सर केन रॉबिन्सन : सद्‌गुरु, शिक्षा का उद्देश्य क्या है? मुझे लगता है कि हम सब दो तरह की दुनिया में पैदा होते हैं। एक दुनिया तो वो होती है, जो आपके यहां आने से पहले भी मौजूद थी। यह वो दुनिया है, जो तब भी रहती है, जब आप इस दुनिया से चले जाते हैं। लेकिन यहां एक और दुनिया है, जो सिर्फ इसलिए है, क्योंकि आप यहां हैं। यह दुनिया आपकी निजी चेतना की दुनिया है, आपकी अपनी चिंताओं, आशाओं, आकांक्षाओं, प्रतिभाओं, आपके डर व आपकी महत्वाकांक्षाओं की दुनिया है। शिक्षा बाहरी दुनिया से संबंधित होती है, लेकिन बच्चे ज्यादातर जिन समस्याओं का सामना करते हैं, वे उनकी भीतरी दुनिया से संबंधित होती हैं। तो मैं शिक्षा की भूमिका जैसी देख पा रहा हूं, वह ऐसी है कि उसका काम बच्चों को अपने आस-पास की दुनिया को समझने में मदद करने के साथ-साथ अपने भीतर की दुनिया को समझने में भी मदद करना है। मेरे लिए फिलहाल शिक्षा की सबसे बड़ी कमी यह है कि हम लोग काफी हद तक बच्चों की भीतरी दुनिया को दिशा देने में असफल रहे हैं, साथ ही हम उनकी संभावनाओं को जान पाने में असफल रहे हैं।

सद्‌गुरु: किसी ने कहा है कि शिक्षा एक ऐसी बुराई है, जो हमें अपने बच्चों को देनी ही पड़ती है। यह एक आवश्यक बुराई इसलिए है, क्योंकि कई बुराईयां पहले से ही मौजूद है। हमारी आकांक्षाएं बेहद पेचीदा हैं। शिक्षा का अधिकांश हिस्सा विशालकाय मशीनों के लिए कलपुर्जे बनाने की कोशिश में खर्च होता है। दुर्भाग्य की बात है कि हमारे बच्चे इस आर्थिक इंजन के लिए ईंधन बन रहे हैं। आपको एक खास तरह से ढाला जाता है, क्योंकि आपको एक खास मशीन में फिट करना होता है, यह एक क्रूरता है।

ईशा संस्कृति – शिक्षा का एक नया रूप

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शिक्षा का एक दूसरा रूप भी है, जहां लोग इस मशीन के लिए पुर्जे बनाने के इच्छुक नहीं हैं। वे चाहते हैं कि बच्चे व्यक्तिगत तौर पर खिलें व निखरें।

यह पद्धति क्या है, इसकी एक झलक देने के लिए बता हूं कि पंद्रह साल की उम्र में ये बच्चे तीन साल के लिए तपस्वी का जीवन जीते हैं।
इसलिए हमने ‘ईशा संस्कृति’ की शुरुआत की, जहां किसी तरह की ऐसी कोई अकादमिक शिक्षा नहीं है। वे यहां केवल संगीत, नृत्य, कला, संस्कृत भाषा, मार्शलआर्ट कलरीपयट्टू, शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य, योग व अंग्रेजी भाषा - जो कि दुनिया घूमने के लिए पासपोर्ट की तरह है, सीखते हैं। इन बच्चों को देखना अपने आप में एक खुशनुमा अहसास होता है। बच्चों को ऐसा ही होना चाहिए। यह पद्धति क्या है, इसकी एक झलक देने के लिए बता हूं कि पंद्रह साल की उम्र में ये बच्चे तीन साल के लिए तपस्वी का जीवन जीते हैं। अनिवार्य(जरुरी) रूप से पंद्रह साल की उम्र में जाते हैं और अनिवार्य(जरुरी) तौर पर अठ्ठारह साल की उम्र में वापस आ जाते हैं। उसे आगे जारी नहीं रख सकते। यह अनुशासन और एकाग्रता के लिए होता है। तो मुझे इन पंद्रह साल के बच्चों को दीक्षित करना था। इसकी तैयारी के तौर पर आखिरी के साठ दिनों में इन्हें सुबह 3.30 बजे उठना होता था और फिर रात 9 बजे तक ये लगातार व्यस्त रहते थे, जिसमें लगभग आठ घंटे का ध्यान, कई तरह की साधना और आखिरी के साठ दिनों में पूरी तरह से मौन शामिल थे।

