सद्‌गुरुविदेशों में पढने के लिए हर वर्ष करीब अट्ठारह से बीस अरब डॉलर की रकम भारत से विदेशों में चली जाती है। सद्‌गुरु बता रहे हैं कि समय आ गया है कि शिक्षा के क्षेत्र में बड़े घरानों का निवेश हो, ताकि विदेशों जैसी शिक्षा यहां उपलब्ध कराई जा सके।

बड़े बिजनेस घरानों को शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करना चाहिए

शिक्षा-व्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा अभी तक सरकार के हाथों में है। सरकार को नीतियां बनाने का काम करना चाहिए, उन सब नीतियों को खुद अमली जामा पहनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

जब कोई प्रतियोगिता ही नहीं थी, तो छोटे-छोटे कारोबारी एक खास तरीके से लोगों का शोषण किया करते थे – तब बात अलग थी।
यह तरीका कहीं भी सफल नहीं हुआ है। जहां तक बेसिक शिक्षा की बात है तो जब उस क्षेत्र में कोई नहीं जाना चाहता था तो सरकार को वह जिम्मेदारी उठानी पड़ी। अब लोग शिक्षा के क्षेत्र में जाने को इच्छुक हैं। दुर्भाग्य से भारत में गरीबी का महिमामंडन किया जाता है, इसलिए व्यवसाय, एंटरप्राइजेज को हम बुरा मानते हैं। बहुत जरूरी है कि कारोबारी लोग शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करें। व्यवसाय गलत केवल उन्हीं स्थितियों में है, जब आप उसके जरिये किसी का शोषण कर रहे हों। दुनिया में जहां कहीं भी जिन भी देशों ने बड़ी सफलता पाई है, उनके यहां व्यवसाय को शोषण का जरिया नहीं, बल्कि हर तरह के शोषण को हटाने का तरीका समझा जाता है, क्योंकि व्यवसाय प्रतियोगिता पैदा करता है। प्रतियोगिता से तय होता है कि जो भी सबसे अच्छा काम करेगा, लोग वहीं जाएंगे। सवाल यह हो जाता है कि किसकी चीज सबसे अच्छी है। जब कोई प्रतियोगिता ही नहीं थी, तो छोटे-छोटे कारोबारी एक खास तरीके से लोगों का शोषण किया करते थे – तब बात अलग थी।

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लेकिन अब समय बदल चुका है। अब बड़े बिजनेस घरानों को शिक्षा के क्षेत्र में आना चाहिए, क्योंकि अब ज्यादातर शहरी परिवार तीन, चार या पांच बच्चों के बजाय एक या दो बच्चों तक ही सीमित हो गए हैं। इनमें से बहुत सारे लोग बच्चों पर पैसा खर्च करना चाहते हैं। जो लोग महंगी चीजों को वहन नहीं कर सकते, उनके लिए अलग तरह की शिक्षा होनी चाहिए। हम उन्हें भी छोड़ नहीं सकते। लेकिन जो लोग वहन कर सकते हैं, वे किन चीजों में अपना पैसा खर्च कर रहे हैं? ब्रैंडेड कपड़ों, विदेश यात्राओं, लग्जरी कारों में। होना तो यह चाहिए कि वे अपना पैसा बच्चों की शिक्षा पर खर्च करें, क्योंकि बच्चे ही हमारे देश का भविष्य हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में लोगों को चुनने का अवसर मिलना चाहिए

मुझे बताया गया कि अठारह से बीस अरब डॉलर की रकम भारत से बाहर चली जाती है क्योंकि अच्छी शिक्षा की तलाश में बहुत सारे माता-पिता अपने बच्चों को विदेश भेज देते हैं।

