आध्यात्मिकता की राह  पर हम चाहते तो हैं तेजी से बढ़ना, लेकिन ऐसा हम कर नहीं पाते। तो क्या है इस राह की सबसे बड़ी बाधा? और क्या है उसे दूर करने का उपाय?

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प्रश्नः सद्‌गुरु, हम कैसे अपने भीतर आध्यात्मिकता के प्रवाह को निष्कंटक कर सकते हैं? अनजाने में हम ऐसा क्या कर रहे हैं जो हमारी आध्यात्मिक प्रक्रिया की गति को कम कर रहा है?

सद्‌गुरुसदगुरु: आपके भीतर वह क्या है जो बाधक हो सकता है? सबसे बड़ी समस्या यह है कि आप अपने विचारों व भावनाओं को बहुत महत्व देते हैं। इनके अलावा उन सभी चीजों से भी आपकी घोर आसक्ति है जिनसे ‘मैं’ का बोध होता है या जिनसे आपका ‘मैं’ बनता है। आप उन्हें बहुत ज्यादा महत्व देते हैं, क्योंकि यही चीजें हैं जो आपके व्यक्तिव को बनाती हैं।  सबसे बुनियादी चीज है - आपकी पसंद और नापसंद। बाकी सब कुछ इसी पर निर्भर करता है। आप किसके साथ रह सकते हैं, किसके साथ नहीं रह सकते हैं, आप किस तरह का खाना खा सकते हैं, किस तरह का नहीं खा सकते, आप कहां जाते हैं और कहां नहीं जाना चाहते हैं, आप किसी तरह के विचारों को अपनाते हैं और किस तरह के विचारों को ठुकरा देते हैं, ये सब और दूसरी कई चीजें भी मुख्य रूप से आपकी पसंद और नापसंद से निर्धारित होती हैं।

जब आपका जीवन इस प्रकार का हो जिसमें आप एक चीज से प्यार करते हो और दूसरी चीज से नफरत, तो इसका मतलब है कि आप द्वैत की रचना कर रहे हैं। एक बार जब आप जीवन में द्वैतता को जगह दे देते हैं तो वहां आध्यात्म के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता क्योंकि योग का मतलब एक होना होता है।
अगर आप यह पसंद और नापसंद वाली बात अपने जीवन से हटा दें, तो आपकी आध्यात्मिक प्रक्रिया धीमी गति से नहीं होगी, यह आपके अंदर विस्फोट कर देगी।
ऐसा करने के दो तरीके हैं। पहला तरीका है कि संसार मेें मौजूद सभी चीजों को ऐसे देखा जाए कि वो बहुत पवित्र हैं। आपका काम, आपकी पत्नी, आपके बच्चे, आपका कुत्ता, आपकी माता, आपके भगवान, सभी चीजों को पवित्र समझें। यहां तक कि आपका शौचालय जाना भी आपको एक पवित्र काम लगे। दूसरा तरीका है कि आप सभी चीजों को पूरी तरह से बेकार और निरर्थक समझें। सभी चीजों को घोर नफरत और तिरस्कार की नजरों से देखें। आपके भगवान, आपका शरीर, आपकी आध्यात्मिकता, आपका ध्यान आदि किसी भी चीज के लिए आपके मन में कोई सम्मान न हो। दोनो तरीके बहुत अच्छे ढंग से काम करेंगे।

पसंद-नापसंद से परे

लेकिन अभी आपकी समस्या है कि आप एक चीज को पवित्र मानते हैं और दूसरी चीज को बेकार। इस ढंग की वजह से आप बहुत कुछ गंवा रहे हैं। जीवन इस तरह से काम नहीं करेगा। जीवन में किसी तरह की उन्नति नहीं होगी। आपके कर्म का आधार आपकी पसंद और नापसंद ही है। केवल पसंद और नापसंद का ही वो बंधन है जिससे आप बंधे हुए हैं। जब आपका जीवन इस प्रकार का हो जिसमें आप एक चीज से प्यार करते हो और दूसरी चीज से नफरत, तो इसका मतलब है कि आप द्वैत की रचना कर रहे हैं। एक बार जब आप जीवन में द्वैतता को जगह दे देते हैं तो वहां आध्यात्म के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता क्योंकि योग का मतलब एक होना होता है। अगर आप जीवन के किसी एक भाग को पसंद नहीं करते हैं तो आप कैसे सब कुछ समाहित कर पाएंगे? तो यह पसंद-नापसंद खुद को हराने वाली प्रक्रिया है। आपको इस पर काम करना होगा। पसंद - नापसंद जैसी कोई चीज नहीं होनी चाहिए। या तो सब कुछ पवित्र है या हर चीज बकवास है, बेकार है। यही दो रास्ते हैं, आप किस रास्ते पर चलना चाहेंगे?

