आध्यात्मिक ज्ञान : सब कुछ मिलने पर भी क्यों है अधूरापन?
मन की प्रकृति ऐसी है कि वह हमेशा अधूरा ही महसूस करता है। चाहे अलग-अलग तरह की चीज़ों का संग्रह हो, ज्ञान का संग्रह हो या फिर अन्य लोगों को अपना बनाना हो। किसी न किसी तरह का संग्रह चलता ही रहता है। जानते हैं कि आध्यात्मिकता का अर्थ है मन से थोड़ी दूरी बनाना और रिक्त हो जाना
मन की प्रकृति है संग्रह करना
मन की प्रकृति हमेशा ही संग्रह करने की होती है। जब यह स्थूलरूप में होता है तो च़ीजों का संग्रह करना चाहता है, जब यह थोड़ा-सा विकसित होता है तो ज्ञान का संग्रह करना चाहता है।
हो सकता है कि यह गुरू के शब्दों का ही संचय करने लगे लेकिन यह जो भी संचित करे, जब तक कोई व्यक्ति संग्रह करने की ज़रूरत से उपर नहीं उठ जाता, तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता - चाहे वह भोजन हो, कोई चीज़ हो, सांसारिक ज्ञान हो, लोग हों या आध्यात्मिक ज्ञान हो - यह कोई मायने नहीं रखता कि आप क्या इकट्ठा कर रहे हैं। संग्रह करने की ज़रूरत का अर्थ है कि अभी भी एक अधूरापन रह गया है। यह अधूरापन, अधूरा होने का भाव, इस असीमित प्राणी में घर कर गया है, इसका एकमात्र कारण यह है कि कहीं न कहीं आप अपनी पहचान उन सीमित च़ीजों के साथ बना लेते हैं जो कि आप हैं ही नहीं।
साधना और चेतना : कृपा के लिए करती हैं तैयार
अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में पर्याप्त चेतना प्राप्त कर लेता है, और निरंतर किसी साधना का अभ्यास करता है तो उसका यह पात्र धीरे-धीरे पूर्णतः खाली हो जाता है। चेतना पात्र को खाली करती है, साधना पात्र को साफ करती है।
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बिना कृपा बहुत प्रतीक्षा करनी होगी
अगर आप कृपा का अनुभव नहीं करते, खुद को कृपा ग्रहण करने योग्य नहीं बनाते, कृपा को धारण करने के लिए खुद को रिक्त नहीं करते तो समझ लीजिए कि आपको कई जन्मों तक आध्यात्मिक पथ पर चलना पड़ेगा।
संग्रह करने की मानसिकता अंदर बैठ गयी है
आपके अन्दर यही मानसिकता घर कर गई है कि जहाँ भी जाओ वहाँ उतना संग्रह कर लो जितना कर सकते हो। मूल रूप से आपकी शिक्षा ही इसके लिए दोषी है। शिक्षा ने आपको यह सिखाया कि कैसे ज़्यादा से ज़्यादा चीज़ों का संग्रह किया जाए।
आध्यात्मिक ज्ञान के संग्रह की नहीं साधना की जरूरत है
लेकिन यह संग्रह - चाहे आपने कितना भी संचय क्यों न किया हो, मायने नहीं रखता। जो कुछ भी आपने अपने मन में एकत्रित कर रखा है, वह चाहे स्थानीय बकवास हो या वैज्ञानिक जानकारी हो या तथाकथित आध्यात्मिक ज्ञान हो, वह आपको मुक्त नहीं कर सकेगा। जहाँ आप अभी हैं, वहाँ से एक कदम भी आपकी परम प्रकृति की ओर ले जाने में असक्षम होगा। आपको अपने जीवन में आवश्यक चेतना को लाने के लिए साधना और आंतरिक कार्य की ज़रूरत होगी। सचमुच इसका कोई विकल्प नहीं है।
खुद को खो देना होगा
अगर आप छलांग लगाना चाहते हैं, रेखा को लांघना चाहते हैं और चेतना को कायम रखने के संघर्ष से बचना चाहते हैं तो आपको निश्छल होना होगा। आपको इतना निश्छल होना होगा कि आप सहजतापूर्वक खुद को पूर्ण रूप से समर्पित कर सकें।
साधना और चेतना : आप केवल अनुकूल परिस्थिति बना सकते हैं
लेकिन मैं हमेशा इस बात पर ज़ोर दूँगा कि आप चेतना और साधना के मार्ग पर लगे रहिए। अगर आप सहजतापूर्वक इस रेखा को पार करते हैं तो यह अद्भुत है लेकिन अगर आप लांघने का प्रयास करते हैं, तो आप देखेंगे कि आप खुद को धोखा दे रहे हैं। क्योंकि ऐसे रेखा को पार किया ही नहीं जा सकता। यह केवल अपने आप ही हो सकता है। कोई भी योग्यता ऐसा नहीं करवा सकती।
क्या है चेतना और साधना?
हम जिस प्रकार सोच और महसूस कर रहे हैं उससे केवल निरन्तर बंधन का जाल निर्मित किए जा रहे हैं। वे सारी बातें जिन्हें आप सोचते और महसूस करते हैं तथा स्वयं के बीच जब एक दूरी बनाने लगते हैं तो इसे ही हम चेतना कहते हैं। जिसे हम साधना कह रहे हैं वह एक अवसर है अपनी ऊर्जा को बढ़ाने का ताकि आप अपनी सीमाओं और सभी खामियों पर नियंत्रण रख सकें जिनके कारण आप अपने विचारों और भावनाओं में उलझ गए हैं।