मेरे लिए यह परीक्षा की घड़ी थी और उसी समय से मैं खुद से बिना किसी लाग-लपेट के सच बोलने की कोशिश करने लगी। सद्‌गुरु के साथ ईशा योग करने के बाद मैं यह जान सकी हूं कि इससे आप स्वयं को दर्पण की तरह साफ देखने लगते हैं।

मेरे मन में ये विचार उछल रहे थे तभी मैंने घड़ी पर नजर डाली। आधी रात का दो बीस बजा देख कर मैं चौंक गयी। हम अपने निजी टापू पर धधकती आग के पास साथ बैठे आराम से बातें कर रहे थे और समय जैसे भागा जा रहा था।

सद्‌गुरु बोल रहे थे और हम दोनों आग को जलाए रखने में लगे थे। मैं अपने वातावरण को गहराई से महसूस करने लगी - चेहरों को थपथपाती ठंडी हवा, धरती का अपनापन बिखेरती मिट्टी और झील की भीगी भीनी सुगंध तथा आग की तीखी गंध। टापू पर बैठे हम लोगों को आग सुहानी और आराम पहुंचाने वाली लग रही थी! मैंने सद्‌गुरु की ओर देखा उनसे एक और सवाल पूछने का साहस जुटाया।

क्या प्रेम ही परम है?

‘सद्‌गुरु,’ मैंने कहा, ‘मैं हमेशा सोचती थी कि प्रेम ही परम है, लेकिन आप कहते हैं कि इससे अधिक कुछ और भी है। यह अधिक क्या है? क्या दिव्य प्रेम जैसा कुछ है?’

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जब आप भावनात्मक स्तर पर कहती हैं कि ‘मैं किसी से प्रेम करती हूं’ तो उसका अर्थ यह है कि आप उस व्यक्ति में मिल जाने को अधीर हैं यानी आप सचमुच में जो खोज रही हैं वह है एकात्मता।

कुछ पल रुककर उन्होंने कहा, ‘प्रेम उन अनेक सुंदर भावनाओं में से एक है जो मनुष्य अनुभव कर सकता है। कई संस्कृतियों या तथाकथित सभ्यताओं ने प्रेम को दबा दिया है। बहुत-से लोगों ने प्रेम को स्वर्ग भेज देने की पुरजोर कोशिश की है। प्रेम पृथ्वी की भावना है, उस हृदय की जो आप हैं। प्रेम एक मानवीय भावना है। इसके लिए आपको स्वर्ग जाने की जरूरत नहीं है। हृदय की मिठास को ही प्रेम कहते हैं। ‘जब आप दुनिया को गलत और सही, अपना और पराया, भगवान और हैवान में बांट देती हैं तो आपका प्रेम शर्तों की बैसाखियों पर चलता है। सरल शब्दों में कहूं तो अनुभव के स्तर पर आप इन चार चीजों का मिश्रण हैं- तन, मन, भावना और ऊर्जा। फिलहाल इन चार चीजों के मिश्रण को ही आप ‘मैं’ कहती हैं।

‘आम तौर पर लोग तन, मन और ऊर्जा की तीव्रता का अनुभव नहीं कर पाते, लेकिन वे भावनाओं का उफान अच्छी तरह महसूस कर सकते हैं। फिर वे भावनाएं चाहे जो भी हों - क्रोध, घृणा, ईष्र्या, प्रेम या करुणा। अधिकतर लोगों के व्यक्तित्व का सबसे प्रबल अंश उनकी भावनाएं होती हैं। इन सारी भावनाओं में सबसे अधिक सुंदर है प्रेम।

प्रेम आपका अपना गुण है

‘जब मैं ‘प्रेम’ शब्द कहता हूं तो शायद आप किसी से प्रेम करने के बारे में सोचती होंगी, लेकिन प्रेम किसी और के बारे में नहीं है यह आपका अपना गुण है।

