खुद को बना लें कोरा कागज
आप जीवन में शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक संबंध बनाते हैं। क्या आध्यात्मिक प्रक्रिया इन संबंधों को सुधारने का एक तरीका है ? या आध्यात्मिक प्रक्रिया आपके और अस्तित्व के संबंध को पूरी तरह रूपांतरित करने के लिए है?

हर मनुष्य अपने जीवन में कई तरह के संबंध बनाता है। आप जीवन में शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक संबंध बनाते हैं। क्या आध्यात्मिक प्रक्रिया इन संबंधों को सुधारने का एक तरीका है? या आध्यात्मिक प्रक्रिया आपके और अस्तित्व के संबंध को पूरी तरह रूपांतरित करने के लिए है?
रिश्ते शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक हो सकते हैं और ये महज प्राण से संबंधित भी हो सकते हैं। अगर आप शरीर, मस्तिष्क और भावों पर आधारित रिश्ते बनाते हैं, तो आप अलग-अलग तरह की चीजों को तो जान जाएंगे, लेकिन जीवन की सुगंध और स्वाद को आप कभी नहीं जान पाएंगे। इसलिए पूरी आध्यात्मिक प्रक्रिया अस्तित्व के साथ आपके संबंध में बदलाव लाने के बारे में है। यह आपको शरीर, मस्तिष्क और भावों से परे आपके अस्तित्व के एक सूक्ष्म पहलू की ओर ले जाती है। बस इसी से सारा ज्ञान आता है।
मैं एक कविता लिख रहा था, जो इस तरह है:
एक दुष्ट ज्ञानी हो सकता है,
Subscribe
मूर्ख भी सीख जाएंगे
किंतु संत होता है एक कोरा कागज...
चूंकि संत कोरे कागज की तरह होते हैं, इसलिए वह कुछ भी ग्रहण कर सकते हैं। मान लीजिए किसी पन्ने पर कुछ लिखा हुआ है। अब अगर आप इस पर कुछ और लिखने की कोशिश करेंगे तो जबर्दस्त उलझन हो जाएगी। इसलिए आपके साथ कर्म जुड़े होने का मतलब है, कि आप खाली पन्ना नहीं हैं। एक ऐसे पन्ने पर जिस पर पहले से कुछ लिखा हुआ है, आप कितना भी अनमोल लिख लो, सब कुछ धुंधला ही हो जाएगा।

तो हम जो भी साधना करते हैं, वह कुछ नया जानने के लिए नहीं है, वह ज्ञानी बनने के लिए भी नहीं है। वह तो आपको कोरा कागज बनाने के लिए है, ताकि उस कोरे कागज पर कुछ भी लिखा जा सके। अगर आप एक खाली पन्ना बन जाते हैं, और ऐसे ही बने रहते हैं, तो आप इस पन्ने पर जीवन को नए ढंग से लिख सकते हैं। आप जीवन की दिशा और दशा तय कर सकते हैं। किसी सिनेमाघर के पर्दे पर बहुत सारी फिल्में दिखाई जाती हैं। लेकिन यह पर्दा किसी भी फिल्म को विकृत नहीं करता, क्योंकि परदे पर पढ़ने वाला प्रकाश सूक्ष्म चीज है। अगर पर्दे पर रंगों या पेंट और ब्रश का इस्तेमाल किया जाता, तो वे पर्दे न जाने कब के बेकार हो गए होते।

पर्वत को देखिए, आकाश को निहारिए और तब आपको महसूस होगा कि आप कितने छोटे हैं। यह देखिए कि इस जगत में आपका क्या स्थान है और इस बारे में लगातार खुद को याद दिलाते रहिए - कि मैं, न के बराबर एक कण हूँ। आप कौन हैं, आप खुद को क्या समझते हैं, आपकी महानता, आपकी बेवकूफियां – इन सबका कोई मतलब नहीं है। सोचकर देखिए, कल सुबह अगर आप चल बसे तो इस दुनिया पर कोई असर नहीं पड़ने वाला।
यह सबके के लिए सत्य है। आप अगर इस बात को नहीं समझेंगे तो, आपका जीवन मूर्खतापूर्ण होता जाएगा, और जितनी जल्दी आप इस बात को समझ लेंगे, उतनी ही बुद्धिमानी से आप जीवन जी पाएंगे। बुद्धिमानी का मतलब बुद्धिजीवी होने से नहीं है। कुछ लोग होते हैं जो बुद्धिमान होते हैं और कुछ लोग बुद्धिजीवी हो सकते हैं। बुद्धिजीवी जानकार होते हैं, पर बुद्धिमानी का जानकारी और ज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है। मैं जानता हूं कि आपके दिमाग में तमाम बेवकूफी से भरी बातें भर दी गई हैं, खासकर तब जब आप पश्चिमी समाज से आते हैं। वे आपको बताते हैं, ईश्वर प्रेम है। अगर जीवन में परेशानियां आ रही हैं तो आप कहेंगे कि ईश्वर पीड़ा है। अगर जीवन ठीक-ठाक चल रहा है और आप चर्च जाते हैं तो आप सोचते हैं कि ईश्वर प्रेम है। आप नहीं जानते कि वह प्रेम है या नहीं। आप यह भी नहीं जानते कि वह दयालु है या नहीं। आप उन तमाम बेवकूफी भरी बातों को भी नहीं जानते, जो लोग उसके बारे में कहते हैं। अगर आप हर परमाणु, हर कोशिका, हर पत्ती, हर पेड़, हर प्राणी और जगत की तमाम दूसरी चीजों को ध्यान से देखेंगे, तो एक बात तो साफ हो जाएगी - कि ईश्वर परम बुद्धिमान है।
बस यही एक चीज आप अपने भीतर पैदा कर लें कि आपके अंदर कोई भेद भाव न हो। आपको इस बात से कोई फर्क न पड़े कि कोई बड़ा है या कोई छोटा है, कोई आदमी है या औरत, कोई देवता है या कोई राक्षस, यह पर्वत है और वह जमीन। आप इन सभी चीजों को एक ही तरीके से देखें। यही भक्ति है, कि आप जो भी देखें, आप झुक जाएं।