कृष्ण लीला : रुक्मणि की प्रेम कथा : भाग 2
पिछले भाग में आपने पढ़ा, कि रुक्मणि कृष्ण के प्रेम में पड़ कर कैसे उनके आस-पास समय बिताने की कोशिशें करने लगीं। लेकिन दूसरी तरफ रुक्मणि का भाई रुक्मी उसकी शादी शिशुपाल से कराना चाहता था। रुक्मी इसे एक राजनैतिक गठबंधन की तरह देख रहा था और इसके लिए उसने एक स्वयम्वर आयजित किया...
उन्होंने सारे नगर को उत्सव के लिए तैयार करा दिया। शाही तौर-तरीकों को नकारते हुए रुक्मणि महल से निकलकर नगर की सडक़ों पर निकल आईं और सारी सजावट को बिगाडऩे लगीं। यह सब कुछ इतना हैरान कर देना वाला था कि कोई ऐसा सोच भी नहीं सकता था। लेकिन इस सब के बावजूद उस नकली स्वयंवर का होना तय था और रुक्मणि इसमें फंस भी गई थीं। अंत में रुक्मणि ने तय कर लिया कि अगर वह इसे टाल नहीं पाईं तो वह अपनी जिंदगी खत्म कर लेंगी।
कृष्ण ने ऐसा दिखावा किया जैसे कि वे इन सब घटनाओं से अनजान हों। एक बिल्कुल ही अलग वजह बताते हुए उन्होंने मथुरा में रथों की एक दौड़ का आयोजन किया, जो कि वहां बहुत समय से नहीं हुई थी।
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कृष्ण ने कहा - “अगर हम इतना बड़ा आयोजन करते हैं तो हजारों रथ और इतने कुशल सारथियों को देखकर दूसरे राजाओं की नजरों में यादवों की प्रतिष्ठा और भी बढ़ जाएगी। यह अपने आप में बड़ी बात है इसीलिए इस उत्सव को होने दें।”
इसके बाद दौड़ में हिस्सा लेने के लिए लोगों ने गुरु संदीपनी और स्वेतकेतु के मार्गदर्शन में प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया और कुछ ही महीनों में बहुत सारे लोगों ने कुशलता के साथ रथों और घोड़ों पर काबू पाना सीख लिया। जिस दिन विदर्भ में रुक्मणि का स्वयंवर होना था, रथों की इस दौड़ का आयोजन भी मथुरा में उसी दिन रखा गया था।
इस बात से रुक्मणि बहुत निराश हो गईं और सोचने लगीं – "कृष्ण ऐसा कैसे कर सकते हैं? मैंने लाखों बार उनके सामने अपने प्रेम को व्यक्त किया है लेकिन उन्होंने कभी कोई उत्तर नहीं दिया। अब जबकि मेरी जिंदगी दांव पर लगी है, उन्हें रथों की दौड़ सूझ रही है! "
इस बीच कृष्ण ने यादवों के राजा उग्रसेन को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि वह अपने पुत्र को शासक नियुक्त कर दें और बिना निमंत्रण के ही स्वयंवर में चले जाएं, लेकिन यह योजना काम नहीं कर सकी। रथ-दौड़ की सारी तैयारी हो चुकी थी, लेकिन दौड़ से तीन दिन पहले उसमें भाग लेने वाले आधे प्रतिभागी रात में अचानक ही गायब हो गए। कृष्ण ने सब जगह यह खबर फैला दी कि उनका मित्र और उपसेनापति सात्यकि उनके खिलाफ होकर आधी सेना के साथ फरार हो गया है। लोगों में इस बात की चर्चा शुरू हो गई कि कृष्ण का करीबी साथी ही उन्हें छोडक़र चला गया, अब क्या होगा? लेकिन पता चला कि रथ-दौड़ और स्वयंवर, जो एक ही दिन होने थे, उससे पहले वाली रात बाकी बची सेना भी कृष्ण के साथ मथुरा छोडक़र चली गई।
स्वयंवर वाली सुबह सारी यादव फौज रुक्मणि के पिता राजा भीष्मक के महल के पास विदर्भ में इकट्ठी हो गई। किसी की नजर में आए बिना सेना छोटी-छोटी टुकडिय़ों में बंट गई थी और फिर सभी सैनिक अलग-अलग दिशाओं से आकर एक जगह इकट्ठे हो गए थे। अचानक इतनी बड़ी सेना को देखकर जिसका नेतृत्व कृष्ण कर रहे थे, वहां मौजूद सभी लोग डर गए। लोगों को लगा कि कृष्ण रुक्मणि का अपहरण करके ले जाएंगे और उन्हें अपनी पत्नी बना लेंगे, लेकिन कृष्ण ने ऐसा नहीं किया और अपनी सेना को बाहर छोडक़र वह निहत्थे ही नगर की ओर बढऩे लगे।
भले ही उस समय उनके हाथ में प्रत्यक्ष रूप से कोई हथियार नहीं था, लेकिन वह अपनी नीलिमा से सुसज्जित थे जिसे कोई नहीं देख पा रहा था। लोग उनके व्यवहार और उनकी नीलिमा से ही निहत्थे हो गए थे।
कृष्ण ने कहा – “मैं यहां दुल्हन का अपहरण करने नहीं आया हूं, बल्कि यह बताने आया हूं कि जो कुछ यहां हो रहा है, वह अन्याय है। एक लडक़ी की शादी उसकी मर्जी के खिलाफ की जा रही है। स्वयंवर एक पवित्र परंपरा है जो हजारों सालों से चली आ रही है, लेकिन अब आप इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करके इसे अपवित्र कर रहे हैं। आपने इसे इस तरह आयोजित किया है कि लडक़ी के लिए कोई विकल्प ही नहीं बचता। मैं यहां दुल्हन को लेने नहीं, बल्कि इस स्वयंवर को रोकने आया हूं। आप यह स्वयंवर नहीं कर सकते।”
इसी बीच उनकी सेना भी पूरी मुस्तैदी के साथ वहां तैनात हो गई। कोई भी उस समय लड़ाई के लिए तैयार नहीं था, इसलिए वहां मौजूद लोगों ने स्वयंवर रोक दिया। उधर जरासंध भीतर ही भीतर गुस्से से उबल रहा था। उसे पहले ही कृष्ण का हिसाब चुकता करना था। ऐसे में कृष्ण की वजह से स्वयंवर के निरस्त होने और वापस अपने राज्य लौटने की वजह से हुई बेइज्जती को जरासंध बर्दाश्त नहीं कर पाया। उसने कसम खाई – “इस लडक़े की वजह से आज मेरी इतनी बेइज्जती हुई है। मैं इस अपमान का बदला इसका खून पीकर लूँगा।”