पैसा कमाना नहीं, शिक्षा का मकसद है अकल पैदा करना
खुद को शिक्षित करने का मतलब है अपनी सीमाओं का विस्तार करना। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि आजकल जो शिक्षा दी जा रही है, वह बच्चों की सूचनाओं में तो भरपूर बढ़ोतरी कर रही है, मगर उनकी सोच और ज्ञान को संकुचित बना रही है। आज से करीब दो दशक पहले हर जगह खासकर अपने भारत में लोग बड़े परिवारों में रहा करते थे। यहां तक कि आज भी कुछेक ऐसे परिवार हैं, जो बडे़ परिवारों में रहते हैं। इस तरह से वे आपस में तालमेल बिठाना और मिलजुल कर रहना सिखते थे।
लेकिन अब धीरे-धीरे यह चलन खत्म हो रहा है। जैसे-जैसे शिक्षा का पश्चिमी स्वरूप आता गया, लोग ज्यादा से ज्यादा व्यक्तिपरक होते गए और इन्क्लूजन व समावेशन जैसी चीज गायब होती गई। माता-पिता, चाचा-चाची, दादी-दादा को हमने परिवार से अलग कर दिया और हमारे लिए परिवार का मतलब महज मैं, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे हो गया। पश्चिमी समाज ही नहीं, बल्कि अपने देश के भी बडे़ शहरों मे आजकल ऐसा खूब होने लगा है कि दो लोग साथ रह ही नहीं पाते। उन्हें अलग-अलग घर चाहिए। ऐसे लोग सप्ताह के अंत में छुट्टियों के दिन तो मिल लेते हैं, लेकिन इससे ज्यादा समय के लिए अगर वे साथ रहे तो कई बार नौबत रिश्तों के टूटने तक की आ जाती है, क्योंकि उनके बीच घमासान तक शुरू हो जाता है।
ऐसा बिल्कुल नहीं है कि हमारी शिक्षा प्रणाली के विषय-वस्तु में कोई कमी है, बल्कि बात यह है कि उसे देने का हमारा तरीका गलत ही नहीं, बेहद फालतू है। वैसे भी सूचनाएं लोगों को खराब नहीं करती, बल्कि उन्हें खराब वह तरीका करता है, जिसके माध्यम से उन सूचनाओं को दिया जा रहा है। हर कोई शिक्षा इसलिए हासिल कर लेना चाहता है, जिससे वह इस दुनिया में पैसा कमा सके। शिक्षा का असली मकसद यह होना चाहिए कि उससे आपकी समझ विकसित हो। पैसे की होड़ में इंसान इतना ज्यादा पागल हो चुका है कि उसकी नजर में शिक्षा महज पैसा कमाने का एक जरिया भर बनकर रह गई है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। इस चीज को बदलना होगा। अगर इंसान अपने विवेक को स्वच्छ रखे उसे उलझाए न तो आप उसे कहीं भी रख दें, उसे जीने में कोई समस्या नहीं होगी। यहां तक कि आप उसे नरक में भी रख देंगे, तो धीरे धीरे वह उसे ही स्वर्ग बना देगा।
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