युधिष्ठिर को युवराज घोषित किया गया

पांडवों के अपने छिपने के स्थान से बाहर आने के बाद अर्जुन ने द्रौपदी को स्वयंवर में जीत लिया। और फिर पाँचों भाईयों का विवाह द्रौपदी से हो गया। दूसरी तरफ कौरव खुद को अपमानित महसूस कर रहे थे और गुस्से में और आश्चर्यचकित थे।

इस दौरान, युधिष्ठिर ने ऋषियों और मुनियों के संग बहुत सा समय बिताया, अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया। इस तरह उनका सारा चिंतन धर्म और कर्म के अनुसार होने लगा। 
वे पता नहीं लगा पा रहे थे जिन पांडवों को उन्होंने मरा हुआ मान लिया था, वे एक साल बाद जिंदा कैसे हो गए थे? उन्होंने पांडवों के जले हुए शव देखे थे - और वे अचानक एक झटके के साथ सामने आ गए थे। द्रौपदी से विवाह होते ही, द्रुपद के साथ बने संबंधों ने उन्हें और भी मजबूत बना दिया था। सबसे बड़े अपमान की बात तो यह थी कि अर्जुन ने उस स्वयवंर को जीता था, जिसकी प्रतियोगिता को कोई भी कौरव पार नहीं कर सका था, और कर्ण को प्रतियोगिता में हिस्सा ही नहीं लेने दिया गया था, क्योंकि वह नीची जाति का था।

खैर, युधिष्ठिर अपनी पत्नी और पुरोहित के साथ दरबार में आए और सिंहासन पर अपना दावा जताया। धृतराष्ट्र के पास उन्हें भावी युवराज घोषित करने के सिवा कोई उपाय नहीं था।

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भीष्म ने युधिष्ठिर को सिंहासन देने का फैसला किया

उसी समय से कौरवों और पांडवों के बीच शत्रुता का नाता और भी गहरा हो गया, लेकिन झगड़ा महल के अंदर ही था। उन्होंने एक-दूसरे पर कोई हमला नहीं किया, लेकिन दोनों ही एक दूसरे को नुकसान पहुंचाने का काम करते रहते थे। सत्ता के इस संघर्ष की वजह से राज्य के प्रशासन पर असर पड़ रहा था। भीष्म को एहसास हुआ कि उन्हें राज्य-संरक्षक के रूप में नियम और शासन व्यवस्था को बहाल करना होगा। उन्होंने कहा, ‘हमें युधिष्ठिर को सिंहासन दे देना चाहिए। उसे युवराज बनाए रखने का कोई मतलब नहीं है। अब उसे महाराज बना देना चाहिए। इससे किसी-न-किसी तरह स्थिति ठीक हो जाएगी। दुर्योधन व दूसरे राजकुमारों को महत्वपूर्ण पद सौंपे जा सकते हैं।’ जब यह ऐलान किया गया तो दुर्योधन गुस्से से पागल हो गया। उसने अपने पिता के पास जा कर कहा, ‘आपने मुझे भावी राजा की तरह पाला-पोसा और अब आप कह रहे हैं कि मुझे दास बन कर इन लोगों से आदेश लेने होंगे, जो जंगल से आए हैं? आप चाहते हैं कि मैं भीम के अधीन रहूँ? वह प्रतिदिन मुझे सताएगा और ताने देगा। मैं अपनी जान दे दूंगा।’ इस तरह दुर्योधन ने आत्महत्या करने की धमकी दे दी, लेकिन भीष्म ने कहा, ‘युधिष्ठिर ही राजा होगा। पूरे देश का कल्याण इसी में है।’ हालांकि धृतराष्ट्र भी इस बात के लिए राजी नहीं थे पर वह केवल नाम के राजा थे। वे अंधे थे और उन्हें अपने हर काम के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता था।

धर्मराज युधिष्ठिर ने सभी को चौंका दिया

भीष्म आयु, बल और बुद्धि में बड़े थे, वे राज्य-संरक्षक थे, और महान योद्धा थे। सभी उनका बहुत आदर करते थे। उनके पास ही सबसे बड़ी सत्ता और निर्णय लेने की शक्ति थी। उन्होंने ही युधिष्ठिर को चुना था।

एक बार वह उससे मिलना चाहता था और महल में होने की वजह से ऐसा संभव नहीं था। उसने उसे पत्र भेजा कि वह उसे व्यायामशाला में मिलना चाहता है। 
पर दुर्योधन निरंतर अपने पिता को धमकी देता रहा कि वह अपनी जान दे देगा। उसके भाईयों ने कहा, ‘हम पर्वतों में, गांधार वापस चले जाएँगे।’ उनकी माता वहीं से थी, यह स्थान वर्तमान हिमाचल प्रदेश में पड़ता है। धृतराष्ट्र को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। वह चाहते थे कि उसका बेटा शासन करे पर उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। परंपरा के अनुसार तो सबसे बड़े को ही सिंहासन मिल सकता था और वह युधिष्ठिर था। तभी भीष्म ने उसे इस पद के लिए चुना। राज्याभिषेक का दिन आ गया। इस दौरान, युधिष्ठिर ने ऋषियों और मुनियों के संग बहुत सा समय बिताया, अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया। इस तरह उनका सारा चिंतन धर्म और कर्म के अनुसार होने लगा। वे हर चीज का उचित और अनुचित परखते थे। वे आजीवन सच्चे, ईमानदार और न्यायी बने रहना चाहते थे। जब भीष्म ने दरबार में अपना निर्णय दिया तो युधिष्ठिर ने खड़े होकर कहा, ‘जो भी किया जाना चाहिए, मैं वह सब करने का उत्तरदायित्व लेता हूँ परंतु जब तक धृतराष्ट्र जीवित हैं, तब तक आप इन्हें ही महाराज के पद पर रहने दें। मैं उनसे ही आदेश लूँगा और दुर्योधन को भी राजा के समान अधिकार मिले। वह भी मेरा भाई है।’ दुर्योधन और उसके भाई अपने कानों पर विश्वास नहीं कर सके। उन्होंने कहा, ‘क्या हमने जो सुना, वह सच था?’

