कैसे बनाएं अपने कर्म को कर्म योग?
गीता के सबसे प्रसिद्द सूत्रों में से एक है - कर्म करो पर फल की इच्छा न करो। इसे अपने जीवन में कैसे अपना सकते हैं, और ये अपनाने से क्या बदलाव आ सकता है?
गीता के सबसे प्रसिद्द सूत्रों में से एक है - कर्म करो पर फल की इच्छा न करो। इसे अपने जीवन में कैसे अपना सकते हैं, और ये अपनाने से क्या बदलाव आ सकता है?
प्रश्न: गीता के छठे अध्याय के तीसरे और चौथे श्लोक में कृष्ण कहते हैं कि शुरू में कर्म द्वारा योग की प्राप्ति की जा सकती है और फिर, उसमें पारंगत होने के लिए, सभी कर्मों का त्याग करना पड़ता है। एक और जगह पर वह कहते हैं कि कोई संन्यासी भी कर्म से मुक्त नहीं हो सकता, और आपने कहा कि शरीर को कायम रखने के लिए भी, सक्रियता जरूरी है। सद्गुरु क्या आप इस विरोधाभास को समझा सकते हैं?
सद्गुरु : जिन लोगों के पास यह पुस्तक नहीं है, मैं उन लोगों के लिए पढ़ कर सुनाता हूं। ‘श्री कृष्ण ने कहा, ‘जो मनुष्य किसी फल की इच्छा के बिना अपना कर्तव्य भली-भांति निभाता है, वही संन्यासी है और वही योगी है। सिर्फ कार्य और अग्नि को त्याग कर संन्यासी बनना संभव नहीं है। हे पांडुपुत्र, संन्यास ही योग है क्योंकि सभी स्वार्थों को त्याग कर ही योग को प्राप्त किया जा सकता है। जिसने अभी-अभी योग की शुरुआत की है, वह मनुष्य कर्म द्वारा योग को प्राप्त कर सकता है। मगर जो लोग पहले ही योग को प्राप्त कर चुके हैं, वे सभी कार्यों को त्याग कर ही उसमें सिद्ध हो सकते हैं। इंद्रियजनित वस्तुओं और कार्यों के प्रति हर तरह का जुड़ाव समाप्त होने, सभी सांसारिक इच्छाओं के समाप्त हो जाने पर कोई मनुष्य योग को प्राप्त कर सकता है। कोई अपने मन के द्वारा अपनी उन्नति करता है, या अवनति, यह उसके ऊपर है क्योंकि मन मनुष्य का मित्र भी हो सकता है और शत्रु भी।’
जब वह कहते हैं, ‘जो मनुष्य किसी फल की इच्छा के बिना अपना कर्तव्य भली-भांति निभाता है, वही संन्यासी है और वही योगी है, सिर्फ कार्य और अग्नि को त्याग कर संन्यासी बनना संभव नहीं है,’ तो इसका अर्थ है कि कर्म आपको नहीं उलझाता। मसलन, मान लीजिए, आप एक एकाउंटेंट हैं। ऑफिस जाना, जोड़-घटाव करना, घर आना, आपको नहीं उलझाता। मगर आप ऑफिस इसलिए जाते हैं क्योंकि उससे आपको इज्जत, सुविधाएं और दूसरे फायदे मिलते हैं।
यहां आश्रम में जो स्वयंसेवक रसोईघर में खाना पका रहे हैं, जो लोग फूलों को सजा रहे हैं, या बाकी सारा काम कर रहे हैं, इन्हें कोई ईनाम नहीं मिल रहा। उन्हें इस काम के पैसे नहीं दिए जाते, उन्हें हॉल में बैठने तक को नहीं मिलता। मगर क्या आपको लगता है कि वे कोई चीज नाराजगी से करते हैं, जैसे, ‘मुझे तो लीला (ईशा आश्रम में एक विशेष कार्यक्रम) में भाग लेने को भी नहीं मिलता, तो मैं यह सब क्यों करूं?’ ऐसा कोई नहीं है। वे आराम से ये काम कर रहे हैं। यही कर्म के फल का त्याग करना है। फल की इच्छा किए बिना, प्रयास किया जा रहा है। अक्सर, मेरी ओर से आभार का एक शब्द भी नहीं होता है क्योंकि मैं नहीं चाहता कि वे उसमें भी उलझें।
कर्म के फल की इच्छा ही उलझाती है
