क्यों होती है हमें ईर्ष्या
ईष्या बुरी चीज है ऐसा कहना उचित नहीं होगा, पर ईर्ष्या करने वाले लोग एक खुशहाल जीवन नहीं जी सकते। इस लेख में देखते हैं सद्गुरु का क्या कहना है...
इस लेख में सद्गुरु बता रहे हैं कि ईएर्श्या होने का मूल कारण क्या है। साथ ही वे बता रहे हैं कि अगर हमारे भीतर से हे आनंद फूट रहा हो, तो फिर ईर्ष्या का प्रश्न ही नहीं उठता।
आइए समझें कि ईर्ष्या क्या है। ईर्ष्या एक भाव है जो किसी के पास कुछ ऐसी चीज होने की वजह से आ सकती है, जो आप पाना चाहते थे या अगर किसी के पास कोई चीज आपसे ज्यादा है। अगर आप में किसी तरह की अपूर्णता है, जिसकी वजह से दूसरों के सामने आप अच्छा महसूस नहीं कर पाते हों, तो इससे भी कई बार ईर्ष्या पैदा हो जाती है। ईर्ष्या में मुख्य रूप से एक अपूर्णता का भाव छिपा होता है। यदि आप आनंद के भाव से पूरी तरह भरे हों, तो आपके भीतर किसी के भी प्रति ईर्ष्या का भाव नहीं होगा। जैसे ही आपको ये लगता है कि आपके बगल में बैठे आदमी के पास आपसे कुछ ज्यादा है और आप उससे खुद को कम महसूस करने लगते हैं तो ईर्ष्या का भाव पैदा होता है। अगर यहां आपसे बेहतर कोई दूसरा व्यक्ति मौजूद है तो ईर्ष्या पैदा हो सकती है। यदि आप खुद में मस्त हैं तो ईर्ष्या का कोई प्रश्न ही नहीं है।
ऐसा इसलिए होत है क्योंकि इस धरती पर हमेशा से ही अच्छाई को बढ़ावा दिया गया है। हमने कभी भी बुद्धि और बोध को प्रोत्साहित नहीं किया। एक समाज के रूप में हमने अच्छे इंसानों को तैयार करने में अपना काफी कुछ लगाया है।
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आप इस बात को भली-भाँति समझते हैं कि वे लोग जो अपने को बहुत अच्छा समझते हैं, उनके साथ आप रह नहीं सकते हैं। वे अच्छे होते हैं, पर साथ ही भयानक स्वभाव वाले भी होते हैं। अच्छाई की इस सोच के कारण ही दया, सहानुभूति जैसी मूर्खतापूर्ण चीजें पैदा हो गईं, जिनकी किसी भी मनुष्य को आवश्यकता नहीं है। आप उन्हें यदि कुछ देना चाहते हैं तो बस प्रेम दीजिए, नहीं तो कम से कम उनके साथ इज्जत से पेश आइए।
आप सब मेरे साथ पिछले एक घण्टे से बातें कर रहे हैं और आपको लगे कि मैं दरअसल आपके प्रति दया एवं सहानुभूति से भरा हूँ, तो क्या आपको यह अच्छा लगेगा? क्या कोई भी व्यक्ति अपनी गरीबी एवं अभाव को पसंद करता है? वह बिल्कुल ही यह पसंद नहीं करता। यह अलग बात है कि अगर कोई आदमी भूखा हो तो वह अपनी भूख को शांत करने के लिए आपसे कुछ मांग कर खा ले। लेकिन जैसे ही उसका पेट भर जाता है, उसे और कुछ नहीं चाहिए। सिर्फ इस कारण कि हम अपने अंदर सहानुभूति और दया जैसे विचारों का पोषण करते हैं, दूसरी तरफ द्वेष एवं ईर्ष्या की भावना का जन्म होता है। अगर हममें सहानुभूति, दया जैसी तुच्छ भावनाओं का जन्म न हो, तो उधर ईर्ष्या जैसी भावनाएं भी नहीं पैदा होंगी। ईर्ष्या या द्वेष जैसी भावनाओं को मैं ऐसा नहीं कहता कि वे गलत हैं, परन्तु यह आपको नाखुश रखता है। कोई व्यक्ति जो अपने अंदर इस तरह की नाखुशी को पालता-पोषता है, वह एक चेतनाशून्य व्यक्ति है।
इस धरती पर अगर हमें कुछ चाहिए तो सिर्फ विवेक और समझ। हमें अच्छे लोगों की नहीं, बल्कि समझदार लोगों की जरुरत है। परन्तु हमारे समाज में, बच्चे को जन्म से ही सिखाया जाता है कि उसे एक अच्छा इंसान हीं बनना है। लोग इस बात पर जोर नहीं देते हैं कि कैसे एक विवेकी और समझदार इंसान बनाया जाए। लोग हरदम अच्छाई की ही चर्चा करते हैं। इसका तो मतलब यह है कि जो भी हमारा रचयिता है; उसने कुछ गलती कर दी है जिसे हमें ठीक करना है। लेकिन बनानेवाले ने यदि गलति कर ही दी है तो निश्चित रूप से आप तो उसे ठीक नहीं कर सकते। कम से कम इतना समझने का विवेक तो होना ही चाहिए। यदि रचयिता ने हमारे जीवन के साथ खिलवाड़ किया है तो हम इसे कैसे अच्छा कर सकते हैं? क्योंकि हम भी तो इस खिलवाड़ के ही हिस्से हैं।
हमें जीवन-यापन के लिए सिर्फ एक ही बात सीखनी है। प्रकृति के उन नियमों के साथ कैसे हम तालमेल बिठाएं, जो कि हमारे जीवन के बुनियादी पहलुओं को राह दिखाता है, और कैसे उन नियमों का उपयोग कर अपने जीवन को बेहतर बना सकते हैं?
अगर कोई चीज ठीक से नहीं हो रही है, तो हमें कम से कम इस बात का बोध तो होना चाहिए कि हम ठीक तरीके से काम नहीं कर रहे हैं। अगर लोग सिर्फ इतना ही समझ जाएं तो सब कुछ सम्भव है। अगर मुझे सिर्फ इतना ही समझ में आ जाए कि मेरे जीवन में कुछ ठीक नहीं हो रहा है, तो इसका मतलब है कि मैं कुछ सही नहीं कर रहा हूँ। मैं कुछ तो ठीक से नहीं कर पा रहा हूँ। मैं कई बातों पर विश्वास कर सकता हूँ, परन्तु मेरे जीवन जीने के तरीके में कुछ तो गलत है। यदि आप सिर्फ इतनी सी बात को सही तरीके से समझ लेते हैं, तो हर आदमी के लिए आनंदपूर्ण एवं सुखमय जीवन का मार्ग खुला है।