प्रश्न: सद्‌गुरु, आपने एक चर्चा में सोम रेखा का जिक्र किया था। क्या आप इस रेखा की प्रकृति, उसकी अहमियत और अनुभव से जुड़े आयाम के बारे में समझा सकते हैं? सद्‌गुरु: सोम का अर्थ है चंद्रमा या कोई नशीला रूप। सोम रेखा का अर्थ है, तृतीया के दिन यानी तीसरे दिन के चंद्रमा के मार्ग को रेखांकित(ज़मीन पर बनाना) करना। भारत में यह कथा है कि समुद्र मंथन से अमृत और विष निकला, शिव ने विष पी लिया और बाकी सभी लोग अमृत को पीकर अमर होना चाहते थे। मुख्य रूप से अमृत का अर्थ अमरता से है। इसका मतलब है आपका जीवन-अनुभव भौतिक सीमाओं से परे चला जाता है। अगर जीवन का आपका अनुभव भौतिक से परे चला जाए, तो आप एक तरह से अमर हो जाते हैं। अमरता का अर्थ यह नहीं है कि हमें आपको हमेशा के लिए झेलना पड़ेगा। इसका मतलब है कि हमें आपको बिल्कुल भी नहीं झेलना पड़ेगा क्योंकि आपकी भौतिक प्रकृति करीब-करीब समाप्त हो गई है।

सहस्रार चक्र के परमानन्द का प्रतीक है आधा चाँद

अगर इसे चक्रों के हिसाब से समझना चाहें, तो यह सहस्रार चक्र है। तीसरे दिन का चंद्रमा परमानंद का प्रतीक है, और ये परमानंद सहस्रार चक्र से टपका हुआ है। शिव के सहस्रार चक्र से अमृत की तीन बूंदें टपकीं जिसे हर कोई पाना चाहता है। उन्होंने इसे एक आभूषण की तरह अपने सिर पर धारण किया हुआ है। ये महत्वपूर्ण है - इसका मतलब है कि हमेशा परमानंद का एक हल्का सा रंग चढ़ा है, मगर वह उसमें डूबे हुए नहीं हैं। वे कभी-कभी इसमें खो जाते हैं, पर हमेशा हल्का सा परमानंद रहता है।

लेकिन अगर परमानन्द का थोड़ा सा स्वाद हो तो आप कितनी भी चीजें कर सकते हैं और फिर भी आपको महसूस होगा कि आपने कुछ नहीं किया है। 
अगर परमानंद का यह स्वाद न हो, तो आप बैठ नहीं सकते। कोई इंसान बिना बाहरी सुख-संतुष्टि की ज़रूरत के और बिना किसी बाहरी गतिविधि के स्थिर होकर एक जगह बैठता है, तो इसका मतलब है उसे परमानंद का हल्का सा स्वाद मिला है। इसका अर्थ है कि आप हल्के सुरूर में हैं। अगर आप उसमें पूरी तरह डूबे हुए और नशे में हैं, तो आप किसी काम के नहीं रह जाएंगे। ‘किसी काम का नहीं रह जाना’ से मेरा मतलब है दुनिया के मामले में है, जीवन के मामले में नहीं। जीवन के मामले में तो वो भी ठीक है। मगर आप दुनिया के काम नहीं कर पाएंगे। लेकिन अगर परमानन्द का थोड़ा सा स्वाद हो तो आप कितनी भी चीजें कर सकते हैं और फिर भी आपको महसूस होगा कि आपने कुछ नहीं किया है। यह इसी तरह है, जैसे हल्के नशे में लोग नाचते ही रहते हैं, जब तक उनके पैर जवाब नहीं दे जाते क्योंकि वहां आनंद का एक सुरूर रहता है। बाकी समय वे ऐसा करने में समर्थ नहीं होंगे। इसलिए परमानंद के सुरूर के साथ आप नाच सकते हैं, कोई काम कर सकते हैं या जो चाहे कर सकते हैं और आपको कोई बोझ भी नहीं महसूस होगा। आदियोगी इस बात के प्रतीक हैं कि उनमें हमेशा परमानंद का एक हल्का सा सुरूर रहता है।

