अब तक लोग उत्तराखंड में आयी विपदा की विकरालता को पूरी तरह समझ नहीं पाये हैं। एक समय था जब मैं हर वर्ष हिमालय-यात्रा पर जाया करता था। बस चार-छह साल पहले ही मैंने इस यात्रा का क्रम तोड़ा है। देश के अत्यंत सुंदर क्षेत्रों में यह सबसे अनोखा है। एक बात यह भी है कि हिमालय इस पृथ्वी की सबसे युवा पर्वतमाला है। यदि आप हिमालय-यात्रा पर गये हैं तो आपने देखा होगा कि यह मलबे के ढेर जैसा लगता है। यह पर्वत ऐसा ही कुछ दिखता है। नदियां तो पहले ही तीखे कटाव कर रही हैं, फिर हम भी इन पर्वतों को जब काट कर सड़कें बनायेंगे, तो भूस्खलन तो होंगे ही। मैं जब भी इस क्षेत्र में आया हूं– लगभग 27 से भी अधिक बार– हर बार भूस्खलन में फंसा हूं और सुरक्षित स्थान तक पहुंचने के लिए मुझे मीलों पैदल चलना पड़ा है। हिमालय-यात्रा में यह आम बात है।

इतना नया और नाजुक होने के कारण यह पर्वत स्वाभाविक रूप से मलबे के ढेर-जैसा है। सावधानी न बरतने पर यह बड़ी आसानी से ढहने लगता है। पिछले कुछ वर्षों में सीमा सड़क संगठन ने बहुत शानदार काम किया है। ये सब बातें तो ठीक हैं, लेकिन इस त्रासदी के लिए आप किसी संस्था या सरकार को दोष नहीं दे सकते क्योंकि वहां सिर्फ एक दिन में 340 मिलीमीटर वर्षा हुई थी। बादल फट पड़े थे। उन पर मानो सचमुच आसमान गिर गया। बादलों का फटना, भूस्खलन, ये सब तो पर्वतों के लिए स्वाभाविक है। यह एक त्रासदी बन गई क्योंकि हम बीच में आ गये, वरना यह त्रासदी नहीं, बल्कि पर्वतों के बड़े होने की महज एक सहज प्रक्रिया है। जो वस्तु अस्थिर होती है वह तो गिरेगी ही ताकि वह स्थिर हो सके; यह लाखों वर्षों तक चलने वाली प्रक्रिया है जो बस चल रही है। इसलिए यह कोई प्राकृतिक विपदा नहीं, एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। लेकिन यह एक मानव विपदा है। मानव विपदा से कैसे बचा जाये यह सोचना-समझना मानव का काम है। 

 हमें अपने आपको एक कारोबार के रूप में देखना होगा। और एक कामयाब कारोबार के रूप में न कि नाकाम।

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सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि एक कामयाब राष्ट्र एक कामयाब कारोबार भी होता है। हमारी शक्तियां और क्षमताएं क्या हैं? हमारे पास कौन-सी चीज़ सीमित है? क्या कुछ ऐसा है जिस पर ध्यान नहीं दिया गया? समय आ गया है कि हम राष्ट्र को एक कारोबार के रूप में देखें। हमें कोई ऐसा चाहिए जो कारोबारी हो और जो इस राष्ट्र को एक कारोबार के रूप में चला कर कामयाब बनाये। मुश्किल यह है कि हम इतिहास, परंपरा और दूसरी बहुत-सी चीज़ों में खो गए हैं। हमें उनका सम्मान अवश्य करना चाहिए लेकिन हमें उनको पारंपरिक ताकत और पारंपरिक कमजोरि के रूप में देखना होगा। आप उनको उस रूप में तभी देखेंगे जब सफलता मानदंड हो। अभी तक सफलता हमारा मानदंड नहीं है। किसी तरह पांच साल तक चलाते-खींचते रहना हमारा मानदंड है। तो हमें तय करना होगा कि सफलता एक मानदंड है।