एक बार जब आप कर्म के फल की इच्छा को छोड़ देते हैं, तो कार्य आसानी से हो जाता है। जब कोई इंसान कोई काम सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि उसे वह काम पसंद है और सबसे बढ़कर क्योंकि वे चाहते हैं कि कोई और भी उसका आनंद उठाए, चाहे उन्हें भी वहां बैठने को मिले या नहीं, तब वह कार्य आपको नहीं उलझाता। एक बार जब आप कर्म के फल की इच्छा छोड़ देते हैं, तो वह कर्म आपको नहीं उलझाता। आपको उससे क्या मिलेगा, उसकी अपेक्षा आपको उलझाती है। बस खुद को ध्यान से देखिए – जहां भी आप किसी अपेक्षा के बिना कर्म करते हैं, आपका अनुभव क्या होता है, और जहां आप किसी उम्मीद से कर्म करते हैं, वहां आपका अनुभव कैसा होता है। अगर आप इसे ध्यान से देखेंगे, तो आप गीता की बात करेंगे।
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स्त्रियाँ आम तौर पर होतीं हैं बेहतर कर्मयोगी
चूंकि आप जागरूकता के कारण कर्म के फल का त्याग नहीं करेंगे, इसलिए प्रेम की इतनी बातें की जाती हैं। जब आपके अंदर किसी के लिए प्रेम की गहरी भावना होती है, तो कर्म के फल का त्याग करना आसान होता है। इस अर्थ में, आम तौर पर दुनिया में हर कहीं, और खास तौर पर इस संस्कृति में, स्त्रियां पुरुषों से बेहतर कर्मयोगी होती हैं। पति और बच्चों के साथ गृहिणी का दायित्व निभाना एक पूर्णकालिक काम है। अगर वे खाना पकाती हैं, तो चाहे वे खुद खाएं या नहीं, वे अपने पति और बच्चों को खिलाना चाहती हैं। वे जो कुछ भी करती हैं, उसके लिए किसी फल की इच्छा नहीं करतीं। किसी कारण से उनमें एक अलग गुण होता है, शांति और जीवन की एक खास किस्म की भावना होती है। इस पीढ़ी में, वह गायब हो रहा है, क्योंकि वे शिक्षा प्राप्त कर रही हैं और दुर्भाग्यवश, शिक्षा का ढांचा जिस तरह तैयार किया गया है, वह अंतहीन इच्छाओं को जन्म देता है।
जब आप शिक्षा हासिल कर लेते हैं, तो बैठकर आराम करने का कोई सवाल नहीं होता। आपको लगातार सक्रिय रहना पड़ता है। आधुनिक शिक्षा ने प्रगति में इस पागलपन को ला दिया है। 60 के दशक के दौरान, हिप्पियों का एक नारा था ‘चाहे आप चूहा दौड़ जीत भी लें, फिर भी आप चूहे ही रहेंगे।’
कर्म से मुक्ति पाने की संस्कृति पैदा करनी होगी
कर्म के फल से मुक्त होना एक संपूर्ण मुक्ति है। कर्म अपने आप में कभी पीड़ा नहीं होता, बल्कि कर्म का फल पाने की इच्छा रखना पीड़ा को जन्म देता है। अगर आपको बदले में कोई अपेक्षा नहीं होगी, तो आप खुशी-खुशी और जबर्दस्त क्षमता से काम करेंगे क्योंकि आखिरकार उसका नतीजा क्या होता है, उससे आपको फर्क नहीं पड़ता। अगर आपको कुछ करने में मजा आएगा, तो आप खुद को पूरी तरह उसमें झोंक देंगे। हम यही संस्कृति पैदा करना चाहते हैं। अगर आप ब्रह्मचारियों को देखें, तो वे अपनी चरम प्रकृति की ओर जाने के लिए मेहनत कर रहे हैं। आपको भी, आप सब को भी मेहनत करनी चाहिए। कर्म के फल की आशा न करें।
‘हे पांडुपुत्र, संन्यास ही योग है क्योंकि सभी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को त्याग कर ही योग को प्राप्त किया जा सकता है।’ यह अलग तरीके से कही गई वही बात है। यहां पर वह स्पष्ट करते हैं कि संन्यास का मतलब कुछ न करना नहीं है। इसका मतलब बस यह है कि आपने स्वार्थपूर्ण इच्छाएं त्याग दी हैं – यहां पर स्वार्थ सामाजिक अर्थ में नहीं है, बल्कि कर्म के फल को लेकर कुछ ज्यादा चिंतित रहने के अर्थ में है। चाहे वह आपके लिए नहीं, बल्कि दूसरे लोगों – अपने परिवार, अपने समुदाय या किसी और के लिए हो, आपको किसी फल की इच्छा किए बिना सब करना चाहिए। अगर आपको कोई फल मिलता है, तो उसे खा लें, इसमें कोई बुराई नहीं है। वह फल आपको नहीं मारता। कर्म के फल की आशा आपको मारती है।
