हम अकसर अपने अच्छे या बुरे कर्मों के लिए किसी और को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं, हालातों और मजबूरियों का हवाला देते रहते हैं। लेकिन क्या कर्मों के इन बंधनों से बचना, मुक्ति पाना हमारे खुद के वश में है? क्या कहते हैं, सद्‌गुरु इस बारे में :

आप जिनसे बहुत प्रेम करते हैं या जिनसे आप बहुत घृणा करते हैं, उन दोनों के साथ ही आपका बहुत सारा कर्म बंधन है। कई बार होता है कि आप किसी इंसान से कभी नहीं मिले, और वो भी कहीं बहुत दूर है, फिर भी आप उससे नफरत करते हैं।

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बंधन का कर्म करने के लिए आपका विवाहित होना जरूरी नहीं है। इसे तो आप खुद-ब-खुद भी कर सकते हैं। अपना शेष जीवन एक कमरे में अकेले बैठ कर बिता सकते हैं और वहां बैठे बैठे भी आप संसार के अनगिनत लोगों के साथ कर्म कर सकते हैं।
निश्चित तौर पर आपका लिथुआनिया की अपेक्षा पाकिस्तान के साथ कर्म बंधन ज्यादा है, क्योंकि भारत और पाकिस्तान के बीच इतना सब चल रहा है। तो कर्म इस वजह से नहीं होता, क्योंकि आप जीवन में किसी से संबंध बनाते हैं, बल्कि कर्म इसलिए हैं कि आप अपने भीतर किस तरह जूझ रहे हैं। यह ऐसी चीज है, जो जीवन आपके साथ नहीं कर रहा, बल्कि आप अपने साथ खुद कर रहे हैं।

इसलिए आप अपने साथ किस तरह का कर्म करते हैं, इसका चुनाव आपको खुद करना है। अगर आप चाहें तो आप आनंद पाल सकते हैं, इसी तरह आप चाहें तो दुख पाल सकते हैं। आप चाहें तो आनंदमय हो सकते हैं और चाहें तो कृतज्ञता में जी सकते हैं। आप चाहें तो बिना कारण खुद को तकलीफ दे सकते हैं। सब कुछ आपका ही किया-धरा है। इसलिए इस बात को समझना होगा कि कर्म का अर्थ हैः करनी। किसकी करनी? मेरी अपनी करनी। दूसरे शब्दों में कहें तो यह आपके जीवन का एक बड़ा सच है। आपको यह समझ लेना है कि जीवन स्वयं आपका रचा हुआ है। यह आपकी खुद की करनी है, किसी और की नहीं। चूंकि यह सिर्फ आपकी करनी है, केवल आपकी करनी, इसलिए इससे मुक्ति पाई जा सकती है। अगर यह भगवान की करनी होती तो आप इसका तोड़ कहां से निकाल पाते? अगर यह भगवान का बनाया फंदा होता, रचयिता का फंदा, तो आप सब कुछ कर लेते, फिर भी इसे तोड़ नहीं पाते। चूंकि इसे आपने बनाया है, इसलिए आप ही इसे तोड़ सकते हैं। आखिर यह आपकी करनी जो है।

आप आसपास मौजूद इंसान का इस्तेमाल अपने कर्म को तोडने, मुक्ति का कर्म करने या फिर बंधन का कर्म करने जैसे किसी भी रूप में कर सकते हैं। इस तरह से आप लगातार कुछ न कुछ करते रहते हैं, कुछ किए बिना आप रह नहीं सकते, है कि नहीं? सोते, जागते, शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक व ऊर्जा के स्तर पर हर हाल में आपके साथ हमेशा कुछ-न-कुछ होता रहता है, आप इससे छूट नहीं सकते। अगर आप जागरूक हैं तो मुक्ति का कर्म करेंगे, लेकिन अगर आप जागरूक नहीं है तो बंधन का कर्म करेंगे। बंधन का कर्म करने के लिए आपका विवाहित होना जरूरी नहीं है। इसे तो आप खुद-ब-खुद भी कर सकते हैं। अपना शेष जीवन एक कमरे में अकेले बैठ कर बिता सकते हैं और वहां बैठे बैठे भी आप संसार के अनगिनत लोगों के साथ कर्म कर सकते हैं। इसके लिए किसी की जरूरत नहीं, क्योंकि इसमें तो आप जो कुछ भी कर रहे हैं, वो अपने साथ कर रहे हैं।

