जब हम ईश्वर या सत्य की बात करते हैं तो हम कई सारे विचारों, सिद्धांतों से खुद को जोड़ लेते हैं। लेकिन क्या हर बार हमारा यह जुड़ाव सही होता है? एक मामूली सा अंतर हमें ब्रह्म की जगह भ्रम से जोड़ सकता है। तो फिर कैसे परखें इस अंतर को?आइए जानते हैं सद्‌गुरु से-

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संस्कृति का मतलब है - संपूर्ण सृष्टि के स्रोत के प्रति पूरा जुनून, आस-पास के सभी जीवों के प्रति असीम करुणा और खुद को लेकर पूरी तरह से अनासक्ति का भाव होना।
संस्कृत भाषा में परम सत्य को ’ब्रह्म’ का नाम दिया गया है। ’ब्रह्म’ परम सत्य का साकार रूप है। इस परम संभावना को ग्रहण करने में अगर जरा सी चूक हो जाए, तो वह ’भ्रम’ की स्थिति बन जाती है। इसलिए कहा जाता है कि अज्ञानता और ज्ञान में बस जरा सा फर्क है।

इस परम सत्य को पाने के नाम पर दुनिया में बहुत कुछ चलता रहता है। इसी वजह से इस धरती पर तमाम तरह के मूर्खों में से धार्मिक और आध्यात्मिक मूर्ख हमेशा आगे रहते हैं, क्योंकि उनको भगवान या फिर धर्मग्रंथों का पूरा समर्थन मिला होता है। आपकी मूर्खता पर अगर एक बार भगवान के नाम की मोहर लग गई, तो इसका कोई इलाज नहीं है। यह एक अजेय शत्रु की तरह है। लोग करोड़ों तरीकों से अपने अंदर के भ्रम को मजबूत किए जा रहे हैं और उनके जटिल विचार उनके विश्वास में तब्दील हो रहे हैं। दरअसल, सारी चीजें इसी सोच पर आकर खत्म हो जाती हैं कि ’मेरा यह मानना है’ और फिर इंसान सख्त बन जाता है, अड़ियल हो जाता है, फिर आप उसे बदल नहीं सकते।

इसलिए विचारों के भटकाव से बचने के लिए, अपनी राह पर बने रहने के लिए, किसी भी तरह के धोखे से बचने के लिए, आपमें एक खास तरह की अनासक्ति और निष्ठा होनी चाहिए। इसके लिए आपके अंदर एक सही तरह का माहौल बनाने में संस्कृति बड़ी मदद कर सकती है। संस्कृति का मतलब है - संपूर्ण सृष्टि के स्रोत के प्रति पूरा जुनून, आस-पास के सभी जीवों के प्रति असीम करुणा और खुद को लेकर पूरी तरह से अनासक्ति का भाव होना। फिलहाल दुनिया में इन सबका उल्टा हो रहा है। लोगों में खुद के लिए पूरा जुनून, दूसरों के लिए अनासक्ति और ऊपर वाले से करुणा की उम्मीद करते हैं। यही फर्क है ब्रह्म और भ्रम में। बस थोड़ी सी चूक हुई और समस्या खड़ी हो गई।

अगर आप अपने भीतर सही माहौल तैयार कर लेते हैं, तो आपको जो दीक्षा दी गई है और अभ्यास बताए गए हैं, वह चाहे कितने भी मामूली क्यों न हों, वो भी बेहतरीन तरीके से काम करेंगे। अगर यह माहौल नहीं बनेगा, तो सही चीजें भी बुरी होती जाएंगी। हो सकता है कि आप जो कर रहे हैं, वह बहुत अच्छा हो, लेकिन अगर माहौल सही नहीं है, तो सब व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी अपने अंदर सही माहौल को बनाना है।

आपकी मूर्खता पर अगर एक बार भगवान के नाम की मोहर लग गई, तो इसका कोई इलाज नहीं है। यह एक अजेय शत्रु की तरह है।
उस ‘परम सत्य’ को पाने के लिए आपके पास लगन होनी चाहिए। करुणा का मतलब किसी भेदभाव का न होना है, इस भावना में चुनाव का विकल्प नहीं होता, जुनून में आपके पास चुनाव का विकल्प हो सकता है, लेकिन करुणा चुनाव नहीं कर सकती, यह अपने में सब कुछ शामिल करती है, और खुद के प्रति अनासक्त रहती है। इसे अपने अंदर लाना होगा। इसके बाद आध्यात्मिक प्रक्रिया बहुत आसान हो जाती है। असल में इंसान के विकास के लिए, उसके खिलने के लिए यह एक कुदरती प्रक्रिया है।

अगर मिट्टी सही है और उसमें आपने बीज डाला है, तो उसमें अंकुर फूटना और फिर फूल आना बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन अगर मिट्टी सही नहीं है, तो फल लगना मुश्किल है। जैसे मिशिगन में सहजन उगाने की कोशिश की जाए। वहां आपको इसके लिए बड़ा कृत्रिम तरीका अपनाना पड़ेगा। लेकिन अगर आप इसे भारत में उगाते हैं, तो आप जहां भी इसका बीज डाल देंगे, वहां यह उग जाएगा, क्योंकि उसके लिए यहां सही वातावरण है। बस इतनी सी बात है। कुदरत की संपूर्णता को पाने के लिए वातावरण ही सबसे ज्यादा अहम होता है। परम सत्य को पाने की लगन, सबके लिए करुणा - अगर आप इसे अपने अंदर ले आते हैं, तो आपका वातावरण पूरी तरह तैयार हो जाएगा। अब जो बीज आपके अंदर बोया जाएगा, कुदरती तरीके से उसमें अंकुर फूटेगा, वह बढ़ेगा और उसमें फूल आएगा और इसे कोई नहीं रोक पाएगा। अगर वातावरण ही सही नहीं होगा, तो इन सब के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।