पिल्लै ने उत्तर दिया। ‘समस्या यहीं पर है’ बुद्धिजीवी ने कह फिर समझाया , ‘पेट के अंदर जाते ही वह दूध दही के रूप में जम जाता है। रात में जब आपकी बेटी बिस्तर पर लुढक़ती है, वह दही मथकर मक्खन का रूप लेता है।
कुछेक बुजुर्ग आपको समझाते हैं-‘सब कुछ भाग्य द्वारा संचालित होता है।’ अकर्मण्यता सिखाने वाली इस उक्ति पर विश्वास करते हुए क्या आप अपने नजरिए को संकीर्ण बना लेंगे? अपनी दृढ़ता को कुंठित कर लेंगे? यह जरूरी नहीं है कि व्यक्ति के लिए बाह्य परिस्थितियां सदा अनुकूल ही रहें। यदि ऐसी स्थिति सामने आए जिसे बदला नहीं जा सकता तो कुछ लोग उससे जूझने लग जाते हैं। इससे दिमाग बेचैन हो जाता है, इससे सोचने की शक्ति नष्ट हो जाती है।
प्रतिकूल परिस्थिति से जूझने के बजाए उसे उसी रूप में स्वीकार कर लें तो दिमाग पर इच्छाओं की बुनियाद का जोर नहीं पड़ेगा। दिमाग इससे बचने के उपायों पर सोचना शुरू कर देगा। लेकिन आपने तो मन में यह गलत धारणा पाल रखी है कि किसी भी परिस्थिति को चुपचाप सहन करने का नाम ही भाग्य है। मैं कभी आपको यह सलाह नहीं दूंगा कि किसी भी परिस्थिति को चुपचाप सहन करें। सहन करना इच्छापूर्वक की जाने वाली क्रिया नहीं है, बल्कि इसमें मजबूरी काम करती है। इसलिए मैं यही कहता हूं कि किसी भी स्थिति को शांतिपूर्वक स्वीकार करके, भाग्य को अपने अनुकूल बदलने के मार्ग के बारे में सोचें और उसके अनुसार कार्य करें। आप तभी अपना विकास कर पाएंगे जब आप भाग्य संबंधी गीदड़-भभकियों से बाहर निकलेंगे। चाहे ईश्वर ही क्यूं न आकर कहे, तब भी आप यही कहें कि अपने भाग्य का निर्माण मैं स्वयं करूं गा। अगर ऐसी दृढ़ता नहीं आई तो आपका जीवन अपने ही ढर्रे पर चलता रहेगा। यदि आपके अंदर मनचाहे लक्ष्य को पाने की तीव्र इच्छा हो तो अपने भाग्य को ईश्वर के हाथ से छीनकर आप स्वयं उसे अपने तरीके से दोबारा लिख सकते हैं।
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