ध्यान देने की क्षमता सबसे जरुरी है

तो दीक्षा के आखिरी पांच दिन बचे थे, मैं देखना चाहता था कि वे कैसे हैं। मैं उन्हें देखने के लिए सुबह साढ़े तीन बजे पहुंचा।

हम लोग बच्चों में एक भेदभाव रहित और बिना पूर्वाग्रह का ध्यान विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे वे दुनिया में हरेक चीज के प्रति समान भाव से ध्यान दे सकें।
ये सारे बच्चे सहज रूप से बैठे हुए थे, पूरी तरह से स्थिर। मैंने उन पर नजर डाली, वे लोग वाकई दमक रहे थे। मैं वहां बैठ गया और मेरी आंखों से आंसू बहने लगा, क्योंकि मैंने अपनी पूरी जिंदगी में ऐसे बच्चे नहीं देखे थे। निश्चित तौर पर पंद्रह साल की उम्र में मैं खुद ऐसा नहीं था। लेकिन आप पूरी दुनिया को ऐसा नहीं बना सकते। इस तरह के स्कूल के पीछे सोच - ऐसे इंसानी शरीर और दिमाग को तैयार करना है, जहां ऐसा कोई इरादा न हो कि इन्हें आगे जाकर क्या बनना है - वे जो चाहें बन सकते हैं। इसमें सिर्फ एक बात का ध्यान रखा जाता है कि शरीर और मन अपनी संपूर्ण क्षमता के साथ निखरकर सामने आ सके। इसमें ध्यान देने की क्षमता सबसे अहम चीज होती है। हम लोग बच्चों में एक भेदभाव रहित और बिना पूर्वाग्रह का ध्यान विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे वे दुनिया में हरेक चीज के प्रति समान भाव से ध्यान दे सकें। इस तरह की शिक्षा का यह बुनियादी तत्व है।

दुनिया में एक बिमारी फैली हुई है

अगर आप इस स्कूल में आना चाहते हैं तो आपको बारह साल की प्रतिबद्धता चाहिए।

आज हर कोई इस पागलपन भरी दौड़ में शामिल है कि आपके बच्चे को आपके पड़ोसी के बच्चे से बेहतर प्रदर्शन करना चाहिए। यह एक बीमारी है।
अगर आप छह साल की उम्र में यहां आएंगे तो अठ्ठारह साल की उम्र में आप यहां से जा सकते हैं। मुझसे अक्सर अभिभावक पूछते हैं, ‘बच्चे यहां से जाने के बाद क्या करेंगे?’ मेरा जवाब होता है, ‘एक बात मैं आपको पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि यहां से जाते समय हम किसी तरह का कोई ‘सर्टिफिकेट’ नहीं देंगे।’ उनकी प्रतिक्रिया होती है, ‘यह क्या सद्‌गुरु?’ मेरा जवाब होता है, ‘क्या मुझसे किसी ने पूछा था कि मेरे पास कौन से ‘सर्टिफिकेट’ हैं?’ हो सकता है कि दुनिया में आपके लिए दरवाजे थोड़ी देर से खुलें, लेकिन एक बार अगर आपके लिए दरवाजे खुल गए तो वे फिर खुले ही रहेंगे। और ये दरवाजे आपकी शिक्षा की वजह से नहीं, बल्कि आपकी योग्यता की वजह से खुले रहेंगे। आज हर कोई इस पागलपन भरी दौड़ में शामिल है कि आपके बच्चे को आपके पड़ोसी के बच्चे से बेहतर प्रदर्शन करना चाहिए। यह एक बीमारी है।