योग विज्ञान में दैनिक जीवन जीने के कई ऐसे सरल उपाय बताए गए हैं, जिन्हें अपना कर हम अपने जीवन में आसानी से सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं, जानें ऐसे ही कुछ उपायों के बारे में ...

 

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  • शरीर और मन के ऊपर कपड़ों का असर
  • आजकल ‘जैविक खेती’ यानी ‘ऑर्गेनिक फार्मिंग’ की काफी चर्चा हो रही है। खाने में जैविक उत्पादों यानी ऑर्गेनिक प्रोडक्ट्स के इस्तेमाल की बात तो की ही जा रही थी, अब पहनने केलिए भी जैविक कपड़ों की बात की जा रही है। जैविक कपड़ों से मतलब जैविक तरीके से तैयार की गई कपास या रेशम से बने कपड़े। आप जिस तरीके के कपड़े पहनते हैं, वे आपके शारीरिक और मानसिक सेहत पर असर डाल सकते हैं। इसलिए यह देखना महत्वपूर्ण है कि आज मौसम कैसा है और आपके सेहत के लिए किस तरह के कपड़े बेहतर होंगे।
    जरूरी नहीं है कि उसे अंधकार में जलाया जाए, जरूरी नहीं कि दीये से देखने में मदद मिले लेकिन क्या आपने ध्यान दिया है कि वह एक फर्क लाता है?
    जैविक कपड़ों की बात क्यों इतनी हो रही है? इसकी वजह है- जैविक कपड़े पहनने पर हमारा शरीर अलग तरह से काम करता है और सिंथेटिक कपड़े पहनने पर अलग तरीके से। इन दोनों के बीच एक बड़ा अंतर है। दूसरे जो कह रहे हैं, आपको उस पर यकीन करने की जरूरत नहीं है। खुद आजमा कर देखें और फिर तय करें कि आपको कैसा महसूस होता है। एक सप्ताह तक कच्चा रेशम या सूती वस्त्र पहनें, यहां तक कि भीतरी वस्त्र भी ऐसे ही पहनें। इसके बाद देखें कि आपका शरीर कैसा महसूस करता है। इसके बाद कुछ दिनों के लिए चुस्त और सिंथेटिक कपड़े पहनें। शरीर के काम करने के तरीके और आराम के स्तर में आपको बड़ा अंतर नजर आएगा।

  • वाणि ऐसी बोलिए. . .
  • सही तरह के भोजन, विचारों और भावनाओं से अपने शरीर को ठीक करते हुए उसका कायाकल्प किया जा सकता है। साथ ही सही तरह के शब्दों को बोलना और सही तरह की ध्वनियां सुनना भी महत्वपूर्ण है। इससे आपका तंत्रिका तंत्र अपने आस-पास के जीवन के प्रति संवेदनशील हो पाएगा। क्या आपने ध्यान दिया है कि जब आप कुछ घंटों तक गाडिय़ों या मशीनों की कर्कश आवाजें सुनते हैं, तब आपको अपने आस-पास की साधारण चीजों के बारे में भी ठीक से समझने में मुश्किल होती है। किसी दिन जब आप सिर्फ  घर पर बैठे कुछ शास्त्रीय संगीत सुन रहे होते हैं, उस दिन आपका दिमाग तेज और सजग होता है और बहुत आसानी से चीजों को समझ लेता है। अगर आप सचेतन होकर, इन चीजों पर अधिक से अधिक ध्यान दें, या कम से कम इस बारे में सचेत रहें कि किस तरह की ध्वनि आपके सिस्टम को नुकसान पहुंचा रही है और किस तरह की ध्वनि से लाभ होता है, तो आप कम से कम उन ध्वनियों को तो शुद्ध कर लेंगे, जिनका आप उच्चारण करते हैं। हो सकता है कि आप अपने बगल में चिल्ला रहे उस आदमी को न रोक पाएं, लेकिन कम से कम आप जो बोलते हैं, उस आवाज पर ध्यान दे सकते हैं । क्योंकि आप जिन ध्वनियों का उच्चारण करते हैं, उनका असर आपके ऊपर सबसे अधिक होता है। यदि आप किसी से बात कर रहे हैं, तो आप इस तरह बोलें मानो ये शब्द उस व्यक्ति के लिए आपके आखिरी शब्द हों, यदि आप हर किसी के साथ ऐसा करें, तो यह आपकी वाक शुद्धि करने का बहुत बढिय़ा तरीका है।

