मन उलझन में है तो क्या करें
सद्गुरु हमें आध्यात्मिक साधना में उलझन के महत्व के बारे में समझा रहे हैं। वो बता रहे हैं कि हम जल्दी से जल्दी किसी निष्कर्ष तक पहंचना चाहते हैं, लेकिन उससे कोई लाभ नहीं होगा।
सद्गुरु हमें आध्यात्मिक साधना में उलझन के महत्व के बारे में समझा रहे हैं। वो बता रहे हैं कि हम जल्दी से जल्दी किसी निष्कर्ष तक पहंचना चाहते हैं, लेकिन उससे कोई लाभ नहीं होगा।
प्रश्न : सद्गुरु , मैं नियमित रूप से अपनी साधना कर रहा हूं जिससे मुझे लगता है कि मैं पहले से ज्यादा जागरूक हो रहा हूं। लेकिन मुझे सचमुच पता नहीं कि ऐसा मुझे अपनी मानसिक सतर्कता की वजह से लगता है या मैं वाकई सचेतन हो रहा हूं। मैं इस बात को लेकर काफी उलझन में हूं।
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सदगुरु: चेतना या जागरूकता, आपकी कोशिशों के बल पर कभी नहीं आ सकती। क्योंकि यह आपकी कोशिशों के अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं। लेकिन आप कोशिश करके एक ऐसे हालात जरूर बना सकते हैं, जिसमें आपकी जागरूकता खिल उठे।
जागरूकता “कर” नहीं सकते
देखिए, आप उन्हीं कामों को करने में सक्षम होते हैं, जिन्हें आप अपने भौतिक शरीर से कर सकते हैं, मन से कर सकते हैं। जाहिर तौर पर मानसिक सतर्कता मन का ही एक कार्य है, जो आप कर सकते हैं। आपकी गतिविधियां अभी आपके शरीर, मन और भावनाओं तक ही सीमित हैं। अब आपने इन योगिक तरीकों को सीख लिया है। इसकी मदद से आपकी गतिविधियों का साम्राज्य ऊर्जा या प्राण के स्तर तक पहुंच सकता है। गतिविधियों के यही चार स्तर हैं, जो आप जानते हैं। इसके परे कोई गतिविधि नहीं है, लेकिन जागरूकता का संबंध इनमें से किसी के साथ भी नहीं है। यह शरीर, मन, भावना या प्राण किसी से भी जुड़ा नहीं है। यही वजह है कि आप इसे नहीं कर सकते।
उलझन को संभालना सीखना होगा
तो आप उलझन में हैं। उलझन अच्छी बात है। आपको यह पसंद नहीं, क्योंकि आपको इसकी कीमत का अंदाजा नहीं है। आप निष्कर्ष की आरामदायक स्थिति में रहना पसंद करते हैं। निष्कर्ष का मतलब मौत है, उलझन का मतलब है कि अभी भी संभावना है। उलझन का मतलब है कि आप ढूंढ रहे हैं। आप जितने ज्यादा उलझन में होंगे, आप उतना ही ज्यादा ढूंढ़ेंगे। लेकिन दुनिया में ज्यादातर मन को उलझन पसंद नहीं आती, क्योंकि वे इसे संभाल नहीं पाते। उन्हें पता ही नहीं कि इसे संभाला कैसे जाए। चूंकि वे उलझन को संभाल पाने में सक्षम नहीं होते, इसलिए जल्दी से जल्दी किसी नतीजे पर पहुंच जाना चाहते हैं।
लोग कहते हैं- ‘वह सब तो ठीक है सदगुरु, यह बताइए कि मेरी आत्मा कहां है? क्या मेरे पास एक आत्मा है, बस मैं यही जानना चाहता हूं। यह सारी खोजबीन मुझे पागल बना रही है।’
नतीजे निकालना छोड़ें, या फिर भक्त बन जाएं
अगर मैं बता भी दूं तो आपको क्या मिलेगा? बस जीवन के लिए एक और वाक्य। मैंने आपको बता भी दिया कि आपकी आत्मा यहां है, उससे आप कहां पहुंच जाएंगे? आपके अनुभव में तो कोई बदलाव नहीं आएगा। बस आपको थोड़ी संतुष्टि हो जाएगी कि मुझे पता है कि मेरी आत्मा कहां है। तो अगर आपके पास इतना सीधा सा दिमाग है कि आप उलझन को नहीं संभाल सकते तो आपको भक्त बन जाना चाहिए, लेकिन आप वह भी नहीं करना चाहते। आपको लगता है कि आपके पास सोचने के लिए दिमाग है। अगर आपके पास सोचने के लिए दिमाग है तो आपको किसी भी तरह की उलझन को संभाल पाना चाहिए। उलझन का मतलब है कि एक ही चीज के आपके पास कई पहलू हैं। एक ही चीज के बारे में आपके पास बहुत सारी जानकारी है और आपको यह नहीं पता कि कौन सी सूचना क्या है, लेकिन आपके पास सामग्री बहुत सारी है। यह अच्छी बात है। अब आप गहराई में जाकर देखना शुरू कर सकते हैं। लेकिन आपको नहीं पता कि इस मन को कैसे संभाला जाए, इसलिए उलझन असहनीय हो जाती है। आप जल्द से जल्द नतीजे पर पहुंचना चाहते हैं, लेकिन वह नतीजा आपको कहीं नहीं पहुंचाएगा।
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