सद्‌गुरु हमारा ये ब्लॉग उस नदी पुनरुद्धार नीति सिफारिश दस्तावेज का अंश है, जिसे सद्‌गुरु ने माननीय प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी को भेंट किया था। पढ़ें नदियों के पुनरुद्धार की नीति सिफारिश के दस्तावेज की भूमिका...

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नदी एक विशाल जीवन है

पहाड़ों, जंगलों और नदियों के साथ मेरा जुड़ाव बचपन से ही रहा है। मेरा यह जुड़ाव सिर्फ प्रकृति और उसके संसाधनों से नहीं था, जिनका लोग आनंद उठाते हैं, बल्कि मैं उन्हें अपने एक अभिन्न अंग के रूप में देखता था। 

पानी कोई वस्तु नहीं है, पानी जीवन को बनाने वाली सामग्री है। जब वह इस शरीर में है, तो हम इससे कितना जुड़ाव रखते हैं। पर जब वह बाहर बहता है, तो हम उससे अलग तरीके से पेश क्यों आते हैं?
मैं ट्रक के चार ट्यूब और बांस के बल्लों को एक साथ बांधकर अकेले 13 दिन तक कावेरी नदी में तैरा था। मैंने नदी को खुद से कहीं अधिक विशाल जीवन के रूप में देखा है। आपके और मेरे जैसे लोग आते-जाते रहते हैं, मगर नदियां लाखों सालों से बहती रही हैं और जीवन को पोषित करती रही हैं, जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। मेरे लिए नदी कोई संसाधन नहीं है, वह एक विशाल जीवन है। हमारे अस्तित्व की प्रकृति ऐसी है कि हमारे शरीर का लगभग तीन चौथाई हिस्सा पानी है। इसलिए पानी कोई वस्तु नहीं है, पानी जीवन को बनाने वाली सामग्री है। जब वह इस शरीर में है, तो हम इससे कितना जुड़ाव रखते हैं। पर जब वह बाहर बहता है, तो हम उससे अलग तरीके से पेश क्यों आते हैं?

नदियों में पानी स्थायी रूप से घट रहा है

पिछले 25 सालों में जिस तरह धीरे-धीरे देश भर में नदियों में पानी घटा है, उससे मुझे चिंता होती रही है। ऐसा नहीं है कि किसी साल पानी अधिक और किसी साल कम रहता है, बल्कि लगातार स्थायी रूप से वह घट रहा है। पिछले साल यह बहुत तेजी से घटा था। अगर हमारे जीवनकाल में हमारी नदियां इस तरह घटती रहीं, तो हम साफ तौर पर यह जता रहे हैं कि हमें अपने बच्चों के भविष्य में, इस देश की भावी पीढिय़ों की खुशहाली में, कोई दिलचस्पी नहीं है।
मैं वैज्ञानिक नहीं हूं और इसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई उपयुक्त वैज्ञानिक ज्ञान या शब्द नहीं हैं। मगर मेरी राय यह है कि पेड़-पौधों की कमी और भूमिगत जल के बहुत अधिक दोहन ने हमारी नदियों पर कहर ढाया है। खास तौर पर, जब उष्णकटिबंधीय जलवायु या ट्रॉपिकल क्लाइमेट में पेड़-पौधों की अच्छी-खासी संख्या नहीं होती, तो मिट्टी रेत में बदल जाती है। मिट्टी और नदियों का बहुत गहरा संबंध है। अगर हम अपनी मिट्टी को नष्ट करेंगे, तो हमारी नदियां भी नष्ट हो जाएंगी। आज हमारे साथ यही हो रहा है - हमारे जलाशय नष्ट हो गए हैं और हमारी मिट्टी खराब हो गई है।

किसानों की आत्महत्या पर सिर शर्म से झुकता है

इस देश की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि हमारे किसान, बिना अधिक बुनियादी सुविधाओं या बिना किसी वैज्ञानिक ज्ञान के, सिर्फ पारंपरिक देशी ज्ञान के बल पर इस देश के एक सौ तीस करोड़ लोगों के लिए भोजन पैदा करने में सफल रहे हैं।