इन सभी डरों के बावजूद वे अपने बच्चों को विदेश भेजना चाहते हैं, क्योंकि हम देश में उस स्तर की शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध नहीं करा पाएं हैं।
एक समय था, जब लोग मास्टर्स डिग्री के लिए विदेश जाते थे। उसके कुछ समय बाद लोग अंडरग्रैजुएट कोर्स के लिए ही विदेश जाने लगे। आजकल तो मैं सुनता हूं कि माता-पिता अपने बच्चे को दसवीं के बाद ही ग्यारहवीं या बारहवीं करने के लिए विदेश भेज रहे हैं। वे उन पर मोटी रकम खर्च करते हैं और उसके बावजूद चैन से नहीं रह पाते। बच्चे के विदेश जाने के बाद उन्हें डर सताता रहता है कि कहीं बच्चा नशीले पदार्थों का सेवन तो करने नहीं लग जाएगा? कहीं हमारा बच्चा खो तो नहीं जाएगा? क्या फिर हम अपने बच्चे को दोबारा देख पाएंगे? इन सभी डरों के बावजूद वे अपने बच्चों को विदेश भेजना चाहते हैं, क्योंकि हम देश में उस स्तर की शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध नहीं करा पाएं हैं।

अगर हम अच्छी क्वालिटी की चीजें चाहते हैं तो निवेश तो करना ही होगा। आप सरकार से तो इन्वेस्टमेंट करने की अपेक्षा नहीं कर सकते। लोगों को ही निवेश करना होगा, कारोबारियों को निवेश करना होगा। निवेश तभी संभव है, जब उससे रिटर्न मिले। रिटर्न नहीं होगा तो कोई निवेश क्यों करेगा? तो क्या वे शोषण करेंगे? मैं कहता हूं, करने दीजिए शोषण। कब तक शोषण करेंगे? अगर आप अपने स्कूल के जरिए शोषण कर रहे हैं तो कोई और स्कूल खुल जाएगा, आपका स्कूल बंद हो जाएगा। शोषण को कानून से नहीं रोका जा सकता, आप लाठी के जरिये इसे नहीं रोक सकते। लाठी से तो सबसे ज्यादा शोषण आएगा। शोषण को सिर्फ प्रतियोगिता के जरिये ही खत्म किया जा सकता है। शोषण तभी मिट सकता है जब लोगों को फैसला करने दिया जाए।

माता-पिता और शिक्षकों को मिलकर काम करना होगा

स्कूल और माता-पिता के बीच एक समझौता हो कि स्कूल किस तरह की शिक्षा देगा। हरदम सरकार ही लोगों को यह बताने की कोशिश कर रही है कि उन्हें कैसी शिक्षा मिलनी चाहिए।

बच्चे की शिक्षा में उसके माता-पिता की भागीदारी की संस्कृति विकसित होनी ही चाहिए। बिना भागीदारी के कुछ भी खूबसूरत नहीं होने वाला है। भागीदारी से ही सब कुछ होगा।
यह काम माता-पिता और टीचर्स को मिलकर करना चाहिए। आजकल बहुत सारे माता-पिता सोचते हैं कि एक बार अगर उन्होंने बच्चे को स्कूल में डाल दिया तो उनका काम खत्म हो गया। यह चलन रुकना चाहिए। हर स्कूल को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि माता-पिता साल में कम-से-कम दो से तीन बार स्कूल आएं और देखें कि किस तरह की शिक्षा वहां दी जा रही है, शिक्षा को बच्चों तक कैसे पहुंचाया जा रहा है, और उनके बच्चों का विकास कैसे हो रहा है। हो सके, तो इस मामले में नियम भी बनाए जा सकते हैं।

अगर माता-पिता अपने बच्चे की शिक्षा के लिए इतना नहीं कर सकते तो भला टीचर जिम्मेदारी क्यों ले। माता-पिता की जब अपने खुद के बच्चे की शिक्षा के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है, तो टीचर से उम्मीद कैसे की जा सकती है। यह कानून होना चाहिए कि सभी माता-पिता साल में कम-से-कम तीन बार बच्चे के स्कूल जाएं और वहां कम-से-कम एक पूरा दिन बिताएं। बच्चे की शिक्षा में उसके माता-पिता की भागीदारी की संस्कृति विकसित होनी ही चाहिए। बिना भागीदारी के कुछ भी खूबसूरत नहीं होने वाला है। भागीदारी से ही सब कुछ होगा।