पसंद-नापसंद खुद को हराने वाली प्रक्रिया है। आपको इस पर काम करना होगा। पसंद - नापसंद जैसी कोई चीज नहीं होनी चाहिए। या तो सब कुछ पवित्र है या हर चीज बकवास है, बेकार है। यही दो रास्ते हैं, आप किस रास्ते पर चलना चाहेंगे?

हर चीज पवित्र है, अगर इस नजरिये से आप हर चीज को देखते हैं तो ऐसा करना बहुत आसान है। हर चीज को घृणा की नजर से देखने के लिए एक अलग तरह की शक्ति की जरूरत पड़ती है। भारत में योगियों का एक खास और बहुत बड़ा समूह है जिन्हें नागा बाबा कहा जाता है। नागा बाबा दो प्रकार के होते हैं। पहले तरह के नागा बाबा हर चीज को पवित्र समझते हैं और उसे इसी नजरिये से देखते हैं। वो किसी चट्टान को देख रहे हों, किसी स्त्री को, किसी जानवर को, या किसी भी चीज को देख रहे हों, वे हर चीज को शिव के रूप में देखते हैं। हर चीज उनके लिए शिव है। दूसरे तरह के नागा बाबा बड़े उग्र और क्रोधी होेते हैं। वे ऐसे संन्यासी होते हैं जो शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं पहनते। अगर बहुत ठंड पड़ती है तो अपने आप को कंबल से ढक लेते हैं लेकिन वे कभी भी सिले हुए कपड़े नहीं पहनते। वो हमेशा अपने पास त्रिशूल रखते हैं। नागा योगियों का दूसरा वर्ग हर चीज को घोर घृणा की दृष्टि से देखता है। अगर आप इन योगियों में से किसी के सामने कुछ गलत कर बैठते हैं तो वो आपके लिए गंदी भाषा का प्रयोग करने से नहीं हिचकेंगे। केवल आपके लिए ही नहीं, इस तरह की भाषा का प्रयोग वे शिव के लिए भी करते हैं। वो ऐसे ही हैं। एक वर्ग का नजरिया यह है कि हर चीज पवित्र है तो दूसरा वर्ग मानता है कि हर चीज बेकार है। दोनों नजरिये बहुत जबरदस्त तरीके से काम करते हैं।

राहें अलग पर गंतव्य एक

अगर आप इस राह पर चलते हैं कि सब कुछ पवित्र है तो आप अपने आप को पूरी तरह से हर चीज को समर्पित कर देते हैं। आप हर चीज को देखते समय सोचते हैं कि यह दिव्य वस्तु है, तब इस बात का सवाल ही नहीं रह जाता है कि कौन सी चीज किससे बेहतर है, कौन किससे ज्यादा महत्वपूर्ण है। तब हर चीज अच्छी और हर चीज महत्वपूर्ण हो जाती है। सवाल ये है कि इन दोनों नजरियो में अंतर क्या है? जब आप हर चीज को पवित्र समझते हैं तो आपके पास जीवन में करने के लिए बहुत काम हो जाते हैं। लेकिन हर चीज को बेकार मानना - थोड़ा कठिन जरुर है, मगर छोटा रास्ता है। हां, ऐसे में सामाजिक माहौल में रहना आपके लिए मुश्किल हो जाता है। ऐसा नजरीया रखते हुए आप सामाजिक परिवेश में नहीं रह सकते हैं। फिर आपको अपने आप को सबसे अलग करना पड़ेगा। समाज से दूर जाना पड़ेगा। यह थोड़ा मुश्किल है। जो भी आपको अपने अनुकूल लगता हो, आप वही करें। या तो आप हर चीज को पवित्र मानें या फिर हर चीज को बेकार, जीवन में पसंद और नापसंद की बात न हो। यही चाभी है। अगर आप एक चीज को पवित्र और दूसरी को गंदा मानंेगे तो जहां तक आध्यात्मिक प्रक्रिया का सवाल है, यह बहुत धीमी होगी। आप एक अगरबत्ती की तरह धीरे-धीरे जलेंगे। और जब आप अपनी जिंदगी से पसंद और नापसंद हटा लेंगे तो आपकी आध्यात्मिक प्रक्रिया पटाखे की तरह जलेगी। पटाखा जिसे आग दिखाते ही चुटकियों में जल जाता है।