  • क्यों करते हैं हम नमस्कार
  • नमस्कार करने का तरीका- दोनों हाथों की हथेलियों को जोडक़र और सिर झुकाना, भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा रहा है। इस तरीके की शुरुआत निश्चित रूप से मानव-तंत्र की गहरी समझ से हुई है। नमस्कार करने के पीछे केवल सांस्कृतिक पहलू ही नहीं है, एक पूरा विज्ञान है। अगर आप साधना कर रहे हैं, तो जब भी आप अपनी हथेलियों को साथ लाते हैं, तो एक ऊर्जा प्रस्फुटित होती है। जीवन-ऊर्जा के स्तर पर आप कुछ दे रहे होते हैं। आप खुद को एक अर्पण या भेंट के तौर पर दूसरे व्यक्ति को समर्पित कर रहे हैं। अगर आप देने की अवस्था में हैं, तभी आपके आसपास की चीजें आपके लिए काम करेंगी। ऐसा हर जीवन के साथ है। अगर उसे अपने आसपास के हर जीवन का सहयोग प्राप्त हो जाए, तो उसका फलना-फूलना निश्चित है।

  • मंदिर: खुद को रिचार्ज करने की एक ठांव
  • कुछ सौ साल पहले तक इस देश में प्रार्थनाओं का चलन नहीं था। केवल आह्वान होते थे, प्रार्थनाएं नहीं। आज भी भारतीय मंदिरों में कोई खड़ा हो कर प्रार्थना नहीं करवाता। कोई आपसे यह नहीं कहता कि प्रार्थना करना जरूरी है। यह परंपरा जरूर रही है कि लोग मंदिर में जाकर कुछ पल जरूर बैठते हैं। दक्षिण भारत में आज भी यह चलन जारी है। ये स्थान ऊर्जा-केंद्र के रूप में बनाए गए थे, जहां लोग जा कर ऊर्जा प्राप्त कर सकते थे। एक तरह से खुद को रिचार्ज कर सकते थे। अलग-अलग मकसद को ध्यान में रख कर उन्होंने अलग-अलग मंदिर बनाए, जहां जा कर आपको किसी चीज के लिए प्रार्थना करने के जरूरत नहीं थी। बस वहां बैठें, वहां की ऊर्जा को आत्मसात करें और लौट आएं। यह एक तरह की टेक्नालॉजी है। लेकिन देश में जब भक्ति आंदोलन की हवा चली, तब यह टेक्नालाजी कमजोर पड़ गई। तब भक्त आए - भक्त को किसी टेक्नालॉजी में दिलचस्पी नहीं होती।

  • जलाइए एक दिया
  • प्रकाश हमारे लिए बहुत अहमियत रखता है, क्योंकि हमारे देखने के उपकरण यानी हमारी आंखें बनाई ही ऐसी गई हैं। यह परंपरा का एक हिस्सा है कि सही वातावरण बनाने के लिए, आपको सबसे पहले दीया जलाना होता है। आज हम अपनी समस्याओं के कारण यह नहीं कर सकते, इसलिए हम बिजली के बल्बों का इस्तेमाल करते हैं।
    हो सकता है कि आप अपने बगल में चिल्ला रहे उस आदमी को न रोक पाएं, लेकिन कम से कम आप जो बोलते हैं, उस आवाज पर ध्यान दे सकते हैं । क्योंकि आप जिन ध्वनियों का उच्चारण करते हैं, उनका असर आपके ऊपर सबसे अधिक होता है। 
    लेकिन आपमें से जो लोग दीया जलाते हैं, अगर आप सिर्फ  उसके आस-पास रहें तो एक फर्क महसूस करेंगे। आपको किसी ईश्वर को मानने की जरूरत नहीं है। जरूरी नहीं है कि उसे अंधकार में जलाया जाए, जरूरी नहीं कि दीये से देखने में मदद मिले लेकिन क्या आपने ध्यान दिया है कि वह एक फर्क लाता है? क्योंकि आप जिस क्षण एक दीया जलाते हैं, सिर्फ  लौ ही नहीं, बल्कि लौ के चारो ओर स्वाभाविक रूप से एक अलौकिक घेरा या आभामंडल बन जाता है। जहां भी आभामंडल होगा वहां पर ग्रहणशीलता अपने चरम पर होती है। इसलिए अगर आप कोई शुरुआत करना चहाते हैं, या एक खास माहौल बनाना चाहते हैं, तो दीया जलाया जाता है। इसके पीछे यह समझ है कि जब आप एक दीया जलाते हैं, तो रोशनी देने के अलावा, वह उस पूरे स्थान को एक अलग किस्म की ऊर्जा से भर देता है। तेल का दीया जलाने के कुछ खास प्रभाव होते हैं। दीया जलाने के लिए कुछ वनस्पति तेलों, खासकर तिल का तेल, अरंडी का तेल या घी इस्तेमाल करने पर, सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है। उसका अपना ऊर्जा क्षेत्र होता है।