प्रारब्ध से दूरी बनाएं या फिर उसे खर्च कर दें
जिसने अभी-अभी योग की शुरुआत की है, वह कर्म द्वारा योग को प्राप्त कर सकता है। मगर जो लोग पहले ही योग को प्राप्त कर चुके हैं, वे सभी कार्यों को त्याग कर ही उसमें निष्णात हो सकते हैं। कई लोग मुझसे पूछते हैं, ‘क्या मुझे आश्रम में आना चाहिए?’ उन्हें लगता है कि वे अपने जीवन में जो कुछ भी करते रहे हैं – अपनी जिम्मेदारियों, अपने परिवार, अपने काम, अपने कारोबार को छोड़कर यहां सिर्फ ध्यान करने आएं। नहीं, यहां भी हम लोगों को काम देते हैं, क्योंकि उनके प्रारब्ध का एक हिस्सा जो कर्म से जुड़ा है, अभी नष्ट नहीं हुआ है। जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, प्रारब्ध कर्म की एक निर्धारित मात्रा है। आपकी जीवन ऊर्जा की एक निश्चित मात्रा विभिन्न पहलुओं से जुड़ी है, जिसमें कर्म, विचार और भावनाएं शामिल हैं। आपको कर्म से जुड़ी ऊर्जा का या तो खर्च करना होगा या उससे परे जाना होगा। सबसे आसान तरीका है, उसे खर्च करना। अगर आप ज्यादा काम करेंगे, तो कर्म के लिए निर्धारित ऊर्जा जल्दी ही खर्च हो जाएगी।
प्रारब्ध कर्मों के द्वारा निर्धारित ऊर्जा खर्च करनी होगी
जब तक कि आप निर्धारित ऊर्जा को खर्च न कर लें, आप शांत नहीं बैठ सकते। अगर आप अपने अंदर किसी हलचल, एक भी विचार या भावना या किसी और चीज के बिना, बस एक खाली स्थान की तरह यहां बैठना चाहते हैं, तो आपको उस ऊर्जा को खर्च करने के लिए मेहनत करनी होगी।
अगला वाक्य है, ‘मगर जो लोग पहले ही योग को प्राप्त कर चुके हैं, वे सभी कार्यों को त्याग कर ही उसमें सिद्ध हो सकते हैं।’ एक बार जब आप अपने प्रारब्ध कर्म को खर्च कर लेते हैं, जिसका मतलब है कि कर्म के लिए निर्धारित ऊर्जा का पूर्ण इस्तेमाल किया जा चुका है, तब आप सभी कार्यों को छोड़कर पूर्णता पा लेते हैं। मानव चेतनता या अनुभव के एक स्तर को योग कहा गया है, दूसरे स्तर को ‘सिद्धि’ कहा गया है। छ्ठे अध्याय का तीसरा श्लोक है -
प्रतिभागी: योगारूढस्य तस्यैव शम: कार्णम उच्चयते
इसका अंग्रेजी अनुवाद उतना सटीक नहीं हो सकता है। खैर – शुरुआत करने वाले के लिए, कर्म अच्छा है। सबसे पहले आपको खुद को उस स्तर तक लाना होगा, जहां आप भौतिक अस्तित्व की मूल शक्ति – कर्म के बंधन या प्रारब्ध से परे चले जाएं। जब इंद्रियजनित वस्तुओं और कार्यों से सारा जुड़ाव समाप्त हो जाता है और सभी भौतिक इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं, तो हम योग को प्राप्त कर सकते हैं। वह मन की बजाय इंद्रियों की बात करते हैं। दोनों आपस में जुड़े हैं – पांचों इंद्रियां मन के मुख हैं। पांचों इंद्रियों के बिना, मन को कोई चारा नहीं मिलता। अगर इंद्रियों को किसी चीज में दिलचस्पी नहीं होती, तो मन को चंचल होने के लिए कोई आहार नहीं मिलता।
पूर्ण अक्रियता समाधि है। समाधि में आप बाहरी और अंदरूनी, दोनों तरह के कार्यों को त्याग देते हैं। यहां तक कि शारीरिक क्रिया भी रुक जाती है। कार्यों को रोकना सिर्फ बाहरी क्रिया से संबंधित नहीं होता, बल्कि आंतरिक क्रिया – विचारों, भावनाओं, शारीरिक हलचल से भी जुड़ा होता है। सब कुछ अक्रिय हो जाता है।