 जब हम जानते हैं कि हमारे लिए भोजन उगाने वाला इस हद तक भूख से पीडि़त है कि वह अपनी जान ले लेना चाहता है, तो हम अपना सिर ऊंचा करके कैसे चल सकते हैं? यह बेहद शर्म की बात है।
मगर मिट्टी में जैविक तत्व के नष्ट होने और पानी की कमी ने हमारे किसानों को हाशिये पर धकेल दिया है और उनकी आत्महत्याओं की घटनाएं आम हो गई हैं। अगर आपको और मुझे भी ऐसी जमीन पर भोजन उगाने के लिए कहा जाता, जो न तो उपजाऊ है, और जहां न ही पर्याप्त पानी है, तो हमारा हश्र भी यही होता। जो किसान हमें भोजन देता है, हमारे जीवन का पोषण करता है, वह खुद कुपोषण का शिकार है, और उसके बच्चे भूख से मर रहे हैं। जब हम जानते हैं कि हमारे लिए भोजन उगाने वाला इस हद तक भूख से पीडि़त है कि वह अपनी जान ले लेना चाहता है, तो हम अपना सिर ऊंचा करके कैसे चल सकते हैं? यह बेहद शर्म की बात है। मैं अपना सिर शर्म से झुकाता हूं, क्योंकि हम इस समस्या को दूर नहीं कर पाए हैं।

खेती का ज्ञान लुप्त होने की कगार पर है

इस देश की ज्यादातर आबादी खेती में लगी है। 8000 से 12000 सालों की खेती के अनुभव के कारण किसान के पास ज्ञान का काफी भंडार है। उनके अंदर खेती का संस्कार है। सिर्फ मेहनत नहीं, बल्कि ज्ञान की भी हमने कद्र नहीं की है। 15 फीसदी से भी कम किसान अपने बच्चों को खेती में लगाना चाहते हैं। अगर हम उनके लिए सही हालात नहीं पैदा करेंगे, अगर हम अब इस ज्ञान का लाभ नहीं उठाएंगे, तो यह हमेशा के लिए खो सकता है। मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने में अपने किसानों के पारंपरिक देशी ज्ञान का लाभ उठाना, हर संभव तरीके से जमीन पर हरियाली लाकर जल के स्रोत को बढ़ाना और सही व आधुनिक तकनीकों से जल का उचित प्रबंधन ही तरक्की की राह है।

इस समाधान से किसानों को आर्थिक फायदा होगा

हमने जिस समाधान का प्रस्ताव रखा है, वह यह है कि सभी बड़ी नदियों के दोनों ओर कम से कम एक किलोमीटर की चौड़ाई में और छोटी नदियों के दोनों ओर कम से कम पांच सौ मीटर की चौड़ाई में जमीन पर पेड़ लगाए जाएं।

हमारी नदियों ने सहस्राब्दियों से हमारी अनेक पीढ़ियों को गले लगाया और पोषित किया है। अब समय आ गया है कि हमें उन्हें गले लगाएं और पोषित करें।
उस जमीन पर पेड़ की छाया होनी चाहिए ताकि मिट्टी में जैविक तत्व पैदा हो सकें। मिट्टी ही पानी को रोककर रख सकती है और उसे नदी में रिसने में मदद कर सकती है। जहां सरकारी जमीन है, वहां जंगल लगाए जाएं। जहां किसानों की जमीन है, वहां फलों के, औषधियों के दूसरे तरह के पेड़ लगाए जाएं। यह बदलाव एक भारतीय किसान के लिए एक बेहतर आर्थिक अवसर होगा, क्योंकि इससे उसकी आमदनी तीन से पांच गुना बढ़ सकती है।
नदियों के पुनरुद्धार की सिफारिशी नीति के इस दस्तावेज की कोशिश एक ऐसा समाधान निकालने की है, जिसमें पर्यावरण पर सकारात्मक असर डालने के साथ-साथ यह सबके लिए आर्थिक रूप से भी लाभदायक हो। हमने विभिन्न क्षेत्रों की विशेषज्ञता और अनुभव वाले विशेषज्ञों से सलाह करते हुए यह सिफारिशी नीति तैयार की है, जिसमें इससे जुड़े सभी लोगों और चीजों का ध्यान रखा गया है। इसकी पहली और सबसे अहम स्टेक-होल्डर खुद नदी है, फिर नदी से पोषित जीवन, फिर किसान, समाज और केंद्र तथा राज्य सरकारें। इसका मुख्य ध्येय एक ऐसी नीति बनाना है जिसे लागू किया जा सके।
हमारी नदियों ने सहस्राब्दियों से हमारी अनेक पीढ़ियों को गले लगाया और पोषित किया है। अब समय आ गया है कि हमें उन्हें गले लगाएं और पोषित करें। यह हमारी विनम्र आशा है कि हमारे सुझावों के अनुसार आवश्यक विधायी और प्रशासनिक कदम उठाए जाएंगे, और उन्हें एक अनिवार्य कानून का रूप दिया जाएगा। आइए हम एक ऐसा कानून बनाने की दिशा में आगे बढ़ें, जो हमारी नदियों, पानी के स्रोतों और मिट्टी को राष्ट्रीय कोष का दर्जा देगा।