शिव के सिर पर आधा चाँद किस चीज का प्रतीक है?
सद्गुरु आदियोगी शिव के सिर पर सजे आधे चाँद के प्रतीक के बारे में समझाते हुए बता रहे हैं, कि आदियोगी तथा सहस्रार चक्र से उसका क्या संबंध है और कैसे दक्षिण भारतीय मंदिरों में लोग अक्सर इस आयाम को छूते हैं।
प्रश्न: सद्गुरु, आपने एक चर्चा में सोम रेखा का जिक्र किया था। क्या आप इस रेखा की प्रकृति, उसकी अहमियत और अनुभव से जुड़े आयाम के बारे में समझा सकते हैं? सद्गुरु: सोम का अर्थ है चंद्रमा या कोई नशीला रूप। सोम रेखा का अर्थ है, तृतीया के दिन यानी तीसरे दिन के चंद्रमा के मार्ग को रेखांकित(ज़मीन पर बनाना) करना। भारत में यह कथा है कि समुद्र मंथन से अमृत और विष निकला, शिव ने विष पी लिया और बाकी सभी लोग अमृत को पीकर अमर होना चाहते थे। मुख्य रूप से अमृत का अर्थ अमरता से है। इसका मतलब है आपका जीवन-अनुभव भौतिक सीमाओं से परे चला जाता है। अगर जीवन का आपका अनुभव भौतिक से परे चला जाए, तो आप एक तरह से अमर हो जाते हैं। अमरता का अर्थ यह नहीं है कि हमें आपको हमेशा के लिए झेलना पड़ेगा। इसका मतलब है कि हमें आपको बिल्कुल भी नहीं झेलना पड़ेगा क्योंकि आपकी भौतिक प्रकृति करीब-करीब समाप्त हो गई है।
सहस्रार चक्र के परमानन्द का प्रतीक है आधा चाँद
अगर इसे चक्रों के हिसाब से समझना चाहें, तो यह सहस्रार चक्र है। तीसरे दिन का चंद्रमा परमानंद का प्रतीक है, और ये परमानंद सहस्रार चक्र से टपका हुआ है। शिव के सहस्रार चक्र से अमृत की तीन बूंदें टपकीं जिसे हर कोई पाना चाहता है। उन्होंने इसे एक आभूषण की तरह अपने सिर पर धारण किया हुआ है। ये महत्वपूर्ण है - इसका मतलब है कि हमेशा परमानंद का एक हल्का सा रंग चढ़ा है, मगर वह उसमें डूबे हुए नहीं हैं। वे कभी-कभी इसमें खो जाते हैं, पर हमेशा हल्का सा परमानंद रहता है।
मंदिरों में लोग अपनी मांगें रखना भूल जाते हैं
जब हम एक खास रूप तैयार करते हैं – सभी लिंग नहीं बल्कि अधिकांश – अगर उन्हें उचित ढंग से बनाया जाए, तो उनमें परमानंद की एक झलक होती है। अगर आप खुद में और उन सभी आकारों में, जिनकी प्राण-प्रतिष्ठा की गई है, उनमें परमानंद की यह झलक नहीं ला पाते, तो उससे कोई प्रेरणा नहीं मिलेगी। प्रेरणा न मिलने से मेरा मतलब है कि लोग उस आकार के प्रभाव में नहीं आ पाएंगे। वे अपनी इच्छाओं के बारे में सोचते रहेंगे। भारत के बहुत से मंदिरों में ऐसा होता है, जहां सही तरीके से प्राण प्रतिष्ठा की गई है, कि लोग वहां प्रार्थना करने और तरह-तरह की मांगें रखने जाते हैं मगर वहां जाते ही वे सब कुछ भूल जाते हैं और बस खड़े रह जाते हैं। ऐसा परमानंद की झलक के कारण होता है। एक प्राण-प्रतिष्ठित आकार की छाया होती है, ‘छाया’ शब्द को रोशनी और परछाईं के अर्थ में मत लीजिए, उस आकार की ऊर्जा-छाया कुदरती तौर पर फर्श पर होगी। अगर हम उसे फर्श पर बना दें(मार्क कर दें), तो लोग उसपर चल सकते हैं। मेरे ख्याल से सिर्फ दक्षिणी भारत में लोग अब भी तीसरे दिन के चंद्रमा के बारे में जागरूक हैं, जिसे ‘प्रदोषम’ कहते हैं।
शायद अगस्त्य मुनि ने दक्षिण भारतीय लोगों को ये बताया था
सिर्फ दक्षिण में लोग इस बारे में जागरूक हैं - इसका श्रेय अगस्त्य मुनि को जाता है। वह लोगों के साथ खूब बातचीत करते थे और उन्हें कई तरह की चीजें बताते थे! वह लोगों से प्यार करते थे, इसलिए उन्हें बताते थे कि कई स्थान ऐसे हैं जहां छूने से परमानंद होता है। लोगों ने इसे एक परंपरा बना लिया और वे उस रेखा पर चलना चाहने लगे। दक्षिण भारतीय मंदिरों – आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के मंदिरों में यह काफी प्रचलित है। सिर्फ इन्हीं जगहों पर लोग इस बारे में जागरूक हैं। हो सकता है कि सभी लोग इस बारे में जागरूक न हों, मगर परंपरा में यह मौजूद है।
पहले स्थिरता और फिर परमानन्द
इसी तरह, अगर आप लोगों को यह दिखा देंगे कि परमानंद का स्वाद किस स्थान पर है, तो लोग सीधे वहीं पर चलना पसंद करेंगे और बाकी हर चीज से चूक जाएंगे। जैसा कि मैंने कहा अगर आप स्थिर हों और फिर परमानंद की झलक मिले तो यह शानदार होगा। लेकिन अगर आप सिर्फ उसे पाना चाहेंगे, तो यह भी शानदार होगा मगर कुछ ज्यादा ही शानदार होगा और आप हकीकत से कल्पनाओं की दुनिया में जा सकते हैं। थोड़ी बहुत हवाई चीजें आपके लिए अच्छी हैं, मगर उसकी जड़ें इस दुनिया में होनी जरूरी है क्योंकि यहां भी बहुत सारी चीजें किए जाने की जरूरत है।
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