यह किसी और के साथ संसर्ग या संपर्क नहीं है। यह वो है, जो आपके भीतर होता रहता है। आप रेशम के कीड़े की तरह हैं। रेशम तो बहुत ही सुंदर धागा और कपड़ा होता है, लेकिन यह रेशम के उस कीड़े की तरह है, जो अपनी ही मज्जा से वह अपने लिए एक ककूननुमा कैद बुनता है। इस ककून यानी पिटारी का अपना महत्व है, अगर वह कीड़ा किसी दिन उस ककून को नहीं तोड़ेगा तो यह ककून एक दिन उसी का प्राण ले लेगा। लेकिन उस ककून को तोड़ देने पर वह उसमें से एक सुंदर तितली बन कर बाहर निकलता है और उडऩे के लिए स्वतंत्र हो जाता है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो उस पिटारी के अंदर ही दम तोड़ देगा। बस यही कर्म है।

जिस पल आप सोचते हैं कि मेरा कर्म मेरी पत्नी के कारण है तो आप पूरी बात पर गौर नहीं कर पाते। कर्म उसके या किसी और के कारण नहीं है। कर्म का अर्थ है मेरा किया हुआ, मेरी ही करनी।
यदि आप उसकी पेचीदगी को समझ लें तो यह आपकी मुक्ति का आधार बन जाता है और फिर कुछ ऐसा घटित होता है, जो बहुत सुंदर होगा। कोई भी कीड़ा यह कल्पना नहीं कर सकता कि तितली होने का मतलब क्या है, है न? लेकिन अगर इस पिटारी के अंदर रहते हुए आपकी मृत्यु हो जाती है तो यह एक बहुत बड़ा बंधन बन जाता है, क्योंकि आप किसी और की बुनी हुई नहीं, बल्कि अपनी ही बुनी हुई पिटारी में दम तोड़ देते हैं।

इसका अर्थ यह है कि कर्म किसी और के बारे में नहीं है, वे आपके प्रियजन हों या दूर का कोई और इंसान हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कर्म वो है जो आप अपने भीतर कर रहे हैं। कर्म की मूल बात यह है कि यह मेरी करनी है। मैं जो कुछ भी हूं वह मेरा ही किया हुआ है। जिस पल आप सोचते हैं कि मेरा कर्म मेरी पत्नी के कारण है तो आप पूरी बात पर गौर नहीं कर पाते। कर्म उसके या किसी और के कारण नहीं है। कर्म का अर्थ है मेरा किया हुआ, मेरी ही करनी। यह मेरा बनाया हुआ है, सारे बंधन मेरे बनाये हुए हैं, इसलिए मुक्ति भी मेरी ही करनी होनी चाहिए। हां, कोई आपकी सहायता कर सकता है, पर यह आपका आंतरिक कार्य है। चूंकि यह आंतरिक कार्य है इसलिए थोड़ी-सी बाहरी सहायता की जरूरत होती है। हो सकता है कि दो व्यक्ति साथ रहते हों, बहुत-से काम साथ करते हों, लेकिन संभव है कि उनमें से एक मुक्त हो जाए और दूसरा बंधनों में उलझ जाए। क्या ऐसा नहीं है? क्या ऐसा नहीं हो रहा? दोनों एक साथ रहते हैं, एक ही काम करते हैं, लेकिन एक इस करनी का उपयोग बंधनों में उलझने के लिए कर रहा है और दूसरा मुक्ति के मार्ग पर आगे बढऩे के लिए, क्योंकि यह उनकी स्वयं की करनी है। अगर यह परस्पर एक-दूसरे के लिए की गई करनी होती तो दोनों बंधनों में उलझ गए होते। लेकिन ऐसा नहीं है। कर्म शब्द का अर्थ ही यह है कि यह मेरी करनी है, इससे किसी दूसरे का कोई लेना-देना नहीं है।