रैगिंग - छात्रों के भेस में घूमते आतंकवादी
कॉलेजों में रैगिंग का रिवाज कहाँ से आया है? क्या रैगिंग रोकने में नए कानून हमारी मदद कर सकते हैं? रैगिंग रोकने के लिए हमें क्या कदम उठाने चाहिएं?
रैगिंग जैसी कुप्रथा को किसी भी सभ्य समाज में जायज नहीं ठहराया जा सकता। शिक्षा व्यवस्था की पवित्रता को बनाए रखना है तो इसे सख्ती से रोकना होगा। कॉलेजों में रैगिंग का रिवाज कहाँ से आया है? क्या रैगिंग रोकने में नए कानून हमारी मदद कर सकते हैं? रैगिंग रोकने के लिए हमें क्या कदम उठाने चाहिएं?
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इस देश में आज भी माँ-बाप अपने बच्चों के भविष्य की खातिर ही जीवन जीते हैं। तो जाहिर है, कि परिवारों को ऐसी किसी भी घटना की वजह से बहुत कष्ट और परेशानी से गुजरना पढता है। वे अपने जीवन में जो भी फैसले लेते हैं, अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखकर ही लेते हैं। पार्टी, क्लब और सामाजिक तौर पर बहुत ज्यादा घुलने मिलने जैसे शौक उनके जीवन में कम ही होते हैं। भारत में अपने बच्चों के भविष्य को लेकर मां बाप का बहुत ज्यादा समर्पण है। जब इस समर्पण का कुछ युवाओं की बेहूदगी के कारण दर्दनाक अंत होता है, तो मां बाप के लिए वह बेहद पीड़ा दायक अनुभव बन जाता है। एक और दुःख की बात यह है कि ऐसा मेडिकल छात्र भी कर रहें हैं। रैगिंग के नाम पर वे नए छात्रों के जीवन से खेल रहे हैं। जबकि हम मेडिकल छात्रों से आगे चलकर लोगों का जीवन बचाने की अपेक्षा करते हैं।
हमारा प्रशासन और समाज भी ऐसी घटनाओं को रोकने में दिलचस्पी नहीं लेता। रैगिंग की परंपरा पश्चिमी देशों में शुरू हुई थी। उन देशों में सेना के जवानों के बीच रैगिंग का रिवाज था। लेकिन आज कॉलेजों में रैगिंग का कोई मतलब नहीं बनता। नए छात्रों को अपमानित करने की परंपरा हमारे संस्कृति के लोकाचार के भी खिलाफ है, क्योंकि हमारी संस्कृति तो 'अतिथि देवो भव’ की वकालत करती है। नए छात्रों का विश्वास पाने की जगह सीनियर सहपाठी नए आने वाले छात्रों के दुश्मन बन जाते हैं। यह हमारे मूल्यों में एक घिनौनी गिरावट है। हर सभ्य संस्कृति की तरह ही हमारी संस्कृति में भी अपने से उम्र में छोटों को पहली प्राथमिकता दी जाती है। लेकिन, जो छात्र कहीं एक दिन पहले आ जाता है, वह खुद को ‘सीनियर’ समझने लगता है। उसे लगता है कि उसे अपने से ‘जूनियर’ को उसकी हैसियत बताकर रखनी है।यह आधुनिक मानवता के लिए एक शाप की तरह है।
हमारी संस्कृति में विद्या प्राप्ति के स्थानों को हमेशा मंदिर की तरह देखा गया है। आज हमारी संस्कृति और शिक्षण संस्थानों में ये हिंसक रिवाज बनते जा रहे हैं। अगर हमने इन चीज़ों को सही तरीके से नहीं संभाला, तो इन संस्थानों में पढ़ाई करना संभव नहीं हो सकेगा। हमें देश के शिक्षण संस्थानों से रैगिंग के इस रोग को उखाड़ फेंकना होगा। अगर हम ऐसा नहीं कर पाये, तो शिक्षा भलाई का एक स्रोत बनने की जगह हमारी हानी ही करेगी।
कुछ लोग यह सोचते हैं कि रैगिंग को नियंत्रित करने के लिए हमें नए कानूनों की आवश्यकता है। एक देश के तौर पर हम अव्यवस्थित तरीके से चल रहे हैं, पर जब कोई गुंडागर्दी होती है तो नए कानून बनाने की बात करते हैं। रैगिंग रोकने के लिए नए कानून बनाने की बात अपने आप में एक दुखद मजाक की तरह ही लगती है। नए कानूनों से ऐसे छात्रों को दंड दिलाना ज़रूर आसान हो जाएगा। लेकिन ऐसी क्रूरता से निपटने के लिए मौजूदा कानून ही अपने आप में काफी हैं। इन कानूनों को हर स्तर पर कड़ाई से लागू करने की ज़रूरत है। अगर कानूनों को लागू करने में ढिलाई होगी, तो नए कानून बनानें से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हिंसा की ऐसी वारदातों को रोकने के लिए शिक्षण संस्थानों को अपने यहां कठोर कदम उठाने पड़ेंगे। ऐसा करने के लिए सरकार और समाज को संस्थानों पर दबाव बनाना पड़ेगा।
हमें यह सुनिश्चित करना होगा, कि नए शैक्षणिक सत्र की शुरुआत में देश में कहीं भी रैगिंग की एक भी घटना न हो। इसके लिए हमारे पास क्षमता और साधन मौजूद हैं। ऐसा करने के लिए हमें अपने अंदर रैगिंग के प्रति संवेदना लाने की ज़रूरत है। अगर हम संवेदना - शून्य बनें रहे तो कभी रैगिंग रोकने के लिए कदम नहीं उठा पाएंगे।