जागरूकता और सजगता में क्या अंतर है?
आध्यात्मिकता की राह पर चलने वाले अक्सर कुछ शब्द-जाल में उलझ जाते हैं। आज के स्पाॅट में सद्गुरु बता रहे हैं कि किस तरह लोग जागरुकता को सजगता समझने की भूल कर बैठते हैं। तो आखिर जागरुकता है क्या?
एक चीज मैंने अकसर गौर की है कि जब लोगों को विश्वास होने लगता है कि वे आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं तो वे कुछ पहलुओं के बारे में बताने के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगते हैं जिनका उनको अनुभव भी नहीं होता। नतीजा यह होता है कि उन्हें उन चीजों के बारे में गलतफहमियां होने लगती हैं। ‘जागरूकता’ या उससे जुड़े शब्द कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं। जागरूकता को अकसर सजगता समझ लिया जाता है और उसी रूप में इस्तेमाल भी किया जाता है। जबकि ये दोनों एक नहीं हैं। सजगता मन और शरीर का एक गुण है। जबकि जागरूकता शरीर और मन की नहीं होती, यह तो जीवन की प्रकृति होती है। ज्यादातर लोग इनमें फर्क नहीं कर पाते।
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परिभाषा को एक आकार, एक रूप और एक गुण की जरूरत होती है। जागरूकता में अपनी कोई खूबी या गुण नहीं होता। इसलिए हम नकारात्मक शब्दों में इसकी व्याख्या करते हैं। हम इसे ‘निर्गुण’ कहते हैं, जिसका मतलब है ‘जिसमें कोई गुण न हो’। यह व्याख्या उतनी ही करीब है, जितनी कोई परिभाषा हो सकती है। हमारा तार्किक मन उस चीज को समझ ही नहीं सकता, जिसमें कोई गुण न हो। और चूंकि यह हर जगह मौजूद है, इसलिए आप इसे नकार भी नहीं सकते। एक बहुत सुंदर घटना है संत अलामा प्रभु के जीवन से जुड़ी। अलामा प्रभु उत्तर कर्नाटक में रहने वाले एक महान संत थे, जो वीर शैव संप्रदाय के एक प्रमुख स्तंभ के रूप में पूजनीय हैं।
एक दिन गोरक्षा नामक एक योगी अलामा को खोजते हुए आए। दरसल, उन्होंने अलामा के बारे में कई महान बातें और चीज़ें सुन रखी थीं, वह अलामा से प्रतिस्पद्र्धा करना चाहते थे। बताते हैं कि उस समय उनकी उम्र तकरीबन 280 साल से ऊपर की रही होगी। कड़े योगाभ्यास से उन्होंने अपने शरीर के तत्वों पर जबरदस्त महारत हासिल कर ली थी। उन्होंने अपने शरीर को इस कदर कठोर कर लिया था कि उम्र को भी झुठला दिया था। जिन्हें भी वे जानते थे, वे सब मर खप गए थे, लेकिन वे तब भी एक युवक की तरह मजबूत बन कर जिंदा थे। उन्हें इसी चीज का अभिमान था।
जब कोई चीज न ‘यह’ होती है, न ‘वह’ तो उसका अपना कोई गुण नहीं होता। यही शिव हैं - ‘जो है ही नहीं।’ यही जागरूकता की प्रकृति है, जिसमें अपना कोई गुण नहीं होता, कोई प्रतिरोध नहीं होता, कुछ भी नहीं होता। यही जीवन की प्रकृति है और यही जीवन को स्रोत है। लेकिन अगर लोगों ने जागरूकता का जरा भी अनुभव किया है तो ज्यादातर उन्होंने अपने दिमाग या मन की छन्नी की मदद से ऐसा किया होगा। बिना गुण के कोई मन होता ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा आप अपने मन को इस तरह शांत कर सकते हैं कि यह आइने की तरह हो जाता है, वह भी कुछ समय के लिए। क्योंकि मन बिना गुणधर्म या सूचना के काम नहीं कर सकता। अगर आप अपने मन को एक खास स्तर तक शांत कर लेते हैं तो आप उस आयाम तक पहुंच जाते हैं, जिसे हम जागरूकता कहते हैं। हम इसे जीवन भी कह सकते हैं, जीवन का स्रोत, दैवीय, निर्गुण या आत्मन भी कह सकते हैं। ये सब एक ही हैं।
ज्यादातर लोगों के मामले में उनका मन जागरूकता की समझ को बुरी तरह धुंधला बना देता है, क्योंकि जागरुकता मन में ही प्रतिबिंबित होती है। अगर मन थोड़ी देर के लिए स्थिर रहे तो जागरूकता स्पष्ट हो उठेगी। लेकिन मन के जरा सा भी गतिशील होते ही, विचार व भावनाएं आते ही तुरंत जागरूकता मलिन होने लगती है। सच्चाई यह है कि आप जागे हुए हैं और आप इसे इस वक्त पढ़ रहे हैं तो इसका मतलब है कि आप जागरूक हैं किसी भी भाषा को समझना, उसका महत्व, उसमें निहित अर्थ को समझना जैसी सारी चीजें मन से आती हैं। मन बिना बाहरी सूचना व सहयोग के काम कर ही नहीं सकता।
अगर आप कोई बाधा नहीं खड़ी करते तो आप आसानी से अपनी भौतिक व मनावैज्ञानिक ढांचे से परे जाकर अपनी जागरूकता में ऊपर उठा सकते हैं, क्योंकि यही उसकी प्रकृति है। फिलहाल आप तमाम बाधाओं और बंधनों के साथ इसे नीचे पकड़कर रखे हुए हैं। अपने भौतिक और मनोवैज्ञानिक ढांचे को सही सलामत रखते हुए अपनी जागरूकता को ऊपर उठाने के लिए, अपको यह समझना होगा कि यह बना कैसे है। यह सीखने की एक प्रक्रिया है, जिसमें समय लगता है। जागरूकता का अपना कोई गुण नहीं होता। चूंकि आप अपने मन के धुंधले चश्मे से हर चीज को देखते और समझते हैं, इसलिए ऐसा महसूस होता है कि अलग-अलग तरह की जागरूकताएं होती हैं। जबकि जागरूकता एक ही है। आपके आस-पास चारों तरफ की हवा, आपके भीतर मौजूद जीवन और इस ब्रम्हांड में व्याप्त ऊर्जा का गुण बुनियादी रूप से एक ही है, बल्कि दूसरे शब्दों में ये सब गुण से परे - ‘निर्गुण’ हैं।
निर्गुण
नहीं है कुछ भी यहां
जिसे कह सकूं सचमुच मेरा
न यह तन न कोई इंसान
न यह दुनिया न ही दूसरी
न मित्र, न ही बैरी।
न भय है कुछ खोने का
न आशा है कुछ पाने की।
मैं हूं यहां पारदर्शिता
पदार्थहीन पारदर्शिता
एक उपस्थिति
व्यक्तित्वहीन उपस्थिति
एक अस्तित्व
स्व-हीन अस्तित्व।
इसलिए गतिविधियां बन गई हैं - स्थिरता
कोलाहल इस दुनिया का
बन गया है मेरा मौन
और यह पूरा ब्रह्मांड
बन गया है मेरा अस्तित्व।