जब आप भावनात्मक स्तर पर कहती हैं कि ‘मैं किसी से प्रेम करती हूं’ तो उसका अर्थ यह है कि आप उस व्यक्ति में मिल जाने को अधीर हैं यानी आप सचमुच में जो खोज रही हैं वह है एकात्मता।
जैसे स्वास्थ्य शरीर का होता है और प्रसन्नता मन की, वैसे ही प्रेम आपकी भावना का होता है। आप जिनसे बहुत अधिक प्रेम करती हैं वे आपके पास न हों तब भी आप उनसे प्रेम करने में सक्षम होती हैं। बहुत-से लोग अपना प्रेम तभी जता पाते हैं जब कोई मर जाता है या मरनेवाला होता है। हम हमेशा मरे हुए लोगों को प्रेम करते हैं।’ कहकर वे हंस पड़े और फि र उन्होंने अपनी बात जारी रखी।

‘अपने अंदर ईमानदारी से झांककर देखिए। अपने जीवन के सबसे प्यारे व्यक्ति पर नजर डालिए और देखिए कि उनके खिलाफ कितनी तहें आपके मन में हैं। ज्यों ही आपका मन कहता है कि अमुक व्यक्ति या अमुक चीज ठीक नहीं है आप उससे प्यार नहीं कर सकतीं।’

जब आप भावनात्मक स्तर पर कहती हैं कि ‘मैं किसी से प्रेम करती हूं’ तो उसका अर्थ यह है कि आप उस व्यक्ति में मिल जाने को अधीर हैं यानी आप सचमुच में जो खोज रही हैं वह है एकात्मता।

‘प्रेम आपका गुण है। आप इस गुण को व्यक्त करने के लिए अपने आसपास की चीजों और लोगों का सिर्फ उत्प्रेरक के रूप में उपयोग कर रही हैं। प्रेम वह नहीं जो आप करती हैं। आप स्वयं ही प्रेम हैं।’

‘यदि आप प्रेम को एक भावना के रूप में देखती हैं तो बारीकी से सोचिए कि इसका उद्देश्य क्या है। जब आप भावनात्मक स्तर पर कहती हैं कि ‘मैं किसी से प्रेम करती हूं’ तो उसका अर्थ यह है कि आप उस व्यक्ति में मिल जाने को अधीर हैं यानी आप सचमुच में जो खोज रही हैं वह है एकात्मता। आपमें ऐसा कुछ है जो फिलहाल खुद को अधूरा महसूस कर रहा है। तभी आप ख़ुद में किसी और को समा लेने को बेताब हैं। जब यह लालसा शारीरिक अभिव्यक्ति पाती है तो हम उसे सेक्स कहते हैं। यदि यह मानसिक रूप से अभिव्यक्त होती है तो इसको लालच या महत्वाकांक्षा कहते हैं। जब यह भावनात्मक रूप से अभिव्यक्त होती है तो उसको प्रेम या सहानुभूति कहते हैं।’

सीधे अनंत को पाने का प्रयास करना होगा

‘स्वयं से मिलने को बेताब जीवन ही प्रेम है। यह संपूर्ण समावेशी हो जाने की लालसा है। संपूर्ण समावेशी हो जाना यानी अनंत हो जाना। लेकिन शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक माध्यमों से संपूर्ण समावेशी और अनंत हो जाने की कोशिश हमेशा केवल लालसा ही बनी रहेगी। कई बार प्रेम में आपको यूं लगता है कि आपने अनंत को पा लिया है लेकिन हमेशा ठोकर खाकर आप समझ पाती हैं कि नहीं ऐसा नहीं है।’

आप सेक्स, धन या प्रेम जिस किसी के भी पीछे भागें, सच में आप जो चाह रही हैं वह है सीमाहीन अनंत।

‘भेद-भाव वाली बुद्धि को पार कर लेने पर आप समाधि की अवस्था पा लेती हैं। सम का अर्थ है समचित्तता, धि का अर्थ है बुद्धि। यह अगाध उल्लास की अवस्था होती है जो तन, मन और भावनाओं की सीमाओं से बहुत ऊपर होती है। आप सेक्स, धन या प्रेम जिस किसी के भी पीछे भागें, सच में आप जो चाह रही हैं वह है सीमाहीन अनंत। जब आपका एक बड़ा अंश अभी भी अचेतन हो, तो लालसा बनी रहती है और आपको तृप्ति नहीं मिलती, परम का अनुभव नहीं होता। यदि आप जो चाहती हैं वह अनंत है, तो सीधे वही पाने का प्रयास क्यों नहीं करतीं?’