यूं तनाव और माथे पर शिकन लेकर जीना भी कोई जीना है। कृष्ण ने इस बात को जी कर दिखाया। कृष्ण को समझने और जानने का रास्ता भी यही है। तो आइए डूब जाइए आप भी कृष्ण की मस्ती में- 

बात उस समय की है, जब कृष्ण की आयु महज 15 साल थी। वह एक चारागाही या पशुपालक समाज में रहते थे, जो वैदिक संस्कृति को मानता था।
कृष्ण ने अपने पूरे जीवन में हमेशा धर्म की स्थापना यानी जीवन जीने के सदाचारी तरीके की बात कही, फिर भी तमाम परंपराओं, धार्मिक रीति रिवाजों और हजारों साल पुरानी परंपराओं को उन्होंने पूरी सहजता के साथ लिया। इस तरह कृष्ण को सिक्के के दोनों पहलुओं की तरह देखा जा सकता है। जाहिर है, अगर आप  इसके एक पहलू को देखते हैं और दूसरे को नहीं देखते तो आप कृष्ण को नहीं समझ सकते। कभी वे इस तरफ  दिखाई देंगे तो कभी उस तरफ । पिछले कुछ समय से मैं कृष्ण के जीवन को तमाम तरीकों से जानने और समझने की कोशिश कर रहा हूं। जितना ज्यादा मैंने उनकी जिंदगी पर चिंतन किया और समझा, मुझे उतना ही ज्यादा इस बात का अहसास हुआ कि बचपन से लेकर अब तक मेरी जिंदगी में उनकी जिंदगी जैसी तमाम बातें हैं। यह बड़ी चौंकाने वाली बात है।

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बात उस समय की है, जब कृष्ण की आयु महज 15 साल थी। वह एक चारागाही या पशुपालक समाज में रहते थे, जो वैदिक संस्कृति को मानता था। वैदिक संस्कृति में विधि-विधान बहुत ज्यादा हैं और कई विधि-विधानों का तो विस्तार से पालन किया जाता था। उस वक्त एक सालाना आयोजन होता था, जिसे इंद्रोत्सव कहा जाता था। जैसा कि नाम से ही जाहिर है इसका मतलब इंद्र के सम्मान में और उन्हें खुश करने के लिए किए जाने वाले उत्सव से है। इंद्र को देवताओं का राजा माना जाता है। उन्हें बिजली, गर्जना और वर्षा का देवता भी माना जाता है। इस त्योहार के दौरान एक बड़ा चढ़ावा चढ़ाया जाता था। जो लोग भारतीय संस्कृति और यहां के तौर तरीकों से पूरी तरह परिचित नहीं हैं, उन्हें बता दें कि ये चढ़ावा अग्नि को समर्पित किया जाता है। अग्नि में हर तरह की चीजें चढ़ाई जाती हैं। खूब सारे घी और दूध के अलावा तमाम अनाज और हर वह चीज, जो हमारी नजर में महत्वपूर्ण है, हम अग्नि को समर्पित करते हैं। यह एक खास परिस्थिति को पैदा करने की एक प्रक्रिया है। तो उस वक्त यह सब बड़े पैमाने पर किया जाता था।

यह सुनकर गर्गाचार्य दंग रह गए, क्योंकि कृष्ण की जगह अगर कोई और होता, तो उसने इस मौके को हाथोंहाथ लिया होता।
कृष्ण का लालन पालन करने वाले उनके पिता नंद ग्वालों के मुखिया थे। यह एक ऐसी बिरादरी थी, जो मवेशियों का पालन करती थी। कृष्ण को गोपाल के नाम से जाना जाता था और उनका पूरा का पूरा समाज गोप या गोपियों और गोपाल के नाम से पहचाना जाता था। गोपाल का अर्थ हुआ गाय को पालने वाला। तो इस तरह कृष्ण जीवन भर एक ग्वाले बने रहे। कुछ लोगों ने इस बात को खुशी के साथ स्वीकार किया और कुछ लोगों ने इस शब्द को ही अपमान जनक मान लिया। जब कृष्ण राजाओं और संतों के बीच बैठते थे, तो ऐसे लोग उनका यह कहकर अपमान करते कि यह तो ग्वाला है। लेकिन दूसरी तरफ  जो लोग उनसे प्रेम करते थे, उन्होंने उनके ग्वाले होने को ही खुशी के साथ स्वीकार किया।

खैर, हम बात कर रहे थे इंद्रोत्सव की। पशु पालक संस्कृति में यह पर्व बहुत बड़े स्तर पर मनाया जाता था। 15 साल की उम्र में ही कृष्ण को इस आयोजन की जिम्मेदारी संभालने का मौका मिला। इस चढ़ावे के लिए मुखिया बनने की जिम्मेदारी मिलना उस समाज में एक बड़े सम्मान की बात थी। ऐसे शक्स को यजमान कहा जाता था, जिसका मतलब है उस चढ़ावे के आयोजन का सबसे प्रमुख व्यक्ति। गर्गाचार्य कृष्ण के गुरु थे। जब गर्गाचार्य ने कृष्ण को यह जिम्मेदारी सौंपी तो उन्होंने कहा, 'मैं यजमान नहीं बनना चाहता। मैं इस चढ़ावे के आयोजन में भाग नहीं लेना चाहता।' यह सुनकर गर्गाचार्य दंग रह गए, क्योंकि कृष्ण की जगह अगर कोई और होता, तो उसने इस मौके को हाथोंहाथ लिया होता। आखिरकार यह एक ऐसी जिम्मेदारी थी, जो किसी की भी सामाजिक हैसियत को एकाएक बढ़ा सकती थी। जो कोई भी उस आयोजन का नेतृत्व करता था, अपने आप ही वह उस समाज का मुखिया हो जाता था। खैर, गर्गाचार्य ने जब कृष्ण से इसका कारण पूछा तो कृष्ण ने कहा, 'मुझे नहीं लगता कि मैं इस काम के लिए सही व्यक्ति हूं। किसी और को यह जिम्मेदारी दी जाए तो अच्छा रहेगा।' इस पर गर्गाचार्य बोले, 'नहीं, पिछले साल तुम्हारे बड़े भाई ने इसे किया था और अब तुम्हारे बारी है। अगर इस जिम्मेदारी को संभालने के लिए कोई सही व्यक्ति है, तो वह तुम हो। मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम इस जिम्मेदारी को लेने से मना क्यों कर रहे हो? आखिर तुम्हारे मन में क्या चल रहा है?' अंत में कृष्ण ने कहा, 'मैं इस पूरे आयोजन को ही पसंद नहीं करता।

आगे जारी ...