कंगना : कृष्ण, मोहम्मद, राम, क्राइस्ट, बुद्ध आदि सभी आत्मज्ञानी लोग जो इस धरती पर रहे हैं, उनके जन्म या मृत्यु के बारे में कुछ न कुछ जानकारी है लेकिन जब शिव की बात आती है तो, मैंने पढ़ा है कि वे स्वयंभू थे, अपने आप ही उत्पन्न हुए थे। ये भी माना जाता है कि वे दूसरे ग्रह के थे। फिर एक मान्यता ये भी है कि मनुष्य के विचार आदि सब कुछ बाहरी अंतरिक्ष से आते हैं, किसी बाहरी जीव की ओर से! तो क्या ये सच है कि हम किसी बाहरी जीव के द्वारा नियंत्रित हैं ?

सद्‌गुरु : देखिये, जिन लोगों को मानवीय बुद्धि में कोई विश्वास नहीं है, वे ऊपर की ओर देखते हैं और आशा करते हैं कि बुद्धि कहीं बाहर से आयेगी। ऐसी बहुत सी महत्वपूर्ण चीज़ें हैं जिन्हें, दुर्भाग्यवश, आज की पीढ़ी लगभग भूल गई है। जैसे कि, योग में, हम रीढ़ की हड्डी को मेरुदंड कहते हैं-- जिसका अर्थ है 'ब्रह्माण्ड की धुरी'। आज वैज्ञानिक स्वीकार कर रहे हैं कि ब्रह्माण्ड अनंत है। हमारी संस्कृति में हम हमेशा से कहते आ रहे हैं कि ये ब्रह्माण्ड हमेशा फैलता रहा है।

 

 

पूरे ब्रह्माण्ड का अनुभव हमें रीढ़ से मिलता है

ये कहना कि हमारी रीढ़ की हड्डी ब्रह्माण्ड की धुरी है, ऊपरी तौर पर, मूर्खतापूर्ण लग सकता है। तो हम ऐसा क्यों कहते हैं? आप सिर्फ अपने अनुभव से इस ब्रह्माण्ड को जानते हैं। अगर आप कुछ देख न सकें या कोई अनुभूति न कर सकें तो आप को पता भी नहीं चलेगा कि ब्रह्माण्ड भी कुछ है। सिर्फ अपने अनुभव के कारण आप को लगता है कि ब्रह्माण्ड है। और वह केंद्र जो इस अनुभव को आप में प्रसारित करता है वह आप की रीढ़ की हड्डी है।

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हम आप की रीढ़ की हड्डी को ब्रह्माण्ड की धुरी इसीलिये कहते हैं क्यों कि ब्रह्माण्ड की अनुभूति करने की आप की योग्यता आप की रीढ़ की हड्डी में ही केंद्रित एवं स्थित है।

अगर आप की रीढ़ की हड्डी की नसें, नाड़ियां काट दी जायें तो ब्रह्माण्ड को तो भूल जाईये, आप को अपने शरीर की भी अनुभूति नहीं होगी। हम आप की रीढ़ की हड्डी को ब्रह्माण्ड की धुरी इसीलिये कहते हैं क्यों कि ब्रह्माण्ड की अनुभूति करने की आप की योग्यता आप की रीढ़ की हड्डी में ही केंद्रित एवं स्थित है।

इसी आधार पर हमनें एक पूरी सम्भावना विकसित की जिससे मनुष्य न सिर्फ इन बातों पर विश्वास कर सके बल्कि उन्हें अपना जीवंत अनुभव भी बनाये। इसी से 'योग' शब्द की उत्पत्ति हुई। जुड़ना, मिलन, समावेशीकरण इसीलिये हो पाता है क्यों कि आप अपनी व्यक्तित्व की सभी सीमायें मिटा देते हैं।

हम एक दूसरे को गले लगाने या प्रेम करने के कारण समावेशी नहीं बनते – ये सभी चीज़ें बस कुछ समय तक ही चलती हैं। कल वे अगर ऐसा कुछ करते हैं जो आप को पसंद नहीं है तो सब कुछ समाप्त हो जाता है। योग का अर्थ है -- अपने व्यक्तिगत स्वभाव की सभी सीमाओं को तोड़ देना, अपने शरीर की भी, जिससे आप अपने अस्तित्व की सीमाओं के रूप में अपनी पहचान बनाए बिना यहाँ बैठना सीख सकें।

 

शिव : उनके माता-पिता या बचपन की कोई बात नहीं होती

आप की शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक संरचना की अपनी सीमायें होती हैं -- वे बड़ी या छोटी हो सकती हैं। लेकिन कुछ आयाम ऐसे होते हैं जिनकी कोई सीमा नहीं होती। जिसकी कोई सीमा न हो वह स्वाभाविक रूप से भौतिक नहीं हो सकता। तो हमारा ध्यान हमेशा उस आयाम की ओर रहा है जो अभौतिक है। इसीलिये, शिव इतने महत्वपूर्ण हो गये हैं क्यों कि शिव का अर्थ ही है, "वह, जो नहीं है", वह जो अभौतिक है।

