संस्कृति में बदलाव: नकल नहीं चयन से हो
संस्कृति के भारतीय स्वरूप और उस पर पश्चिमी प्रभाव के विषय पर जाने माने फैशन डिजाइनर तरुण तहिलयानी ने सद्गुरु से बातचीत की...
संस्कृति के भारतीय स्वरूप और उस पर पश्चिमी प्रभाव के विषय पर जाने माने फैशन डिजाइनर तरुण तहिलयानी ने सद्गुरु से बातचीत की, जिसका कुछ अंश आप पढ़ चुके हैं। पेश है आगे का अंशः
सद्गुरु:
. . . 250 से 300 साल का समय किसी भी देश के लोगों को वश में करने और उन्हें पूरी तरह से बदल देने के लिए काफी होता है। आठ से दस पीढिय़ों में सब कुछ खत्म किया जा सकता है। केवल एक ही जगह ऐसी रही, जहां वे लोग कामयाब नहीं हो सके और वह था भारत। यह बात और है कि आज आप थोड़े बहुत साहब हो गए हैं। वैसे अब आप वापस अपने रास्ते पर लौट रहे हैं।
तरुण तहलियानीः
अफसोस है कि मैं वापस नहीं लौट रहा हूं। कुछ इंग्लैंड की पत्रिकाओं से, जिनके मालिक वहीं की कुछ कंपनियां हैं, मेरी शिकायत रहती है कि वो एक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद ला रहे हैं। मैंने कहा कि आप कंप्यूटर पर महिलाओं को अंगड़ाई लेते हुए दिखाते हैं, इससे खूबसूरत भारतीय महिलाओं को हीन भावना का अहसास होता है, क्योंकि आपके विज्ञापनदाता तो यही ब्रांड हैं।
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सद्गुरु:
बंदूकें और तलवारें जो नहीं कर सकीं, वह एमटीवी कर रहा है।
तरुण तहलियानीः
बिल्कुल सही कहा।
सद्गुरु:
ठीक है। यह भारतीय संस्कृति बनाम विदेशी संस्कृति का मसला नहीं है। आज अंग्रेजी भाषा में बात करना हमने चुना है-यह बिल्कुल ठीक है। मैं कहता हूं कि संस्कृति हमेशा एक विकसित होने वाली और लेन देन की प्रक्रिया है। आप यह नहीं कह सकते कि किसी संस्कृति को यह कह कर पूरी तरह से अलग कर दें कि यह मेरी संस्कृति है और आप इसकी खूब हिफाजत करने लगें। अगर किसी संस्कृति को संरक्षण की जरूरत है, तो इसका मतलब है कि वह पुरानी और किताबी हो चुकी है। संस्कृति तो ऐसी चीज है जो लगातार विकसित होती रहे, जिसमें धडक़न हो, जो लगातार बढ़ती रहे। हमें संस्कृति पर पडऩे वाले बाहरी प्रभावों से डरने की जरूरत नहीं है, बशर्ते लोग अपनी जरूरत के अनुसार सोच समझ कर चयन करें। अभी हो यह रहा है कि हमारी ओर जो भी फेंका जा रहा है, हम उसे बिना सोचे समझे अपना रहे हैं। हमें लगता है कि वह सब श्रेष्ठ है। यह सोच खत्म होनी चाहिए।
मुझे लगता है कि ऐसा तभी होगा, जब इस देश में बड़े पैमाने पर आर्थिक खुशहाली होगी। अभी तो आर्थिक खुशहाली का मतलब यह होता है कि लोग सबसे पहले भारतीय बुनकरों के बने कपड़े छोडक़र अमेरिकी कारखानों में बने कपड़े पहनना शुरू कर देते हैं। इसे ही संपन्नता का प्रतीक माना जाता है। अगर अमेरिका में हर कोई घिसे हुए कपड़े पहनता है तो यहां भी हर कोई घिसे हुए कपड़े ही पहनने लगता है। वहां अगर कोई अपनी पैंट को फाडक़र पहनता है, तो यहां भी लोग अपनी पैंट फाडक़र पहनने लगते हैं। अगर वहां कोई कार्बन डाईऑक्साइड पीता है, तो यहां लोग कार्बन डाईऑक्साइड पीने लगते हैं। यह चलन सही नहीं है।
तरुण तहलियानीः
मुझे लगता है कि समाजवाद के दौरान यह स्थिति और भी खराब थी, क्योंकि स्तर इतना नीचे चला गया था कि हर कोई पश्चिम के लोगों की नकल करने की कोशिश में लगा था। अब भारत ज्यादा संपन्न हो गया है और लोगों के पास आजादी है। जैसा आप कह रहे हैं, मुझे लगता है कि लोग अब वैसा ही कर रहे हैं यानी वे पश्चिम या पूर्व की उन्हीं चीजों को अपना रहे हैं, जो उनके लिए ठीक हैं।
सद्गुरु:
ये संस्कृतियां बिल्कुल अलग थीं, हर देश की, हर क्षेत्र की, एक ही देश के भीतर दो अलग-अलग क्षेत्रों की संस्कृतियों में असमानता थी क्योंकि उन दिनों एक दूसरे से संपर्क बहुत कम था। लेकिन आज संपर्क और संवाद का स्तर बहुत अधिक बढ़ गया है। लोग पूरी दुनिया घूम रहे हैं और अगर आप नहीं भी घूम रहे हैं तो भी दुनिया के सभी हिस्सों के बीच आपस में संपर्क और संवाद है। मुझे लगता है कि आने वाले सौ सालों में मेरी संस्कृति, तुम्हारी संस्कृति जैसी कोई बात नहीं रह जाएगी। पूरे विश्व में बस एक ही खिचड़ी होगी, जिसको हमें अपनी संस्कृति के रूप में स्वीकार करना होगा।
तरुण तहलियानीः
(हंसते हैं) तब तक यह सब देखने के लिए हम लोग नहीं रहेंगे, यह अच्छा है।
सद्गुरु:
मुझे आप इतनी जल्दी क्यों भेजना चाहते हैं? (हंसते हैं)
तरुण तहलियानीः नहीं, मैं खुद को भेज रहा हूं, आप रह सकते हैं। आप मुझ से बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
जब तक हम आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं हो जाते कि हम जैसे जी रहे है, वैसे ही खुश रहें तब तक हम दूसरों की नकल करते रहेंगे। अगर हम अपनी संस्कृति को बचाना चाहते हैं, तो हमें इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों की जिंदगी में आर्थिक खुशहाली लानी होगी।