मंदिरों में लोग अपनी मांगें रखना भूल जाते हैं

जब हम एक खास रूप तैयार करते हैं – सभी लिंग नहीं बल्कि अधिकांश – अगर उन्हें उचित ढंग से बनाया जाए, तो उनमें परमानंद की एक झलक होती है। अगर आप खुद में और उन सभी आकारों में, जिनकी प्राण-प्रतिष्ठा की गई है, उनमें परमानंद की यह झलक नहीं ला पाते, तो उससे कोई प्रेरणा नहीं मिलेगी। प्रेरणा न मिलने से मेरा मतलब है कि लोग उस आकार के प्रभाव में नहीं आ पाएंगे। वे अपनी इच्छाओं के बारे में सोचते रहेंगे। भारत के बहुत से मंदिरों में ऐसा होता है, जहां सही तरीके से प्राण प्रतिष्ठा की गई है, कि लोग वहां प्रार्थना करने और तरह-तरह की मांगें रखने जाते हैं मगर वहां जाते ही वे सब कुछ भूल जाते हैं और बस खड़े रह जाते हैं। ऐसा परमानंद की झलक के कारण होता है। एक प्राण-प्रतिष्ठित आकार की छाया होती है, ‘छाया’ शब्द को रोशनी और परछाईं के अर्थ में मत लीजिए, उस आकार की ऊर्जा-छाया कुदरती तौर पर फर्श पर होगी। अगर हम उसे फर्श पर बना दें(मार्क कर दें), तो लोग उसपर चल सकते हैं। मेरे ख्याल से सिर्फ दक्षिणी भारत में लोग अब भी तीसरे दिन के चंद्रमा के बारे में जागरूक हैं, जिसे ‘प्रदोषम’ कहते हैं।

शायद अगस्त्य मुनि ने दक्षिण भारतीय लोगों को ये बताया था

सिर्फ दक्षिण में लोग इस बारे में जागरूक हैं - इसका श्रेय अगस्त्य मुनि को जाता है। वह लोगों के साथ खूब बातचीत करते थे और उन्हें कई तरह की चीजें बताते थे! वह लोगों से प्यार करते थे, इसलिए उन्हें बताते थे कि कई स्थान ऐसे हैं जहां छूने से परमानंद होता है। लोगों ने इसे एक परंपरा बना लिया और वे उस रेखा पर चलना चाहने लगे। दक्षिण भारतीय मंदिरों – आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के मंदिरों में यह काफी प्रचलित है। सिर्फ इन्हीं जगहों पर लोग इस बारे में जागरूक हैं। हो सकता है कि सभी लोग इस बारे में जागरूक न हों, मगर परंपरा में यह मौजूद है।

अगर आप स्थिर हों और फिर परमानंद की झलक मिले तो यह शानदार होगा। लेकिन अगर आप सिर्फ उसे पाना चाहेंगे, तो यह भी शानदार होगा मगर कुछ ज्यादा ही शानदार होगा और आप हकीकत से कल्पनाओं की दुनिया में जा सकते हैं।
मुझे नहीं लगता कि लोगों ने इसे खुद से खोजा होगा। किसी ने जरूर इस बारे में बताया होगा। हम इसके लिए अगस्त्य मुनि को जिम्मेदार मान सकते हैं या हो सकता है किसी और योगी ने इस बारे में बताया हो। क्योंकि आम तौर पर प्रतिष्ठित रूप को बनाने वाला ज्यादातर उसके बारे में नहीं बोलता क्योंकि वह नहीं चाहता कि आकार के बाकी दूसरे पहलू बेकार हो जाएं। यह इसी तरह है जैसे हम किसी बच्चे को भोजन और मिठाई एक साथ परोस दें। हो सकता है तब वह सिर्फ मिठाई खा ले। यही वजह है कि हम भारत में भोजन के अंत में मिठाई परोसते हैं। शुरू में आपको बस चखने के लिए आधा चम्मच पायसम(दक्षिण भारतीय खीर) दिया जाएगा ताकि आप इस उम्मीद में अच्छी तरह खाना खाएं कि अंत में आपको फिर से पायसम मिलेगा! आपको बाकी सारी चीजें खानी होंगी जो पोषण के लिए जरूरी हैं। अंत में आपको फिर से पायसम मिलेगा, मगर तब तक आपका पेट इतना भर जाएगा कि आप मीठा अधिक नहीं खाएंगे!

पहले स्थिरता और फिर परमानन्द

इसी तरह, अगर आप लोगों को यह दिखा देंगे कि परमानंद का स्वाद किस स्थान पर है, तो लोग सीधे वहीं पर चलना पसंद करेंगे और बाकी हर चीज से चूक जाएंगे। जैसा कि मैंने कहा अगर आप स्थिर हों और फिर परमानंद की झलक मिले तो यह शानदार होगा। लेकिन अगर आप सिर्फ उसे पाना चाहेंगे, तो यह भी शानदार होगा मगर कुछ ज्यादा ही शानदार होगा और आप हकीकत से कल्पनाओं की दुनिया में जा सकते हैं। थोड़ी बहुत हवाई चीजें आपके लिए अच्छी हैं, मगर उसकी जड़ें इस दुनिया में होनी जरूरी है क्योंकि यहां भी बहुत सारी चीजें किए जाने की जरूरत है।

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