वे इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति थे कि उन दिनों में भी, अगर कहीं पर उनकी मृत्यु हुई होती तो लोगों ने उनके लिये कोई मंदिर या स्मारक अवश्य बनाया होता -- वैसा कुछ भी नहीं हुआ।

अब हम जिस योगी की बात कर रहे हैं, क्या वे एक मनुष्य हैं या वे कहीं और से आये हैं ? ये एक लंबी कहानी है। आदि योगी पर एक पुस्तक है जिसमें इन सब बातों की चर्चा है लेकिन मैं इसे यहाँ स्पष्ट करता हूँ। हम जब शिव की बात करते हैं तो उनके माता पिता की कोई बात नहीं होती। उनका कोई जन्म स्थान नहीं है, ऐसा कोई नहीं है जिसने उन्हें छोटा या बड़ा होता हुआ देखा हो। लोगों ने जब भी उन्हें देखा, वे लगभग एक ही उम्र के दिखे। और हमें ये भी पता नहीं कि उनकी मृत्यु कहाँ हुई ? वे इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति थे कि उन दिनों में भी, अगर कहीं पर उनकी मृत्यु हुई होती तो लोगों ने उनके लिये कोई मंदिर या स्मारक अवश्य बनाया होता -- वैसा कुछ भी नहीं हुआ।

यक्ष स्वरुप : कहीं और का जीव

कोई जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, माता पिता नहीं, भाई बहन नहीं -- यह सिद्ध करने के लिये कुछ भी नहीं है कि वे यहाँ थे। क्या इसका अर्थ ये है कि हम मान लें कि वे कहीं और से आये थे ? यह आवश्यक नहीं है ! लेकिन अगर आप दंतकथाओं, किंवदंतियों पर गौर करें तो शिव को सामान्य रूप से यक्षस्वरूप कहा गया है। यक्ष का अर्थ हमेशा से ये रहा है कि वे जीव या प्राणी जो मनुष्य नहीं हैं लेकिन माना जाता है कि वे पृथ्वी के प्राकृतिक वातावरण में रहते थे, जंगलों में और अन्य क्षेत्रों में। ऐसी बहुत सी बातें हैं जो इस तरफ इशारा करती हैं लेकिन ऐसा कोई विशेष, स्पष्ट सबूत नहीं है जिससे हम कह सकें कि वे कहीं और से आये थे।

आधुनिक विज्ञान पीछे चल रहा है

यौगिक कथाओं में ऐसा अनुमान किया जाता है कि शिव या आदि योगी एक मनुष्य के रूप में रहे थे और इस ज़मीन पर लगभग 60000 से 75000 साल पहले चले-फिरे थे, विचरण करते थे। मैंने जब पहली बार ऐसा कहा तो मेरे आसपास ज्यादा समझदार लोग थे, मेरी तरह सरल मति वाले नहीं थे, वे ज्यादा बुद्धिमान, युवा लोग थे! तो उन्होंने कहा, "सद्‌गुरु, अगर आप 75000 वर्ष कहेंगे तो लोग आप पर टूट पड़ेंगे। शिव इस जगत में थे उसका पुरातत्वीय सबूत लगभग 12600 वर्ष पुराना है तो आप 12600 या 13000 या 14000 ही कहिये"। मैंने कहा - ठीक है, मैं 15000 कहूंगा। वैसे अब तो इस बात के पुरातत्वीय सबूत मिल गये हैं कि लगभग 30000 वर्षों पूर्व इस देश के कुछ इलाकों में मानव समाज विकसित था।

लेकिन अगर आप दंतकथाओं, किंवदंतियों पर गौर करें तो शिव को सामान्य रूप से यक्षस्वरूप कहा गया है। यक्ष का अर्थ हमेशा से ये रहा है कि वे जीव या प्राणी जो मनुष्य नहीं हैं लेकिन माना जाता है कि वे पृथ्वी के प्राकृतिक वातावरण में रहते थे, जंगलों में और अन्य क्षेत्रों में।

मैं 15000 से ज्यादा कह रहा हूँ क्यों कि पश्चिम में यह स्वीकार हो सकेगा। मैं अगर 75000 कहूंगा तो वे प्रतिरोध करेंगे क्यों कि उनके अनुसार ये दुनिया बस 6000 वर्ष पुरानी है। वे कहते हैं कि सृष्टि की रचना 6 दिनों में हुई और ये बस 6000 साल पुरानी है। बहुत शताब्दियों तक वे यही कहते रहे। अब वे धीरे-धीरे अपनी गलती सुधार रहे हैं क्यों कि विज्ञान कुछ और सिद्ध कर रहा है। आप देखेंगे, अगले 50 सालों में, आधुनिक विज्ञान ऐसी बहुत सी बातें कहेगा जो हम हज़ारों सालों से कहते आ रहे हैं।