यह क्या सद्‌गुरु? यह एक अत्यंत भीषण भावनात्मक संकट और पर्यावरण की इतनी बड़ी तबाही है और आप इसका उत्तर इस प्रकार से दे रहे हैं? हां, मैं आपको यह उत्तर दे रहा हूं क्योंकि अब वे पर्यावरण को ले कर कोई बेतुका कानून बना देंगे। समस्या से जूझने का यह कोई उपाय नहीं है। तबाही होने पर भावनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त कर देना समस्या का समाधान नहीं है। समाचार चैनलों में लोगों ने कहना शुरू कर दिया है, ‘इसको पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील स्थल घोषित कर देना चाहिए और किसी तीर्थयात्री, किसी श्रद्धालु को वहां जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। ये सारे लोग वहां क्यों जा रहे हैं? क्या वे स्थानीय मंदिरों में नहीं जा सकते?’ भावनाओं के ऐसे बहाव में कुछ बेतुके कानून बना दिये जायेंगे जिनका कुछ वर्ष बाद कोई भी पालन नहीं करेगा और जब लोग यह सब भुला देंगे तो सब-कुछ पहले-जैसा ही हो जायेगा। हमें अपने आपको एक कारोबार के रूप में देखना होगा। और एक कामयाब कारोबार के रूप में न कि नाकाम।एक सफल कारोबार के लिए यह आवश्यक है कि हम अपनी ज़मीन, अपनी प्राकृतिक संपदा और अपने मानव संसाधनों का कुशलता से देखभाल करें। अब वक्त आ गया है कि हम इसको एक कारोबार की तरह चलायें।

  इस देश में मरते समय भी हर किसी को दो बूंद गंगाजल चाहिए
हमें हिमालय को समझना होगा और यह भी जानना होगा कि हिमालय हमें क्या दे सकता है। हमारे लिए हिमालय की आर्थिक संभावना महत्व नहीं रखती, इसका आध्यात्मिक पहलू हमेशा से जन-जन को प्रेरित करता रहा है। अपनी आर्थिक कोशिश कहीं और कीजिए, गंगा के उपर सत्तर बांध बनाने की कोई ज़रूरत नहीं। इस देश में मरते समय भी हर किसी को दो बूंद गंगाजल चाहिए लेकिन अब हमें उन्हें बताना होगा कि इतनी श्रद्धा से जिन दो बूंदों से वे अपना गला तर कर रहे हैं वे डेढ़ सौ टरबाइनों से होते हुए उनके मुंह तक पहुंची हैं।

यह एक विशेष भावना है, एक मानवीय भावना है, जो इस देश को एक सूत्र में पिरोने का काम करती है। अलग-अलग देशों का अलग-अलग सांस्कृतिक आधार होता है। भारतीयों को एक साथ जोड़े रखने में गंगा और हिमालय का बहुत खास स्थान है। यदि आपने इनको नष्ट किया तो कुछ समय बाद इस विविधतापूर्ण आबादी को एक राष्ट्र के रूप में बांधे रखने में बड़ी कठिनाई होगी। वैसे अभी ही ऐसा होने लगा है। लोग अलग-अलग दिशाओं में रस्साकशी कर रहे हैं। धीरे-धीरे कुछ समय बाद हर कोई अलग तरीके से सोचने लगेगा और तब एक दिन आप सोचेंगे, ‘हम भला एक साथ किसलिए हैं?’ वह दिन बहुत दूर नहीं है। जब मैं ‘बहुत दूर नहीं’ कहता हूं तो मेरा मतलब है कि एक राष्ट्र के जीवन में पचास वर्ष बहुत ज़्यादा नहीं होते।

इसको आप महज एक त्रासदी या महज एक घटना के रूप में न देखें जिसको हम कैमरा बंद होते ही भूल जायें और अपने काम में खो जायें। हमें भारत को एक कारोबार के रूप में देखना होगा और हम चाहते हैं कि यह कारोबार हर स्तर पर हमेशा कामयाब हो।

Love & Grace