कोई भी कम करने से पहले हम अनुमान लगाते हैं कि वो कितना वक्त लेगा। एक साधक ने यही आत्मज्ञान के बारे में जानना चाहा और सद्‌गुरु से पूछा कि आत्मज्ञान में कितना समय लगता है। जानते हैं सद्गुरु का उत्तर

प्रश्न : आत्म ज्ञान पाने में कितना वक्त लगता है?

सद्‌गुरु : सवाल वक्त का नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि आप कब कोशिश करेंगे? ‘इसमें कितना वक्त लगता है’- ये तो कोई सवाल ही नहीं हो सकता। अगर आप सचमुच आत्म-ज्ञान पाना चाहते हैं, तो सोचिए, क्या इसमें वक्त लगना चाहिए? पर इसमें वक्त लगता है, क्योंकि आप अपना सब-कुछ एक ही बार में नहीं लगाते; किस्तों में लगाते हैं।

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एक बीज पौधा बन जाता है, पौधा बड़ा पेड़ बन जाता है। यह कोई मामूली बात नहीं, एक जबरदस्त घटना है। क्या इसमें कोई शोर होता है? छोटी-छोटी उपलब्धियां ज्यादा शोर मचाती हैं।
तो यह आपकी मर्जी है कि आप छोटी-छोटी किस्तों में करके सौ जन्मों में इसे पूरा करना चाहते हैं, या आज ही उसे पूरा कर लेना चाहते हैं। इसमें कितना वक्त लगता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपमें ज्ञान की लालसा कितनी तीव्र है।

अगर यह जानकारी इंटरनेट पर मिलने वाली होती तो हर कोई यह जानना चाहता कि मौत के बाद क्या होगा। अगर लॉग-इन कर के फटाफट जानकारी मिल सकती तो हर कोई जानना चाहता। लेकिन जरा सोचिए कि आपको जानने की क्या सचमुच तड़प है? ‘मौत के बाद क्या होता है? मेरे सृजन का स्रोत क्या है?’- ऐसे सवाल अगर आप चलते-फिरते यूं ही पूछ सकते हैं, तो इसका मतलब है कि आप इस सवाल की गहराई को समझ ही नहीं रहे। यह सवाल जब आपको अंदर ही अंदर इस हद तक जला रहा हो कि आप एक शब्द भी न बोल पा रहे हों और जलते जा रहे हों, तो समझ लीजिए कि ज्ञान आपसे दूर नहीं है।

आत्म को जानने की इच्छा तीव्र नहीं है

यह बहुत आसान है। लेकिन यह इतनी दूर इसलिए है क्योंकि आपकी ललक में अभी तीव्रता नहीं है। यह अभी भी आपको जला कर राख नहीं कर रहा। यह अभी भी आपसे थोड़ी दूर है। अगर सत्य को जानना आपके लिए किसी मनोरंजन की तरह है तो आप इसे कभी नहीं जान पाएंगे। अगर आपमें इसको जानने की ऐसी चाह हो कि बस इसके सिवाए और कुछ भी आपको नहीं चाहिए, फिर यह आपसे बस पल भर की दूरी पर है। क्योंकि आपको जो चाहिए वह तो आपके ही अंदर है। जो आपके अंदर है उसको जानने से खुद के सिवाय आपको और कोई नहीं रोक सकता, है न? तो आपको रास्ते से खुद को हटाना होगा। या तो आप किस्तों में हटिए या फिर एक ही बार में।

आत्म ज्ञान चुपचाप से हो जाता है

जरूरी नहीं कि हमेशा एक धमाके के साथ आपको अंतर्ज्ञान हो। यह चुपचाप भी हो सकता है, किसी फूल के धीरे-धीरे खिलने की तरह। धरती पर बड़ी-बड़ी घटनाएं बिना किसी शोर-शराबे के चुपचाप हो जाती हैं। क्यों, है न? देखिए न, एक बीज पौधा बन जाता है, पौधा बड़ा पेड़ बन जाता है। यह कोई मामूली बात नहीं, एक जबरदस्त घटना है।

अगर यह जानकारी इंटरनेट पर मिलने वाली होती तो हर कोई यह जानना चाहता कि मौत के बाद क्या होगा। अगर लॉग-इन कर के फटाफट जानकारी मिल सकती तो हर कोई जानना चाहता। लेकिन जरा सोचिए कि आपको जानने की क्या सचमुच तड़प है?
क्या इसमें कोई शोर होता है? छोटी-छोटी उपलब्धियां ज्यादा शोर मचाती हैं। आप जानते ही हैं मुर्गा सुबह-सुबह उठ कर ऊंची आवाज में बांग लगा कर बहुत शोर मचाता है। लेकिन कुदरत में होने वाली बड़ी-बड़ी घटनाएं कोई शोर नहीं करतीं। सब-कुछ चुपचाप हो जाता है। इसी तरह अंतर्ज्ञान भी चुपचाप आता है, बिना किसी शोर के – कोई आतिशबाजी नही होती, चुपचाप शांति से। बिना किसी शोर-शराबे के आप एक आयाम से दूसरे आयाम में चले जाते हैं। बगीचे में फूल चुपचाप खिल जाता है, पर एक बार यह खिल गया तो आप उसको नजरअंदाज नहीं कर सकते। उसकी खूबसूरती और खुशबू की मौजूदगी को कोई नकार नही सकता।

इसी तरह अंतर्ज्ञान पाना यानी आपका एक आयाम से दूसरे आयाम में खिलना चुपचाप हो जाता है। लेकिन जब यह होता है और जिस पल आपको इसका अहसास होता है तब यह बहुत बड़ी घटना होती है। आप उसको नजरअंदाज कर नहीं सकते।