भीष्म अब थक चुके थे

उन्होंने इतना संघर्ष किया और अब युधिष्ठिर कह रहा है कि वह राज्य में समान अधिकार देगा क्योंकि यही धर्म व न्याय है। भीष्म ने अपनी ओर से समर्पण करते हुए कहा, ‘मैं लंबे समय से इस देश का भार संभालता आ रहा हूँ।’ वे पिछली तीन पीढ़ियों से बिना राजा बने वंश का नेतृत्व करते आ रहे थे। उन्हें देश चलाने का बोझ उठाना पड़ा था, परंतु उनके पास परिवार का सुख नहीं था, क्योंकि वे ब्रह्मचारी थे। उन्होंने जितना त्याग किया, उतना कोई दूसरा नहीं कर सकता था। और अब, जब वे कुरु वंश में शांतनु के बाद कोई दूसरा सुयोग्य शासक नियुक्त करना चाह रहे थे, तो परिस्थिति अनावश्यक तौर पर उलझ गई थी।

भीम उठकर दरबार से बाहर चला गया

चारों पांडव भाई गुस्से से सुलग उठे पर उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के समय कसम खाई थी कि बड़े भाई के तौर पर युधिष्ठिर जो भी कहेंगे, वही उनके लिए पत्थर की लकीर होगा। इस देश में यही नियम हुआ करता था। पुत्र वही करते, जो उनके पिता कहते। बुजुर्ग अपने से छोटों पर अपना आदेश चलाते, शांतनु और पुरु के समय से ऐसा होता आ रहा था परंतु दुर्योधन के मामले में यही प्रथा उलट गई थी। चारों पांडव अपने भाई युधिष्ठिर को पिता की तरह मान देते थे। वे सदा उनकी आज्ञा का पालन करते। पर आज भीम को यह सब सहन नहीं हो रहा था। इतने वर्षों तक कष्ट सहने के बाद जब आखिरकार युधिष्ठिर को राजा बनाया जाने वाला था, और पांडवों के पास सारे अधिकार आने वाले थे, तब उसने सिंहासन पाने का दावा छोड़ दिया और अपना अधिकार धृतराष्ट्र व उसके वंश के साथ बांटने का फैसला किया। पर भीम न तो अपने भाई को कुछ कह सकता था और न ही उससे लड़ सकता था। वह चुपचाप दरबार से बाहर चला गया।

भीम और जालंधरा का प्रेम प्रसंग

इस दौरान, भीम ने हमेशा की तरह भरपेट खाया और किसी न किसी से उलझता रहा। उसे यही पसंद था - बहुत सारा भोजन और लड़ाई। उसके पास अंतहीन ऊर्जा और भूख थी। उसे एक ऐसी स्त्री से प्रेम हो गया, जो हरियाणा में जालंधरा, उत्तर प्रदेश में वलंधरा तथा बंगाल में बलन्धरा के नाम से जानी जाती थी। भारत में ऐसे ही होता है - हमारे पास इतनी भाषाएँ और बोलियाँ हैं कि अगर आप नई दिल्ली से कोलकाता होते हुए आते है, और आपका नाम वसुदेव है तो यह बासुदेव हो जाएगा। जब आप तमिलनाडू आएँगे तो यह वासुदेवन हो जाएगा। ठीक इसी तरह, उसका नाम जालंधरा, वलंधरा आदि था, जो इस बात पर निर्भर करता था कि आप देश के किस हिस्से में हैं। जालंधरा, दुर्योधन की पत्नी भानुमती की बहन थी। इस संबंध के कारण समस्या तो होनी ही थी।

महाभारत में भीम और जालंधरा के प्रेम प्रसंग के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। एक बार वह उससे मिलना चाहता था और महल में होने की वजह से ऐसा संभव नहीं था। उसने उसे पत्र भेजा कि वह उसे व्यायामशाला में मिलना चाहता है। वह अपना अधिकतर समय वहीं बिताता था। वह वहीं व्यायाम करके मांसपेशियां मजबूत करता और गदा चलाने का अभ्यास किया करता। वह आधी रात को चोरी से मिलने आई और उससे भलिया की व्यायामशाला में भेंट की। भलिया एक पहलवान था जिसकी उम्र सौ साल से भी अधिक थी। वह सोमेश्वर का पिता था, जिसे सारे राज वंश को ट्रेनिंग देने का काम सौंपा गया था। इस भेंट के बाद भीम जालंधरा को वापस छोड़ आया।